नज़रिया: क्या देश में संसद की ज़रूरत ख़त्म हो गई है?
'सब सड़क मौन हो जाती है तो देश की संसद आवारा या बांझ हो जाती है.' यह बात डॉक्टर राममनोहर लोहिया ने कोई छह दशक पहले कही थी, लेकिन देश के मौजूदा राजनीतिक माहौल और संसद की भूमिका पर आज भी सटीक रूप से लागू होती है.
बीते पांच मार्च से शुरू हुआ संसद के बजट सत्र का दूसरा चरण भी लगभग पूरी तरह हंगामे की भेंट चढ गया, सत्र के पहले चरण में भी राष्ट्रपति के अभिभाषण
'सब सड़क मौन हो जाती है तो देश की संसद आवारा या बांझ हो जाती है.' यह बात डॉक्टर राममनोहर लोहिया ने कोई छह दशक पहले कही थी, लेकिन देश के मौजूदा राजनीतिक माहौल और संसद की भूमिका पर आज भी सटीक रूप से लागू होती है.
बीते पांच मार्च से शुरू हुआ संसद के बजट सत्र का दूसरा चरण भी लगभग पूरी तरह हंगामे की भेंट चढ गया, सत्र के पहले चरण में भी राष्ट्रपति के अभिभाषण, उस पर हुई कर्कश बहस और उसके जवाब में प्रधानमंत्री के नरेंद्र मोदी के कटाक्षों से भरे भाषण के अलावा कुछ भी उल्लेखनीय नहीं हो पाया था.
केंद्र में सरकार चाहे जिस पार्टी की हो, उसकी कोशिश संसद को कम-से-कम चलाने, उसकी उपेक्षा करने या उससे मुंह चुराने या उसका मनमाना इस्तेमाल करने की रही है.
उसकी इसी प्रवृत्ति के चलते देश की सबसे बड़ी पंचायत में हंगामा और नारेबाज़ी अब हमारे संसदीय लोकतंत्र का स्थायी भाव बन चुका है. पिछले कुछ दशकों के दौरान शायद ही संसद का कोई सत्र ऐसा रहा हो, जिसका आधे से ज्यादा समय हंगामे में ज़ाया न हुआ हो.
महज खानापूरी
देश के 70 वर्ष के संसदीय इतिहास में यह पहला अवसर है, जब देश का आम बजट और वित्त विधेयक बिना बहस के पारित हो गया.
ऐसा ही एक इतिहास छह महीने पहले भी रचा गया था जब संसद का शीतकालीन सत्र सरकार ने बिना किसी जायज़ वजह के निर्धारित समय से लगभग डेढ़ महीने बाद आयोजित किया था. वह भी विपक्ष के दबाव में और महज खानापूर्ति के लिए बेहद संक्षिप्त- महज 14 दिन का.
संसदीय लोकतंत्र में संसद चले और जनहित के मुद्दों पर बहस हो, यह जिम्मेदारी विपक्ष की भी होती है मगर सरकार की उससे कहीं ज्यादा होती है लेकिन पूरे सत्र के दौरान सरकार की ओर इस तरह की कोई इच्छा या कोशिश नहीं दिखाई दी.
मुख्य विपक्षी दल कांग्रेस के अलावा आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, पश्चिम बंगाल आदि राज्यों की क्षेत्रीय पार्टियों के सांसद अपने-अपने सूबे से संबंधित मसलों पर बहस की मांग को लेकर हंगामा करते रहे और पीठासीन अधिकारी उनसे शांति बनाए रखने की औपचारिक अपील कर सदन की कार्यवाही स्थगित करते रहे.
लोकसभा अध्यक्ष और राज्यसभा के सभापति की ओर से भी इस सिलसिले में ऐसी कोई संजीदा पहल नहीं की गई, जिससे कि सदन की कार्यवाही सुचारू रूप से चल सके.
विपक्ष के सवालों का सामना
दोनों सदनों में हंगामा और कार्यवाही का बार-बार स्थगित होना सरकार के लिए मनमाफ़िक ही था, अगर यह स्थिति नहीं बनती और संसद सुचारू रूप से चलती तो सरकार कई मोर्चों पर घिर सकती थी.
सरकार को गिरती अर्थव्यवस्था, बेरोज़गारी, नित नए उजागर हो रहे बैंक घोटालों, उन घोटालों में सत्तारूढ़ दल के शीर्ष नेतृत्व से करीबी लोगों की भूमिका और उनका विदेश भागना, लड़ाकू रॉफेल विमानों का विवादास्पद सौदा, देश के विभिन्न भागों में जातीय और सांप्रदायिक तनाव, चीनी घुसपैठ, कश्मीर के बिगड़ते हालात आदि सवालों पर विपक्ष के सवालों का सामना करना पडता, जो कि उसके लिए आसान नहीं था.
इसके अलावा एससी-एसटी एक्ट के मामले में सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले को लेकर जो हंगामा देश की सड़कों पर रहा, क्या संसद इतने बड़े मुद्दे पर बहस नहीं होनी चाहिए थी, बिल्कुल होनी चाहिए थी, लेकिन नहीं हुई.
इसके अलावा विपक्ष की ओर से आया अविश्वास प्रस्ताव तथा सुप्रीम कोर्ट के प्रधान न्यायाधीश के खिलाफ महाभियोग की चर्चा भी सरकार की मुसीबतों में इज़ाफा ही करता.
ज़ाहिर है कि सरकार भी नहीं चाहती थी कि संसद चले, अलबत्ता सरकार की ओर से संसदीय कार्य मंत्री और अन्य वरिष्ठ मंत्री यह घिसा-पिटा वाक्य ज़रूर नियमित रूप से दोहराते रहे कि सरकार हर मुद्दे पर चर्चा के लिए तैयार है.
सरकार के इस रवैये पर वरिष्ठ नेता शरद यादव कहते हैं, 'यह सरकार जिस तरह अन्य संवैधानिक संस्था को अप्रासंगिक बनाने पर तुली हुई है उसी तरह संसद को भी निष्प्रभावी बनाना चाहती है.'
...फैसला इस बार ही क्यों!
अपनी सदस्यता को लेकर अदालती लड़ाई लड़ रहे शरद यादव का मानना है कि देश आज बेहद नाज़ुक दौर से गुजर रहा है, ऐसे में सरकार ही नहीं चाहती है कि संसद सुचारू रूप से चले और उसकी नाकामियां उजागर हों.
बहरहाल, संसद के प्रति अपनी संजीदगी प्रदर्शित करने के लिए सरकार ने अपने गठबंधन के सांसदों से यह फैसला भी करवा दिया कि वे बजट सत्र के दूसरे चरण के 23 दिनों का वेतन-भत्ता नहीं लेंगे.
यहाँ सवाल उठता है कि संसद में हंगामा तो पिछले चार साल के दौरान हर सत्र में हुआ और कई-कई दिन काम नहीं हो पाया, फिर यह फैसला इस बार ही क्यों!
इसकी वजह बिल्कुल साफ़ है, संसद नहीं चलने देने का ठीकरा विपक्ष के माथे पर फोड़ने की कोशिश के तहत ही यह क़दम उठाया गया.
भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई) के सांसद डी राजा कहते हैं कि सत्ताधारी पार्टी की हठधर्मिता की वजह से संसद नहीं चल सकी और इसी से उपजे अपराध बोध के चलते उनके गठबंधन के सांसदों ने वेतन-भत्ता न लेने का फैसला किया है.
सरकार की जिम्मेदारी
संसद में जिस तरह का गतिरोध इस सत्र के दौरान बना, उसे देखते हुए कोई डेढ़ दशक पुराना वाकया याद आता है.
साल 2003 की बात है, उस समय अटल बिहारी वाजपेयी की अगुवाई में एनडीए की सरकार थी. अमरीका ने इराक पर हमला बोल दिया था, तब कांग्रेस समेत कई विपक्षी पार्टियाँ संसद में अमरीका के ख़िलाफ़ निंदा प्रस्ताव पारित कराने की मांग कर रही थीं.
हालांकि विदेश मंत्रालय एक वक्तव्य जारी कर उस हमले की निंदा कर चुका था, लेकिन तत्कालीन विदेश मंत्री यशवंत सिन्हा विपक्ष की मांग के मुताबिक़ संसद में निंदा प्रस्ताव लाने के पक्ष में नहीं थे, कुछ दिनों तक हंगामे की वजह से संसद में गतिरोध बना रहा.
आख़िरकार वाजपेयी ने सिन्हा और तत्कालीन संसदीय कार्य मंत्री सुषमा स्वराज को बुलाकर समझाया कि संसद सुचारू रूप से चले यह सरकार की ज़िम्मेदारी होती है, लिहाजा हमें विपक्ष से सिर्फ मीडिया के माध्यम से ही संवाद नहीं करना चाहिए बल्कि संसद से इतर अनौपचारिक तौर पर भी बात होनी चाहिए.
बातचीत के इसी सिलसिले में गतिरोध का हल छिपा होता है, वाजपेयी की इस नसीहत के बाद यशवंत सिन्हा और सुषमा स्वराज की स्पीकर के कक्ष में विपक्षी नेताओं से बातचीत हुई. उसी बातचीत के दौरान निंदा प्रस्ताव के मसौदे पर भी सहमति बनी. इस तरह गतिरोध खत्म हुआ और राष्ट्रीय महत्व के मुद्दे पर सहमति बनी.
वाजपेयी के समय के इस वाकये के प्रकाश में अगर मौजूदा सरकार के रवैये को देखें तो कहीं से नहीं लगता कि सरकार में बैठे लोग अपने राजनीतिक पूर्वज अटल बिहारी वाजपेयी की सीख के मुताबिक विपक्ष से अनौपचारिक संवाद करने और संसद चलाने की इच्छा रखते हों.
जिस संसद की सीढ़ियों पर सिर झुकाकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने आँसू छलकाए थे, अगर वे उसी संसद में चर्चा लायक़ माहौल बनाने की कोशिश करते दिखते तो लोकतंत्र के भविष्य को लेकर इतनी आशंकाएं न सतातीं.