नज़रिया: लड़ाका लालू में अब कितना बचा है मनोबल?
क्या यह भी मान लिया जाए कि लालू प्रसाद की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल का भविष्य अंधकार में है?
विपक्ष या विरोधियों की बात करें तो वे कुछ ऐसा ही समझते हैं या फिर यूं कहें कि ऐसी उम्मीद लगाए बैठे हैं.
चारा घोटाले में दुमका कोषागार से अवैध निकासी से जुड़े जिस केस नंबर 38ए/96 में लालू प्रसाद को सबसे लंबी और बड़ी सज़ा हुई है, उसके बाद से तो इस कयास को और भी बल मिला है
चारा घोटाले में सज़ा-दर-सज़ा के बाद क्या ये मान लिया जाए कि अब लालू प्रसाद के साथ उनकी राजनीति भी क़ैद हो गई?
क्या यह भी मान लिया जाए कि लालू प्रसाद की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल का भविष्य अंधकार में है?
विपक्ष या विरोधियों की बात करें तो वे कुछ ऐसा ही समझते हैं या फिर यूं कहें कि ऐसी उम्मीद लगाए बैठे हैं.
चारा घोटाले में दुमका कोषागार से अवैध निकासी से जुड़े जिस केस नंबर 38ए/96 में लालू प्रसाद को सबसे लंबी और बड़ी सज़ा हुई है, उसके बाद से तो इस कयास को और भी बल मिला है कि लालू की राजनीति का अंत हो गया.
बीते शनिवार को सीबीआई की विशेष अदालत ने लालू प्रसाद को दो मामलों में सात-सात साल की सज़ा सुनाई. ऐसे में वाजिब भी है ऐसा सोचना.
क्या लालू का राजनीतिक कद घट जाएगा?
चारा घोटाले के कुल सात मामले में सुनवाई चल रही है, जिसमें से चार मामलों में सज़ा का एलान निचली अदालत कर चुकी है.
बाक़ी तीन अन्य मामलों में भी सुनवाई जारी है, जिसके फ़ैसले भी एक के बाद एक जल्दी ही आने वाले हैं. चारा घोटाला के ये तीन मामले हैं- डोरंडा, दुमका, भागलपुर-बांका कोषागार से अवैध निकासी का.
एक अन्य मामला पटना में भी है. ज़ाहिर तौर पर यह माना जा रहा है कि आगे के तीन मामलों में भी सीबीआई अदालत से लालू को कोई रहम की उम्मीद तो नहीं ही होगी. यानी सज़ा का पहाड़ और बड़ा होने वाला है.
नेताओं की सज़ा बढ़ती है तो उनकी सियासत कमतर होती जाती है. हरियाणा के ओम प्रकाश चौटाला से लेकर बिहार के नेता आनंद मोहन और शहाबुद्दीन तक की बात करें तो जेल और सज़ा ने ऐसे नेताओं की सियासत के कद को घटाया है. पर लालू के मामले में भी क्या ऐसा ही होगा?
'लालू एक लड़ाका हैं'
लालू की राजनीति, उनकी सियासी ज़मीन के सामाजिक समीकरण, उनका जनाधार और राजनीति में पार्टी सुप्रीमो की हैसियत के साथ-साथ अपने राजनीतिक वंशवृक्ष को मुस्तैदी से खड़ा कर देने को अगर सामने रखें तो परिदृश्य हू-ब-हू ऐसा ही नहीं, कुछ और भी दिखता है.
यह तो विरोधी भी मानते हैं कि लालू न सिर्फ़ बिहार की राजनीति बल्कि भारतीय राजनीति के भी एक ऐसे नेता रहे हैं, जो बार-बार पटखनिया खाने के बाद भी उठ खड़े होते हैं.
लालू को कभी नीतीश कुमार के साथ घेरने और फिर उनके सामाजिक न्याय के सियासी हमसफर भी रहने वाले समाजवादी नेता शिवानंद तिवारी अक्सर चर्चा में कह जाते हैं कि "लालू एक लड़ाका हैं और सरोकार के मामले में बड़े मास लीडर... जो लड़ता है, हिम्मत नहीं हारता और यही लालू प्रसाद की बड़ी राजनीतिक पूंजी है जो उनके विरोधियों में नहीं दिखाई पड़ती."
...पर सवाल ये भी कि राजनीति के वर्तमान हालात और रवानी क्या वैसी ही है जैसी अब तक लालू को मिलती रही और वे उससे लड़ते रहे?
नीतीश का 'उभार' और लालू का 'सिमटना'!
तो क्या होगा लालू का? क्या होगा उनकी पार्टी आरजेडी का? क्या होगा लालू के राजनीतिक वारिस उनके पुत्र तेजस्वी यादव के राजनीतिक भविष्य का?
मोदी-भाजपा विरोध के घोड़े पर सवार लालू-तेजस्वी क्या 2019 के लोकसभा चुनावों और 2020 के बिहार विधानसभा चुनावों तक अपना किला बचा पाएंगे या मटियामेट हो जाएंगे?
या फिर मोदी-नीतीश समेत अपने विरोधियों को उखाड़ फेंक नई बुलंदियों का पताका लहरा सकेंगे? बिंदुवार बात की जाए तो स्थिति कुछ इस तरह की दिखाई देती है.
पहले लालू की हालिया राजनीति की बात करें तो नीतीश कुमार के सत्ता केंद्र में उभार के साथ बिहार में लालू की राजनीति को तेज़ झटका लगना शुरू हुआ.
नीतीश के विजय काल में लालू और उनकी पार्टी आरजेडी बिहार में सिमटती गई फिर भी विधानसभा में कांग्रेस की तरह इकाई में नहीं पहुंची. दो अंकों के आंकड़े पर 22 सीटों पर रहे लालू.
बुरे वक़्त में लालू की 'मजबूती'
पिछले 2014 के लोकसभा चुनावों में नरेंद्र मोदी के उदय और लहर के साथ लालू-नीतीश सबकी मुश्किलें बढ़ीं. तब नीतीश बीजेपी से दामन छुड़ा मोदी विरोध की सवारी कर रहे थे लेकिन लालू से भी मुक़ाबिल थे.
2014 की उस मोदी लहर और बिहार में नीतीश की सरकार होने के बावजूद लालू 2009 की तरह चार लोकसभा सीट जीतें, जबकि नीतीश 2009 में जीती अपनी 20 सीटों से दो पर आ गए.
ये बताता है कि लालू प्रसाद की राजनीति बुरे वक़्त में भी शून्य पर नहीं रही.
2015 के विधानसभा चुनाव में जेडीयू-कांग्रेस-आरजेडी के महागठबंधन ने लालू की राजनीतिक ताक़त को नए सिरे से मजबूत कर दिया.
इसमेँ कोई दो राय नहीं कि एक बार फिर से लालू को इनकार कर बिहार में कोई राजनीति नहीं हो सकती. महागठबंधन टूटने और नीतीश के लालू से अलग हो जाने के बावजूद लालू की ताक़त बनी रही.
यह इस बार के उपचुनावों के परिणाम ने भी साबित कर दिया. जेल में होने के बावजूद ये लालू के पुनर्जीवित हुए वोट बैंक का ही करिश्मा कहा जाएगा की आरजेडी ने अररिया लोकसभा और जहानाबाद की विधानसभा सीट को जीत लिया.
एनडीए ने कहा सब अपनी-अपनी सीट पर सहानुभूति वोटिंग के कारण जीते. कहने वाले ये भी कह रहे कि कांग्रेस ने मज़बूत उम्मीदवार दिया होता तो आरजेडी गठबंधन भभुआ सीट भी निकाल लेती.
मोदी और लालू में समानता
एक बार फिर से लालू का पुराना 'माय' (मुस्लिम-यादव) समीकरण ज़िंदा होता दिखने लगा है बल्कि उसमें नीतीश कुमार जो दलित-महादलित और अत्यंत पिछड़ों का ठोस वोट बैंक बना पाए थे, उसका भी एक हिस्सा लालू के पास आता दिख रहा है.
लालू प्रसाद हमेशा से जनाधार के नेता रहे हैं और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की तरह उनकी भी मास अपील वोटरों को खींचने वाली रही है. जेल में ही सही लालू अपनी ये मास अपील बनाए हुए हैं जिसका राजनीतिक लाभ आरजेडी को मिलने से इनकार नहीं किया जा सकता.
अलबत्ता ये भी सच है कि लालू जेल से बाहर होते हैं तो रोजमर्रे की राष्ट्रीय सियासत तक में सीधे मुठभेड़ करते हैं जिसका घाटा आरजेडी को उठाना पड़ेगा. बीजेपी को इसका सीधा लाभ मिलेगा. 2019 की चुनावी सभाओं में भी मोदी के मुक़ाबले लालू की सभाओं का न होना बीजेपी को निःसंदेह लाभ ही पहुंचाएगा.
लालू प्रसाद को चारा घोटाले के जिन चार मामलों में अब तक सज़ा हो चुकी है, उनमें से एक को छोड़कर बाकी की तीन सज़ाओ में अब तक कोई ज़मानत नहीं मिल पाई है. माना जा रहा है कि उन्हें नियमित ज़मानत मिलने में कठिनाई होगी.
चारा घोटाला और राजद की बुनियाद
हो सकता है बाक़ी के तीन मामलों में सुनवाई पूरी होने और फ़ैसला आने तक उन्हें जमानत न भी मिले. पहले मामले 20ए/96 में हुई सज़ा के बाद उन्हें सुप्रीम कोर्ट से ज़मानत मिली थी.
पटना उच्च न्यायालय के वरीय अधिवक्ता यदुवंश गिरी कहते हैं कि लालू को अब ज़मानत मिल सकती है तो सिर्फ़ स्वास्थ्य के आधार पर जिसके लिए उन्हें विशेष अपील करनी पड़ेगी.
लालू को अब तक कुल सज़ा साढ़े 22 साल की मिल चुकी है. प्रावधान के मुताबिक 10 साल से अधिक सज़ा होने पर ज़मानत के लिए हाई कोर्ट की डबल बेंच ही सुनवाई कर सकती है. जो भी हो नियमित ज़मानत मुश्किल है, आसान नहीं.
राजनीतिक तौर पर इन सजाओं का एक पहलू ये भी है कि कुल सज़ा काटने के 6 वर्ष बाद ही लालू अपना कोई चुनाव लड़ सकते हैं. तो साढ़े 28 साल तक सीधे और व्यक्तिगत तौर पर लालू प्रसाद को किसी सदन में जगह नहीं मिलने वाली.
इस आधार पर कहा जा सकता है कि इन सज़ाओं के साथ ही लालू के संसदीय राजनीतिक जीवन का अंत हो गया. लालू विरोधियों के लिए ये किसी बड़ी राहत से कम नहीं. लेकिन तब क्या लालू की राजनीति और लालू की खड़ी की गई पार्टी आरजेडी का भी इसी के साथ अंत हो जाएगा?
आरजेडी यानी राष्ट्रीय जनता दल लालू प्रसाद की ही बनाई हुई पार्टी है. इसका गठन लालू ने तब किया जब चारा घोटाले में पहली दफा उन पर सीबीआई ने चार्जशीट फाइल की. लालू ने तुरंत अपनी पार्टी बनाई.
5 जुलाई 1997 को आरजेडी की बुनियाद पड़ी. लालू तबसे आज तक उसके राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं. 30 जुलाई को जेल जाने से पहले 25 जुलाई 1997 को उन्होंने अपनी जगह पत्नी राबड़ी देवी को विधायक दल का नेता चुनवाया और उन्हें मुख्यमंत्री बना दिया गया.
30 जुलाई 1997 को लालू प्रसाद ने कोर्ट के समक्ष आत्मसमर्पण किया और जेल भेज दिए गए. उनकी ये पार्टी तब से बनी हुई है. कई बार जेल आते-जाते रहे लालू, पार्टी उनकी चलती रही.
लालू एक 'विचारधारा' और पार्टी का अस्तित्व
लालू ने राजनीतिक दलीय संगठन व्यवस्था में 'सुप्रीमो कल्चर' को मज़बूत किया. जिस कारण भी वो विरोधियों के निशाने पर रहे. जबकि शायद ये कल्चर ही आरजेडी की छतरी भी रही.
लालू के पुत्र और पूर्व उप मुख्यमंत्री तेजस्वी यादव इधर लगातार इस बात पर जोर दे रहे हैं कि लालू जी एक व्यक्ति नहीं विचारधारा हैं.
...तो जो लोग उनको इस रूप में मानने वाले हैं वे उनकी पार्टी में रहते हैं, भले नेतृत्व लालू परिवार के लोग ही क्यों न करें. जगदानंद सिंह, रघुवंश प्रसाद सिंह, शिवानंद तिवारी और अब्दुल बारी सिद्दिकी जैसे अनुभवी वरिष्ठ नेता भी इसे मान कर चलते रहे हैं.
जब पहली बार लालू की जगह राबड़ी देवी ले रही थीं, तब भी वैसे लोग आरजेडी में थे और अब जब लालू की जगह तेजस्वी ने कमान संभाल ली है तब भी ऐसे लोग पार्टी के साथ निष्ठावान की तरह जमे हैं.
लालू के जेल और सज़ा के बाद आरजेडी में नई सेंधमारी की कोशिशों की अटकलें लग तो रही थी लेकिन पार्टी के बड़े नेताओं का अपने नये नेता तेजस्वी के इर्दगिर्द छत्रछाया की तरह खड़े रहना और हालिया उपचुनावों के परिणाम ने आरजेडी की यूएसपी उल्टे बढ़ा ही दी.
एनडीए के महादलित चेहरा पूर्व मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी का आरजेडी में शामिल होना, इस बात का सबूत है. बीजेपी सांसद और फ़िल्म अभिनेता शत्रुघ्न सिन्हा का लालू प्रसाद से जेल में जा कर मिलना और लालू से सहानुभूति जताना, अटकलों के उलट ये संकेत भी तो नहीं दे रहा कि आरजेडी के लिए सहानुभूति वोट की पोटली भी कहीं न कहीं तैयार हो रही है.
लालू की राजनैतिक दूरदर्शिता
एक राजनीतिक समाजशास्त्रीय व्याख्या लालू को लेकर ये भी होती रहती है कि लालू की जायज और नाजायज दोनों तरह की घेरेबंदी में आरजेडी का जनाधार और भी उग्र दिखने लगता है. लालू राजनीति के पंडित इस रुझान को जानते-पहचानते रहे हैं.
भले लालू को सीबीआई, चारा घोटाले में जेलबंदी और सख्त सज़ा देती जा रही हो लेकिन आरजेडी जेल से लालू की अपीलें निकाल कर इसे भुनाने में कोर कसर नहीं छोड़ रहा. 'लालू को जेल, जगन्नाथ मिसिर को बेल' जैसे रघुवंश प्रसाद सिंह और तेजस्वी यादव के बयान, आरजेडी के वोट बेस बढ़ाने का काम कर रहे हैं.
महागठबंधन टूटने के कुछ माह पहले से ही तब विपक्ष के नेता सुशील कुमार मोदी ये बोलने लगे थे कि अगले चुनाव तक लालू और उनकी पार्टी कहां रहेगी कौन जानता है. तब इस बात पर खूब हल्ला मचा था कि सुशील मोदी को सीबीआई का 'मूव' कैसे पता!
आरजेडी ने लालू के ख़िलाफ़ सीबीआई और मोदी सरकार के षड्यंत्र को तब मुद्दा बना कर बीजेपी पर वार किया था.
हालांकि ऐसी भी बात नहीं कि चारा घोटाले का केस खुलेगा, लालू को जेल जाना पड़ेगा, ये लालू प्रसाद को नहीं पता था. उन्हें खूब पता था. तभी तो लालू ने अपनी खड़ी की हुई पार्टी और अपनी लड़ाई को टिकाये रखने की रणनीति बनायी.
नीतीश-लालू-कांग्रेस के महागठबंधन सरकार के उप मुख्यमंत्री रहे तेजस्वी यादव को पार्टी अधिवेशन में बिहार का अगला मुख्यमंत्री घोषित कर दिया गया. नेता विहीन पार्टी टिकती नहीं, ये लालू को भी पता था.
लालू के जेल जाने के बाद तेजस्वी ने पिता की विरासत संभाली है. जब लालू प्रसाद 2013 के अक्टूबर में पहली बार चाइबासा के चारा केस में सज़ायाफ्ता हो जेल गए, तेजस्वी यादव ने पार्टी का मोर्चा संभाल लिया था. ज़िला-ज़िला दौरा और सभाएं करते रहे.
मीडिया को याद होगा कि तब लालू प्रसाद के चुनावी दौरे की तरह तेजस्वी का प्रोग्राम चार्ट प्रेस के लिए रिलीज होता. पुत्र होने के नाते कह लीजिये तो लालू प्रसाद का मार्गदर्शन और राजनीतिक गुरुमंत्र तो तेजस्वी को मिला ही लेकिन तेजस्वी की अपनी पहल और चुनौतियों से जूझने की उनके विरासती स्वभाव ने भी अल्पायु में ही उन्हें बिहार के एक वैकल्पिक नेता के बतौर तो गढ़ ही दिया.
कहा जा सकता है कि तब भी तेजस्वी का ज़मीन पर उतरना लालू की रणनीति का हिस्सा था और पार्टी लीडर खड़ा करने की तैयारी थी. जैसे अबकी बार जेल जाने से पहले लालू उन्हें पूरी कमान दे-दिलवा कर जेल गए.
कहते हैं कि राजनीति कई बार अवधारणा और छवि पर भी किसी नेता के लिए 'पोलिटिकल स्पेस' बनाती है. लालू के बरक्स नीतीश कुमार इसके एक मज़बूत उदाहरण हैं. बोलचाल, बात व्यवहार, भाषा शैली में लालू प्रसाद से अलग है तेजस्वी यादव. जैसे लालू के सामने नीतीश कुमार ने 'द जेंटलमैन पॉलिटिशियन' की छवि का मुहावरा गढ़ा और स्थापित हुए.
लगभग उसी तर्ज पर आरजेडी और लालू प्रसाद की पार्टी और विरासत में तेजस्वी 'पॉलिटिशियन द जेंटलमैन' के मुहावरे को स्थापित कर जाएं तो बड़ी बात नहीं.
लालू के जेल जाने के बाद हुए उप चुनावों के साथ-साथ राज्यसभा के चुनावों में भी तेजस्वी ने जो कुछ किया, उसे आरजेडी की सामाजिक छवि के फैलाव से जोड़ कर देखा जा रहा. पार्टी के राष्ट्रीय प्रवक्ता प्रो.मनोज झा को राज्यसभा भेजा जाना इसी की एक कड़ी है.
तेजस्वी जैसे आरजेडी के मूल जनाधार में कुछ जोड़ने की कवायद करते दिख रहे हैं. इसमें वे सफल होते हैं तो अगले चुनावों में कई क्षेत्रों में स्थानीय स्तर पर एनडीए के साथ शह-मात की स्थिति पैदा हो सकती है.
तेजस्वी यादव का 'बॉडी लैंग्वेज' ये नहीं बताता कि अपने पिता के जेल जाने से वे दुखी हैं बल्कि ये झलक दिखाता है कि अपने सामने उपस्थित राजनीतिक हालात से वे आर-पार निबटने की तैयारी कर रहे हैं. तेजस्वी की लाइन भी बीजेपी की तरह साफ और स्पष्ट है कि सीधी लड़ाई आरजेडी और बीजेपी में हो.
नीतीश कुमार को किनारे रखने की रणनीति पर तेजस्वी का हालिया दोटूक बयान भी आ गया कि आरजेडी के दरवाजे सभी के लिए खुले हैं. वे रामविलास पासवान तक के लिए भी दरवाजा खोलने की बात एक टीवी इंटरव्यू में बोल गये. लेकिन एक आदमी के लिए वे कोई दरवाजा दोबारा खोलने को तैयार नहीं और वो हैं उनके 'चच्चा'... चच्चा यानी नीतीश कुमार!