नज़रिया- आम आदमी पार्टी: कहां से चले, कहां आ गए
'आप' के गठन के पाँच साल पूरे हुए हैं, पर 'सत्ता' में तीन साल भी पूरे नहीं हुए हैं.
इसे आम आदमी पार्टी की उपलब्धि माना जाएगा कि देखते ही देखते देश के हर कोने में वैसा ही संगठन खड़ा करने की कामनाओं ने जन्म लेना शुरू कर दिया. न केवल देश में बल्कि पड़ोसी देश पाकिस्तान से भी खबरें आईं कि वहाँ की जनता बड़े गौर से आम आदमी की खबरों को पढ़ती है.
इस पार्टी के गठन के पाँच साल पूरे हुए है, पर 'सत्ता' में तीन साल भी पूरे नहीं हुए हैं. उसे पूरी तरह सफल या विफल होने के लिए पाँच साल की सत्ता चाहिए. दिल्ली विधानसभा दूसरे चुनाव में पार्टी की आसमान तोड़ जीत ने इसके वैचारिक अंतर्विरोधों को पूरी तरह उघड़ने का मौका दिया है. उन्हें उघड़कर सामने आने दें.
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पार्टी की पहली टूट
उसके शुरुआती नेताओं में से आधे आज उसके सबसे मुखर विरोधियों की कतार में खड़े हैं. दिल्ली के बाद इनका दूसरा सबसे अच्छा केंद्र पंजाब में था. वहाँ भी यही हाल है. पार्टी तय नहीं कर पाई कि क्या बातें कमरे के अंदर तय होनी चाहिए और क्या बाहर. इसके इतिहास में विचार-मंथन के दो बड़े मौके आए थे.
एक, लोकसभा चुनाव में पराजय के बाद और दूसरा 2015 के दिल्ली विधानसभा चुनाव में भारी विजय के बाद. पार्टी की पहली बड़ी टूट उस शानदार जीत के बाद ही हुई थी और उसका कारण था विचार-मंथन की प्रक्रिया में खामी. जब पारदर्शिता के नाम पर पार्टी बनी, उसकी ही कमी उजागर हुई.
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उत्साही युवाओं का समूह
'आप' को उसकी उपलब्धियों से वंचित करना भी ग़लत होगा. खासतौर से सार्वजनिक स्वास्थ्य और शिक्षा के क्षेत्र में उसके काम को तारीफ़ मिली है. लोग मानते हैं कि दिल्ली के सरकारी अस्पतालों का काम पहले से बेहतर हुआ है. मोहल्ला क्लीनिकों की अवधारणा बहुत अच्छी है.
दूसरी ओर यह भी सच है कि पार्टी ने नागरिकों के एक तबके को मुफ्त पानी और मुफ्त बिजली का संदेश देकर भरमाया है. ज़रूरत ऐसी सरकारों की है जो बेहतर नागरिकता के सिद्धांतों को विकसित करें और अपनी ज़िम्मेदारी निभाने पर ज़ोर दें. आम आदमी पार्टी उत्साही युवाओं का समूह थी.
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'हाईकमान' से चलती पार्टी
इसके जन्म के बाद युवा उद्यमियों, छात्रों तथा सिविल सोसायटी ने उसका आगे बढ़कर स्वागत किया था. पहली बार देश के मध्यवर्ग की दिलचस्पी राजनीति में बढ़ी थी. 'आप' ने जनता को जोड़ने के कई नए प्रयोग किए. जब पहले दौर में इसकी सरकार बनी तब सरकार बनाने का फ़ैसला पार्टी ने जनसभाओं के मार्फत किया था.
उसने प्रत्याशियों के चयन में वोटर को भागीदार बनाया. दिल्ली सरकार ने एक डायलॉग कमीशन बनाया है. पता नहीं इस कमीशन की उपलब्धि क्या है, पर इसकी वेबसाइट पर सन्नाटा पसरा रहता है. 'आप' के आगमन पर वैसा ही लगा जैसा सन् 1947 के बाद कांग्रेसी सरकार बनने पर लगा था. आज यह पार्टी भी 'हाईकमान' से चलती है.
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वैकल्पिक राजनीति
इसके केंद्र में कुछ लोगों की टीम है जो फ़ैसले करती है. यही टीम इसे एक बनाए रखती है. वैसे ही जैसे नेहरू-गांधी परिवार कांग्रेस को और संघ परिवार बीजेपी को एक बनाकर रखता है. पर यही तो उनकी कमज़ोरी है. वैकल्पिक राजनीति की बातें तो हुईं, पर उस राजनीति के विषय खोजे नहीं गए.
उन्हीं राष्ट्रीय प्रश्नों पर वैसी ही बयानबाज़ी जैसा मुख्यधारा की राजनीति का शगल है. उसकी सबसे बड़ी कमज़ोरी है आंतरिक लोकतंत्र की अनुपस्थिति. 'आप' भी उसी रास्ते पर गई जिसपर दूसरे दल जाते हैं. बल्कि वह परम्परागत पार्टियों से ज़्यादा प्रचार-प्रिय है और लोकलुभावन नारे लगाती है.
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दिल्ली और केंद्र
उसने क्षेत्रीय-राष्ट्रीय क्षत्रपों की तरह अरविंद केजरीवाल को 'ब्रांड' बनाया और उनकी तस्वीरों से दिल्ली शहर को पाट दिया. उसने याद नहीं रखा कि उसका विस्तार जनता के साथ मौखिक संवाद से हुआ है, बैनरों और होर्डिंगों से नहीं. अरविंद केजरीवाल की अच्छाई है कि वे अपनी ग़लती जल्दी मान लेते हैं.
एक दौर में उन्होंने नरेंद्र मोदी से मुकाबला करना शुरू कर दिया और हैरत अंगेज़ बयान देने लगे. पार्टी का कोर ग्रुप नरेंद्र मोदी की डिग्री की तलाश में दिल्ली विश्वविद्यालय की छापेमारी करने लगा. दिल्ली और केंद्र सरकार के बीच ऐसा युद्ध शुरू हो गया जो दो देशों के बीच भी नहीं होता. फिर अचानक बयान बंद कर दिए गए.
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उम्मीदों के सहारे
पिछले कुछ महीनों से पार्टी की बयानी-तुर्शी में कमी आई है. यह कहना ग़लत होगा कि इस विचार का मृत्युलेख लिख दिया गया है. पर इसे जीवित मानना भी ग़लत होगा. इसका भविष्य उन ताकतों पर निर्भर करेगा जो इसकी रचना का कारण बनी थीं. यह पार्टी जनता की उम्मीदों के सहारे आई थी. महत्वपूर्ण है उन उम्मीदों को कायम रखना.
पार्टी के पाँच साल हुए हैं, उसकी सरकार के भी पाँच साल पूरे होने दीजिए. 'आप' एक छोटा एजेंडा लेकर मैदान में उतरी थी. व्यापक कार्यक्रम अनुभव की ज़मीन पर विकसित होगा, बशर्ते वह खुद कायम रहे. उसे सबसे पहले नगरपालिका के चुनाव लड़ने चाहिए थे.
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नागरिक कमेटियां
वह जिस प्रत्यक्ष लोकतंत्र की परिकल्पना लेकर आई थी, वह छोटी यूनिटों में ही सम्भव है. गली-मोहल्लों के स्तर पर वह नागरिकों की जिन कमेटियों की कल्पना लेकर आई, वह अच्छी थी. इस मामले में मुख्यधारा की पार्टियाँ फेल हुई हैं. पर जनता के साथ सीधे संवाद के आधार पर फैसले करने वाली प्रणाली को विकसित करना मुश्किल काम है.
यह काम सबसे निचले स्तर पर किया जाए तो उसके दूरगामी परिणाम होंगे. पर उसके लिए पार्टी को कुछ समय के लिए अपनी राष्ट्रीय महत्वाकांक्षाओं को पीछे रखना होगा. सन 2014 के चुनाव में केजरीवाल को वाराणसी से चुनाव लड़ने की क्या जरूरत थी?
(ये लेखक के निजी विचार हैं.)