तमिलनाडु और केरल में क्यों नहीं खिल पाता कमल?
चेन्नई। भाजपा आखिर क्यों अभी तक तमिलनाडु और केरल के राजनीतिक दुर्ग को भेद नहीं पायी है ? नरेन्द्र मोदी के दौर में 303 सीटें जीतने वाली भाजपा के विजय रथ को इन दो राज्यों ने आखिर कैसे रोके रखा है? 2016 में भाजपा ने किसी तरह केरल में तो अपना खाता तो खोल लिया था लेकिन तमिलनाडु अभी भी उसके लिए अबूझ पहली बना हुआ है। 2021 के विधानसभा चुनाव में इस तस्वीर को बदलने के लिए भाजपा ने पूरा जोर लगा रखा है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी, गृहमंत्री अमित शाह और पार्टी अध्यक्ष जेपी नड्डा लगातार केरल और तमिलनाडु का लगातार दौरा कर रहे हैं। भाजपा अब यह दिखाना चाहती है कि वह उत्तर और पूर्वी भारत की तरह दक्षिण में भी विस्तार के लिए कटिबद्ध है। लेकिन सवाल ये है कि लाख कोशिशों के बाद भी भाजपा इन दोनों राज्यों में क्यों नहीं पांव जमा पा रही?
तमिलनाडु में भाजपा का क्यों नहीं खुल रहा खाता ?
2016 के विधानसभा चुनाव में भाजपा ने क्षेत्रीय दल 'आइजेके' के साथ मिल कर सभी 234 सीटों पर चुनाव लड़ा था। भाजपा को 2.86 फीसदी वोट मिले थे और उसे एक भी सीट पर कामयाबी नहीं मिली थी। तमिलनाडु में भाजपा की इतनी खराब हालत की वजह क्या है ? दरअसल तमिलनाडु की स्थानीय राजनीति की बुनावट कुछ ऐसी है कि इसमें किसी राष्ट्रीय दल के लिए कोई गुंजाइश नहीं बनती। यहां की राजनीति में भाषा (तमिल) और संस्कृति (द्रविड़) की जड़े इतनी गहरी हैं कि उसे धर्म के आधार पर बांटना मुश्किल है। तमिल को सबसे प्राचीन भाषा माना जाता है। यह आत्मगौरव तमिल लोगों को एकता के सूत्र में बांधे रखता है। यहां के लोग भाजपा को हिंदी पट्टी की पार्टी मानते हैं। जब कि हिंदी विरोध तमिलनाडु की राजनीति का मूल आधार है। इसलिए तमिलनाडु में हिंदुत्व और हिंदी, भाजपा के लिए रुकावट बन जाती है। तभी तो नरेन्द्र मोदी तमिलनाडु में तमिल भाषा नहीं जानने के लिए अफसोस जाहिर करते हैं। यह नरेन्द्र मोदी की स्थानीय लोगों से भावनात्मक जुड़ाव की कोशिश थी।
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तमिलनाडु की राजनीति
द्रविड़ सभ्यता भारत की बहुत पुरानी सभ्यता है। तमिलनाडु में द्रविड़ संस्ककृति को राजनीति से जोड़ने का श्रेय ईवी रामास्वामी पेरियार को जाता है। वे ब्राह्मणवाद के खिलाफ थे। धार्मिक कर्मकांडों का भी विरोध किया। 1944 में उन्होंने द्रविड़ कड़गम (द्रविड़ों का देश) नाम से एक सामाजिक संगठन बनाया। 1949 में पेरियार के करीबी अन्नादुरई उनसे अलग हो गये। अन्नादुरई ने द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम के नाम से अगल संगठन बनाया। 1969 तक तमिलनाडु को मद्रास स्टेट कहा जाता था। 1967 में मद्रास राज्य विधानसभा के चुनाव हुए तो द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम (द्रमुक) ने 179 में से 137 सीटें जीत लीं। अन्नादुरई मद्रास के मुख्यमंत्री बने। कांग्रेस को केवल 51 सीटें मिलीं। इसके पहले कांग्रेस सत्ता में थी। तमिलनाडु में राजगोपालाचारी और के कामराज जैसे कांग्रेस के पास दिग्गज नेता हुए। लेकिन 1967 में द्रविड़ भावना की ऐसी लहर आयी कि कांग्रेस उसमें विलीन हो गयी। तमिलनाडु में द्रमुक का डंका बजने लगा। 14 जनवरी 1969 को मद्रास राज्य का नाम तमिलनाडु कर दिया गया। तमिलनाडु के नामकरण के 20 दिन बाद ही अन्नादुरई का निधन का हो गया। उस समय करुणानिधि अन्नादुरई के कैबिनेट में मंत्री थे। फिर करुणानिधि तमिलनाडु के मुख्यमंत्री बने।
द्रमुक- अन्नाद्रमुक की दो ध्रुवीय राजनीति
करुणानिधि तमिल फिल्मों के मशहूर पटकथा लेखक थे। एमजी रामचंद्रन उस समय तमिल फिल्मों के सुपर स्टार थे। वे भी द्रमुक से जुड़े थे। द्रमुक ने उन्हें 1962 में एमएलसी बनाया था। 1967 में एमजीआर द्रमुक के विधायक चुने गये थे। इसके बाद 1976 तक तमिलनाडु में या तो करुणानिधि सीएम रहे या फिर राष्ट्रपति शासन लागू रहा। 1972 में करुणानिधि जब अपने बड़े बेटे एम के मुथ्थू को राजनीति में बढ़ावा देने लगे तो द्रमुक की राजनीति बदलने लगी। तब एमजी रामचंद्रन ने आरोप लगाया था कि अन्नादुरई के बाद द्रमुक में भ्रष्टाचार ने जड़ जमा लिया है। इससे खफा हो कर करुणानिधि ने एमजी रामचंद्रन को पार्टी से निकाल दिया। तब एमजीआर ने अन्ना द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम (अन्ना द्रमुक) के नाम से नय़ी पार्टी बनायी। बाद में इसका नाम ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम कर दिया गया। 1977 में एमजी रामचंद्रन सत्ता में आये। इसके बाद से तमिलनाडु में कभी द्रमुक तो कभी अन्नाद्रमुक के पास सत्ता रही। पिछले 53 साल से तमिलनाडु में यही हो रहा है। दक्षिण में मजबूत मानी जाने वाली कांग्रेस भी आज द्रमुक की बैसाखी पर ही राजनीति करती है। 2016 के चुनाव में कांग्रेस ने डीएमके से गठबंधन कर 40 सीटों पर चुनाव लड़ था। लेकिन उसे केवल 8 सीटों पर ही जीत मिली थी। इससे समझा जा सकता है कि तमिलनाडु में बिना द्रविड़ पहचान वाली पार्टियों की कितनी खराब स्थिति है। ऐसे भाजपा सिर्फ कोशिश ही कर सकती है। उसने अन्नाद्रमुक के साथ मिल कर चुनाव लड़ने की बात कही है।
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केरल में भाजपा
दक्षिण के राज्यों में सिर्फ तमिलनाडु ही एक मात्र ऐस राज्य है जहं भाजपा का वोट प्रतिशत गिरा है। केरल और तेलंगाना में भाजपा के वोट शेयर बढ़े हैं। कर्नाटक में तो उसकी सरकार ही है। भाजपा ने 2016 में केरल की 98 सीटों पर चुनाव लड़ा था। वाजपेयी सरकार में मंत्री रहे ओ राजगोपाल ने नेमोम सीट से जीत हासिल की थी। राजगोपाल के आलावा भाजपा का कोई दूसरा उम्मीदवार नहीं जीत पाया था। राजगोपाल केरल भाजपा के अध्यक्ष रह चुके हैं। 1999 में वे राज्यसभा के सदस्य थे। भाजपा ने केरल में अपने विस्तार के लिए ही राजगोपाल को वाजपेयी मंत्रिपरिषद में शामिल किया था। लेकिन इस काम में वह सफल नहीं हो सकी। 2019 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को केरल में 12.93 फीसदी वोट मिले थे। उसके वोट प्रतिशत में करीब दो फीसदी क इजाफा तो हुआ लेकिन चुनावी सफलता अभी भी दूर की कौड़ी है। अब भाजपा मेट्रोमैन ई श्रीधरन के जरिये केरल में नयी पारी खेलना चाहती है। केरल में आरएसएस 1942 से सक्रिय है। लेकिन उसका फायदा कभी भाजपा के नहीं मिल सक। केरल में अगर 55 फीसदी आबादी हिन्दुओं की है तो 45 फीसदी आबादी ईसाई और मुस्लिम समुदाय की है। केरल भारत का सबसे ज्यादा पढ़ालिखा राज्य है। यहां के लोग धर्म की बजाय मुद्दों के आधार पर वोट करते रहे हैं। इसकी वजह से केरल में हिंदू कार्ड सफल नहीं हो पाया। यहां की राजनीति भी दोध्रुवीय है। सीपीआइ के नेतृत्व वाले एलडीएफ और कांग्रेस के नेतृत्व वाले यूडीएफ के बीच सत्ता के लिए संघर्ष चलते रहता है। कभी सत्ता इधर तो कभी उधर। ऐसे में भाजपा के लिए जगह बनाना मुश्किल रहा है। लेकिन 2021 में जिस तरह से भाजपा ने केरल में अपनी ताकत झोंकी है उससे राजनीतिक समीकरण बदल सकते हैं।