मोदी की छवि के तिलिस्म पर राहुल गांधी का पहला वार, देखते ही रह गए अमित शाह
नई दिल्ली। मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में बीजेपी की हार के बाद ब्रैंड मोदी सवालों के घेरे में हैं। जब ब्रैंड मोदी पर सवाल आए तो सीधे-सीधे बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की ओर ध्यान जाता है, क्योंकि इसे चमकाने की जिम्मेदारी उन्हीं की है। पहले 2014 लोकसभा चुनाव और उसके बाद एक के बाद एक विधानसभा चुनावों में जीत के बाद अमित शाह को देश के सबसे बड़े चुनावी चाणक्य का दर्जा हासिल हुआ। भारतीय राजनीति में अमित शाह से पहले शायद ही किसी पार्टी के अध्यक्ष को एक रणनीतिकार के तौर पर 'चाणक्य' की उपाधि दी गई हो।
भारतीय राजनीति के पहले चाणक्य अमित शाह की रणनीति की काट आखिरकार विपक्ष को मिल ही गई
बरसों तक देश पर राज करने वाली कांग्रेस रणनीतिकारों से ज्यादा अपने सबसे बड़े चेहरे के करिश्मे पर निर्भर रही। सबसे पहले जवाहरलाल नेहरू, उनके बाद इंदिरा गांधी और राजीव गांधी। इसी प्रकार से भाजपा जब राष्ट्रीय पटल पर आई तो माइक्रो पोल मैंनेजमेंट से ज्यादा उसका भी फोकस करिश्माई नेतृत्व पर ही रहा। अटल बिहारी वाजपेयी और लाल कृष्ण आडवाणी ने हिंदुत्व को जरूर रणनीतिक तौर पर इस्तेमाल किया पर इनके जमाने में भी बीजेपी चेहरे पर ही केंद्रित थी, न कि चुनावी मैनेजमेंट पर। 2014 में नरेंद्र मोदी की बंपर जीत में दो बातें निकलकर सामने आईं एक पार्टी का चेहरा नरेंद्र मोदी और दूसरे रणनीतिकार या चाणक्य अमित शाह। मोदी को पार्टी ने अटल बिहारी वाजपेयी, इंदिरा गांधी, नेहरू की तरह अपने फेस के तौर पर इस्तेमाल किया, लेकिन माइक्रो पोल मैनेजमेंट के टूल्स से भी भारतीय राजनीति को अवगत कराया। अमित शाह ही हैं, जिन्होंने सोशल मीडिया को सबसे बड़ा हथियार बनाया। पन्ना प्रमुख, बूथ लेवल पर चौकस कार्यकर्ता, ऑनलाइन सदस्यता अभियान और न जाने कितनी ही चुनावी ट्रिक्स से भाजपा को विजय रथ पर सवार कर दिया। अमित की चुनावी ट्रिक्स और मोदी के चेहरे ने मिलकर जो चुनावी परिणाम दिए, उनकी तुलना इंदिरा गांधी और जवाहरलाल नेहरू के जमाने में कांग्रेस को मिली प्रचंड विजय के साथ की जाने लगीं। फॉर्मूला जमकर चल रहा था, सो उसका इस्तेमाल भी जमकर ही किया गया और देखते ही देखते ब्रैंड मोदी इतना बड़ा हो गया कि भारत से निकलकर वैश्विक मंच तक धमक दिखाने लगा, लेकिन हर किसी की कोई न कोई कमजोरी होती है। एक न एक दिन वह सामने ही आ ही जाती है, मोदी और शाह के साथ अब कुछ ऐसा ही हो रहा है।
जब सत्ता को चैलेंज करने गए, तब-तब सफल रहे अमित शह
नरेंद्र मोदी ने 2014 लोकसभा चुनाव में भाजपा को ऐसी जीत दिलाई जो पहले उसे कभी नहीं मिली। इसके बाद तो 'कांग्रेस मुक्त भारत' अभियान ऐसा जोर पकड़ा कि विपक्ष का नामो-निशान मिटना शुरू हो गया, लेकिन गौर किया जाए तो नरेंद्र मोदी और अमित शाह को उन्हीं राज्यों में जीत मिली, जहां कांग्रेस की सत्ता थी और ये दोनों चैलेंजर के तौर पर चुनावी मैदान में उतरे। मतलब, 2014 लोकसभा चुनाव, सत्ता में यूपीए था, हरियाणा में कांग्रेस, महाराष्ट्र में कांग्रेस, उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी आदि। केवल गुजरात एक ऐसा राज्य रहा, जहां पर अमित शाह और नरेंद्र मोदी ने अपनी सत्ता को डिफेंड किया और वे सफल रहे, लेकिन गुजरात में वे बाल-बाल बच गए। अब बारी थी- मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान की। यहां नरेंद्र मोदी और अमित शाह को सत्ता डिफेंड करनी थी, लेकिन एक भी राज्य बचा नहीं है। यहां न मोदी का चेहरा काम आया और न ही अमित शाह का माइक्रो पोल मैनेजमेंट। मतलब अमित शाह की अध्यक्षता में भाजपा सत्ता को डिफेंड नहीं कर पा रही है।
अमित शाह के ही हथियार से भाजपा को मात दे रहा विपक्ष
ऐसे में सवाल यह उठ रहा है कि जब 2019 में मोदी सरकार को डिफेंड करने की बारी आएगी तो क्या होगा? आखिर बीजेपी के चाणक्य के साथ ये क्या हो रहा है। पहले एक के बाद एक उपचुनावों में हार, दिल्ली, बिहार में हार, गुजरात में बाल-बाल बचे और अब हिंदुत्व के सबसे बड़ा गढ़ माने जाने वाले तीन राज्य- मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में भाजपा की हार। संकेत साफ है कांग्रेस ने अमित शाह की कमजोरी पकड़ ली है, विपक्षी अब उन्हीं के हथियार से उन्हीं को मात दे रहे हैं। अमित शाह के पांच मुख्य चुनावी हथियार हैं: नंबर एक- नरेंद्र मोदी का चेहरा, नंबर दो- सोशल मीडिया, नंबर तीन- हिंदुत्व, नंबर चार- माइक्रो बूथ पोल मैनेजमेंट और नंबर पांच- आक्रामक चुनाव प्रचार। अब अमित शाह के इन पांचों हथियारों की कुंद होती धार और विपक्ष यानी कांग्रेस की ओर से की जा रही इनकी काट के बारे में समझते हैं।
मोदी की छवि के तिलिस्म पर राहुल गांधी की पहली चोट
पिछले कुछ महीनों से राहुल गांधी ने बड़े ही आक्रामक तरीके से पीएम नरेंद्र मोदी पर निजी हमले करना शुरू किया। बार-बार नरेंद्र मोदी के बारे में नारा लगाया- 'पीएम मोदी चोर हैं'। रफाल का मुद्दा लगातार उठाया। मोदी से गले मिलकर बताया कि वे अहंकारी हैं और राहुल गांधी उदारवादी। यह कहना अभी मुश्किल है कि राहुल गांधी ने मोदी की छवि के तिलिस्म को तोड़ दिया है, लेकिन पहली बड़ी चोट कर दी है, इतना स्पष्ट तौर पर दिख रहा है। यह कहना गलत होगा कि तीन राज्यों की जीत-हार राहुल गांधी और मोदी फैक्टर पर टिकी थी, लेकिन इतना तो है कि इनकी अपील तो रही। राज्यों के चुनावों में भले ही प्रभाव सीमित रहा, लेकिन प्रभाव तो था। अगर मोदी फैक्टर के चलते राजस्थान, एमपी में 10 से 20 सीटें भी प्रभावित होतीं तो कांग्रेस हार गई होती, मतलब मोदी अब उतना बड़ा चेहरा नहीं रहे।
अमित शाह का दूसरा हथियार, सोशल मीडिया
अध्यक्ष बनने के बाद अमित शाह ने लगातार सोशल मीडिया पर भाजपा को ताकतवर बनाया। एक समय भाजपा सोशल मीडिया पर सबसे बड़ी ताकत रही, लेकिन पिछले कुछ महीनों में कांग्रेस सोशल मीडिया मार्केटिंग पर काफी फोकस किया। खुद कमलनाथ ने एमपी में सोशल मीडिया कैंपेन पर पैनी नजर बनाकर रखी। तीनों राज्यों की बात करें तो कांग्रेस ने बीजेपी को सोशल मीडिया कैंपेन में करीब-करीब पछाड़ ही दिया। कांग्रेस मुद्दों को हवा देने में कामयाब रही। मसलन- छत्तीसगढ़ में कांग्रेस ने चुनाव से काफी पहले रमन सिंह का उल्टा चश्मा कैंपेन चलाया।
कांग्रेस ने अमित शाह के माइक्रो पोल मैनेजमेंट की रणनीति को अपना लिया
जैसा कि हमने ऊपर जिक्र किया कि कांग्रेस पार्टी कभी भी माइक्रो पोल मैनेजमेंट में विश्वास नहीं करती। वह हमेशा से एक बड़े चेहरे के साथ लड़ी और बरसों तक देश की इकलौती सबसे बड़ी सत्ताधारी पार्टी रही। दूसरी ओर भाजपा ने शुरू से चुनाव प्रक्रिया के अनुसार ही पार्टी के ढांचे को तैयार किया। ऐसा इसलिए, क्योंकि एक जमाने में कांग्रेस के पास सबसे बड़े चेहरे थे और भाजपा के पास कार्यकर्ता। दोनों दलों के गठन की प्रक्रिया अलग रही है, इसलिए चुनाव लड़ने और सांगठनिक ढांचे में बड़ा अंतर रहा, लेकिन अमित शाह की चुनौती से पार पाने के लिए कांग्रेस ने भी इस बार बूथ स्तर पर कड़ी मेहनत की। यही कारण रहा कि राजस्थान में भाजपा से महज आधा प्रतिशत वोट ज्यादा पाकर भी कांग्रेस ने उससे 26 सीटें अधिक जीत लीं और एमपी में 0.1 प्रतिशत वोट कम पाकर भी उसने बीजेपी को पछाड़ दिया।
अब कड़वी हो रही हिंदुत्व की चाशनी, बंटने लगा हिंदू तो भुगत रही भाजपा
नरेंद्र मोदी का 2014 लोकसभा चुनाव का प्रचार देखने से स्पष्ट हो जाता है कि तब भाजपा का सिंगल एजेंडा विकास था, लेकिन धीरे-धीरे विकास पर हिंदुत्व हावी होने लगा। हिंदुत्व के नाम पर देशभर में ऐसी घटनाएं चर्चा का विषय बन गईं, जिनसे हिंदुत्व की बदनामी ही हुई। गोकशी के नाम पर हत्याओं के मामले रोके नहीं रुके। अखलाक की हत्या, अलवर लिंचिग न जाने कितने मामले सामने आए। हिंदुत्व के नाम पर हो रही हिंसा के बीच राम मंदिर का मुद्दा भी उठा, लेकिन भाजपा इस मुद्दे पर बैकफुट पर दिखी। दलितों के आंदोलन हुए, ब्राह्मण आरक्षण, जाट आरक्षण, पटेल आरक्षण मराठा आरक्षण। मतलब भाजपा हिंदुओं को एकजुट रखने में कामयाब नहीं रही। भाजपा की जीत का सबसे बड़ा मंत्र यही है- हिंदू एकजुट रहें। ऐसा नहीं हो रहा है, हिंदू बंट रहा है, इसलिए भाजपा हिंदू हार्टलैंड- मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में हार गई।एमपी में हिंदू के बंटने से भाजपा हार गई है। आंकड़े इसकी तस्दीक करते हैं। यहां भाजपा को कुल 1 करोड़ 56 लाख 42 हजार 980 वोट मिले, जबकि कांग्रेस को करीब 45 हजार वोट मिले, लेकिन सपॉक्स के 1 लाख 56 हजार 486 वोट भाजपा के लिए घातक साबित हो गए। इन्हीं वोटों की वजह से वह बहुमत का आंकड़ा नहीं छू सकी।
टिकट वितरण पर नहीं दिखा अमित शाह का नियंत्रण, बेलगाम हो रही पार्टी
अमित शाह ने जब-जब राज्यों में चुनाव लड़े, तब-तब नरेंद्र मोदी के चेहरे का इस्तेमाल जरूर किया। कहीं पर कम तो कहं पर ज्यादा, लेकिन नरेंद्र मोदी हर जगह गए। जहां भाजपा की सत्ता नहीं थी, वहां ब्रैंड मोदी काम कर गया, लेकिन भाजपा शासित राज्यों में ब्रैंड मोदी बेअसर रहा। इसके पीछे कई कारण हैं- पहला स्थानीय क्षत्रप। मसलन- राजस्थान में लोगों ने पहले ही नारा दे दिया था, 'मोदी से बैर नहीं, वसुंधरा तेरी खैर नहीं'। इसी प्रकार से मामा शिवराज सिंह चौहान का टिकट वितरण निरकुंश था। अमित शाह उस पर कोई नियंत्रण नहीं रख पाए। दूसरी ओर राहुल गांधी ने एक-एक टिकट सर्वेक्षण रिपोर्ट के आधार, कई-कई कमेटियों की मंजूरी के बाद जारी करने की व्यवस्था बनाई। साथ अमित शाह नए मुद्दे खड़े करने में विफल रहे हैं। आडवाणी की रथ यात्रा जैसे कार्यक्रम उनके कैंपेन से नदारद हैं। इसके उलट वे चुनाव प्रचार में हर राज्य में बीजेपी के सभी बड़े नेताओं को उतार रहे हैं, लेकिन उनकी अपील का असर कम ही दिख रहा है। योगी आदित्यनाथ जो गोरखपुर में भाजपा को नहीं जिता सके, उन्हें कर्नाटक से लेकर गुजरात और मध्य प्रदेश से लेकर राज्स्थान तक उतार देना किसी ठोस रणनीति का हिस्सा तो नजर नहीं आता है। इन सबसे अलग अमित शाह पार्टी पर वैसा नियंत्रण नहीं रख पा रहे हैं, जिस प्रकार राजनाथ सिंह का हुआ करता था। बेहद कट्टर बयान पार्टी को विकास के हाई-वे से उठाकर तालिबानी हिंदुत्व के ट्रैक पर लेकर जा रहे हैं, जिससे देश का उदारवादी तबका पार्टी से दूर जा रहा है।