#Results2018: बंपर जीत के बाद अब राहुल गांधी के सामने आई ये कठिन चुनौती
नई दिल्ली। चुनावों की एक शुरुआती दौर में छत्तीसगढ़ की एक आमसभा में कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा, "सरकार उनकी होगी जिन्होंने पार्टी के लिए लाठी डंडे खाए, पैराशूट वालों की नहीं!" लाठी-डंडे खाने वाले कौन हैं और कौन पैराशूट वाले हैं ये फैसला करने की चुनौती अब राहुल गांधी के सामने है। पांच राज्यों के चुनावों के जो परिणाम आए हैं उसमें से छत्तीसगढ़ में भूपेश बघेल के नेतृत्व में कांग्रेस ने ऐतिहासिक सफलता हासिल की है, जबकि मध्यप्रदेश और राजस्थान में भी पार्टी ने सत्ता में वापसी की है। लेकिन बड़ा सवाल यह है कि इन राज्यों की कमान राहुल गांधी किसे सौंपेंगे? कांग्रेस की राजनीति के प्रेक्षक मानते हैं कि पार्टी के अध्यक्ष की ज़िम्मेदारी संभालने के बाद राहुल गांधी के सामने ना केवल ये सबसे बड़ी चुनौती है, बल्कि इस फैसले से ये भी तय होगा कि पार्टी के भीतर आज राहुल गांधी कितनी पकड़ बना पाए हैं। प्रेक्षक मानते हैं कि राहुल के सामने इस बात को साबित करने का अवसर भी होगा कि वे पार्टी क्षत्रपों की घेराबंदी से अलग स्वतंत्र फैसले कर रहे हैं।
दरअसल जानकार बताते हैं कि एग्जिट पोल्स के रुझानों के साथ ही कांग्रेस के भीतर उम्मीदों के आधार पर मुख्यमंत्री के गुना-भाग शुरू हो चुके थे। तीनों ही राज्यों में एक तरफ क्षत्रपों की पसंद या स्थानीय समीकरण हैं तो दूसरी तरफ राहुल की पसंद यानी कांग्रेस की सांगठनिक ज़रूरतों के हिसाब पार्टी को धार देने वाले नेता हैं। यह माना ही जाता है कि राहुल गांधी जो भी फैसला करेंगे वह सिर्फ किसी राज्य को दृष्टिगत रख कर नहीं होगा बल्कि इसका लक्ष्य साफ़ तौर पर 2019 का लोकसभा चुनाव भी होगा।
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भूपेश बघेल या टीएस सिंहदेव?
‘टीम राहुल' की जब बात होगी तो छत्तीसगढ़ भी सामने होगा। कांग्रेस के सूत्रों का मानना है कि छत्तीसगढ़ में राहुल गांधी प्रदेश अध्यक्ष भूपेश बघेल के तेवर और लड़ाई के अंदाज़ से प्रभावित रहे हैं। यही वजह है कि उन्होंने भूपेश बघेल के खिलाफ स्थानीय नेताओं की गुटबंदी को कभी तरजीह नहीं दी। भूपेश लाठी-डंडों वाले पैरामीटर पर इस लिहाज से राहुल गांधी की पसंद हो सकते हैं कि उन्होंने सरकार विरोधी आंदोलनों को न केवल खड़ा किया बल्कि सामने खड़े होकर नेतृत्व भी किया। ओबीसी वर्ग से आने वाले भूपेश बघेल ने ही सीधे मुख्यमंत्री डॉ. रमन सिंह तथा उनके पुत्र अभिषेक सिंह के खिलाफ भ्रष्टाचार के मामले उठाए और इस वजह से मामले-मुकदमे झेले और यहां तक जेल भी गए। खूब पदयात्राएं कीं और सरकार को हमेशा घेरकर रखा। प्रदेश के वे अकेले नेता हैं जो बीजेपी के खिलाफ खुली लड़ाई लड़ते दिखे।
दूसरे दावेदार हैं नेता प्रतिपक्ष टीएस सिंहदेव
यहां दूसरे दावेदार नेता प्रतिपक्ष टीएस सिंहदेव हैं। टीएस सिंहदेव राजपरिवार से आते हैं। उनकी बहन आशा कुमारी हिमाचल की विधायक हैं और राहुल गांधी की टीम की सदस्य भी। टीएस सिंहदेव दिल्ली के अपने उच्च सम्पर्कों और राजपरिवार का होने के कारण मजबूत दावेदार के रूप में देखे जा रहे हैं। हालांकि रमन सरकार के खिलाफ लड़ाई की बात आती है तो वे कमज़ोर पड़ते हैं क्योंकि उनकी छवि ‘रमन सिंह के मित्र' की अधिक रही है। यहां तक कि वे विधानसभा में भी आक्रामक नहीं दिख सके। लेकिन राहुल को यह तय करना होगा कि यदि किसान असंतोष के खिलाफ कांग्रेस की सरकार बन रही हो तब वो किसी राजा को मुख्यमंत्री बनाने का जोखिम उठाएंगे या फि किसान पुत्र को मौक़ा देंगे? जब बात चल रही हो कि इस चुनाव में ओबीसी वोट का कांग्रेस की ओर आना जीत की वजह बनेगी तब वे ठाकुर को चुनेंगे या फिर किसी ओबीसी नेता को?
चरणदास महंत का भी नाम चर्चा में
वैसे ओबीसी नेतृत्व की बात आएगी तो एक नाम चरणदास महंत का भी आएगा। प्रेक्षक कहते हैं कि पूर्व केंद्रीय मंत्री चरणदास महंत को पिछले चुनाव में अध्यक्ष के रूप में एक बढ़िया मौक़ा मिला था जिसे उन्होंने ढीले ढाले नेतृत्व के चलते गवां दिया और फिर वे पिछले पांच साल संगठन से दूर दूर ही रहे। हालांकि वे पैराशूट नहीं हैं लेकिन राहुल गांधी की पसंद बनेंगे इसमें शक है।
ताम्रध्वज साहू भी रेस में
एक ओबीसी दावेदार के रूप में छत्तीसगढ़ के अकेले लोकसभा सांसद ताम्रध्वज साहू का भी उभरा है। उन्होंने न तो छत्तीसगढ़ के संगठन में किसी स्तर पर कोई भूमिका निभाई है और न राज्य सरकार के ख़िलाफ़ आंदोलनों में हिस्सेदारी की है। लेकिन पिछले एक वर्ष में पिछड़ा वर्ग विभाग के राष्ट्रीय अध्यक्ष और फिर कार्यसमिति का सदस्य बनाए जाने के बाद उनका कद एकाएक बढ़ गया है। जब आलाकमान ने उन्हें विधानसभा चुनाव लड़ाने का फ़ैसला किया तो एकाएक यह चर्चा शुरु हो गई कि क्या वे मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं? अंतिम फ़ैसला तो राहुल गांधी ही लेंगे लेकिन उनका चयन अप्रत्याशित ही होगा। उनकी शिक्षा भी उनकी दावेदारी के आड़े आ सकती है क्योंकि वे सिर्फ़ स्कूली शिक्षा ही पूरी कर सके हैं।
सचिन या गहलोत?
राजस्थान में राहुल गांधी की पसंद कौन होगा? एक तरफ प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष सचिन पायलट हैं जिन्होंने पिछले चुनाव में हार के बाद प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष का पद संभाला। उन्होंने वसुंधरा सरकार के खिलाफ कांग्रेस को संगठित ही नहीं रखा बल्कि सत्ता विरोधी लड़ाई के अगुआ बने। लेकिन इस बीच पूर्व मुख्यमंत्री अशोक गहलोत का राजनीतिक कद भी बहुत बढ़ा है। वे राहुल गांधी के अध्यक्ष बनने के बाद प्रभारी महासचिव बनाए गए हैं। अशोक गहलोत ने गुजरात के चुनाव में अपनी क्षमताओं का परिचय दिया था और इस समय दिल्ली में भी राहुल के विश्वस्त सिपहसालार माने जाते हैं।
किसे चुनेंगे राहुल गांधी?
राजस्थान में राहुल को तय करना होगा कि वे सचिन पायलट को कमान सौंपेंगे या अशोक गहलोत को? एक ओर सचिन पायलट का पांच वर्षों का संघर्ष और कड़ी मेहनत है। वे राहुल की मित्र मंडली के सदस्य भी माने जाते हैं. दूसरी ओर राजनीतिक रूप से परिपक्व माने जाने वाले अशोक गहलोत हैं। और वे इस समय राहुल के विश्वस्त सिपहसलार हैं। एक किसान नेता राजेश पायलट का बेटा है और दूसरा पिछड़े वर्ग का स्वीकार्य नेता। इस फैसले को हो सकता है कि उनकी निजी पसंद से भी जोड़ कर देखा जाए लेकिन राहुल गांधी के सामने यह भी एक चुनौती होगी कि उनके फैसले को पार्टी हित के परिप्रेक्ष्य में ही देखा जाए और उसकी स्वीकार्यता भी बने।
सिंधिया या कमलनाथ?
मध्यप्रदेश में भी यही सवाल हैं। वैसे तो मध्यप्रदेश को दिग्गज कांग्रेस नेताओं का प्रदेश माना जाता है। लेकिन मुख्यमंत्री पद के दावेदारों के रूप में सिर्फ़ दो ही चेहरे दिखाई देते हैं। एक दावेदार उनके अपने मित्र ज्योतिरादित्य सिंधिया हैं तो दूसरी तरफ प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष कमलनाथ हैं। ज्योतिरादित्य सिंधिया युवा चेहरा हैं और वे खासे लोकप्रिय भी हैं. तो दूसरी ओर गांधी परिवार के साथ तीन पीढ़ियों की राजनीति कर चुके कमलनाथ हैं। सिंधिया के पास प्रचार समिति का जिम्मा है तो कमलनाथ को छह महीने पहले ही प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष का पद सौंपा गया है।
मध्य प्रदेश में किसे चुनेंगे राहुल गांधी
कमलनाथ के बारे में माना जाता है कि उन्होंने कमज़ोर पड़ी कांग्रेस को खड़ा किया और चुनाव मैदान में उतारा। माना जाता है कि उन्होंने सत्ता विरोधी भावनाओं को बखूबी स्वर दिया और कांग्रेस के पक्ष में माहौल खड़ा करने के लिए नेटवर्क भी खड़ा किया। दूसरी ओर सिंधिया ने भी चुनावी प्रचार में ख़ूब पसीना बहाया है। हालांकि इन दोनों में से किसी ने भी कांग्रेस संगठन को उस तरह से खड़ा करने की दिशा में कोई काम नहीं किया जिसकी अपेक्षा राहुल गांधी प्रदेश के नेताओं से करते थे। लाठी डंडे तो दोनों ने नहीं खाए हैं। हालांकि दोनों पैराशूट भी नहीं हैं। एक ओर राजपरिवार के सिंधिया हैं तो दूसरी ओर उद्योगपति और कारोबारी कमलनाथ। सिंधिया परिवार की गांधी परिवार से नज़दीकियां किसी से छिपी नहीं हैं तो कमलनाथ संजय गांधी के करीबी नेताओं में से एक रहे हैं। तो राहुल इन दोनों में से किसे चुनेंगे?
क्या दिग्विजय को मिलेगा मौका?
एक चर्चा यह भी है कि राहुल गांधी मध्यप्रदेश की कमान दिग्विजय सिंह को सौंप कर कोई चौंकाने वाला फैसला भी कर सकते हैं चौंकाने वाला इसलिए क्योंकि दिग्विजय कुछ समय से उस राहुल गांधी के सलाहकार समूह में शामिल नहीं माने जाते हैं। राजस्थान और मध्यप्रदेश का फैसला एक संदेश और देगा कि 2019 की लड़ाई के लिए ‘टीम-राहुल' में उनकी अपनी पसंद के लोग होंगे या ऐसे नेताओं पर भी उनका भरोसा कायम है जो पिछली पीढ़ी के कहे जा सकते हैं।
लोकसभा पर नज़र और भाजपा से लंबी लड़ाई
दरअसल इन राज्यों के फैसले राहुल गांधी की पार्टी पर पकड़ ही नहीं बल्कि यह भी तय करने वाले हैं कि उन्होंने लोकसभा चुनाव की तैयारियों की दिशा क्या तय की है? वे संघ-भाजपा के खिलाफ धारदार लड़ाई के रास्ते पर जाएंगे या चुनावी लड़ाई का वो रास्ता अख्तियार करेंगे जो अपेक्षाकृत सॉफ्ट और पारंपरिक हो? राहुल गांधी को यह भी देखना होगा कि लोकसभा चुनाव में उनका मुक़ाबला आक्रामक नरेंद्र मोदी और चुनावी रणनीति में उनसे भी ज़्यादा आक्रामक अमित शाह से होना है. तो प्रदेश में उन्हें ऐसा नेतृत्व चुनना होगा जो आमने सामने की लड़ाई लड़ सके।
मध्य प्रदेश-छत्तीसगढ़ में 15 साल बाद वापसी
राजनीतिक प्रेक्षक मानते हैं कि मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में तो पिछले 15 बरसों से भाजपा की कार्यसंस्कृति में रंगे और बहुत हद तक भाजपा समर्थक हो चुकी नौकरशाही की लगाम कसने वाला मुख्यमंत्री ही चाहिए होगा क्योंकि लोकसभा चुनाव तो लगभग सर पर खड़े हुए हैं। दिल्ली विश्विद्यालय के एक प्राध्यापक नाम ना छापने की शर्त पर कहते हैं कि राहुल गांधी को मध्यप्रदेश या राजस्थान या छत्तीसगढ़ में यदि चुनावी सफलता मिली है तो उसके पीछे पार्टी की आक्रामकता एक बड़ा कारण है।
अब नजर सिर्फ कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी पर
राहुल गांधी ने सभाओं में ‘चौकीदार' वाले नारे लगाकर लड़ाई को ना केवल एक धार दी बल्कि कांग्रेस के भीतर लड़ाई का एक नया विमर्श खड़ा किया जिसके पीछे पार्टी का नौजवान कार्यकर्ता खड़ा हुआ है। अब इन राज्यों में राहुल के फैसले इस कार्यकर्ता को भी एक संदेश देंगे कि वे जो मंच पर कहते रहे हैं उसका मान वे ख़ुद रखेंगे या नहीं। वे सच में लाठी डंडे खाने वालों को सम्मान देंगे या फिर कांग्रेस के गलियारों का पुराना भूत फिर हावी हो जाएगा। दूरदृष्टि रखकर भाजपा से लंबी लड़ाई का एजेंडा तय होगा या फिर फ़ौरी लाभ हानि को ही तरजीह दी जाएगी?
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