असम विधानसभा चुनाव: क्या क्षेत्रीय दल फिर मज़बूत हो रहे हैं?
पूर्वोत्तर राज्य असम में 1986 में पहली बार किसी क्षेत्रीय दल ने अपनी सरकार बनाई थी. इसके बाद से यहाँ क्षेत्रीय दलों की बड़ी भूमिका रही है.
पूर्वोत्तर राज्य असम में क्षेत्रीय दलों का सबसे स्वर्णिम काल वर्ष 1985 से लेकर वर्ष 2001 को माना जाता है.
70 के दशक से असम में अवैध रूप से बांग्लादेश से आकर बसे लोगों के ख़िलाफ़ असमिया लोगों ने एकजुट होना शुरू कर दिया था. देखते-देखते इस मुहिम ने जनांदोलन का रूप लेना शुरू कर दिया.
छह सालों तक चले इस संघर्ष से एक नए क्षेत्रीय दल असम गण परिषद का गठन हुआ, जिसने आगे चलकर वर्ष 1986 में अपनी सरकार बना ली. ये सरकार मूलतः युवा छात्रों की थी, जिनका राजनीति में या सत्ता चलाने का कोई अनुभव नहीं था.
इसी वर्ष केंद्र में सत्तासीन राजीव गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस की सरकार ने असम के आंदोलनकारियों के साथ समझौता किया, जिसे 'असम एकॉर्ड' के नाम से जाना जाता है.
जब क्षेत्रीय दल बन गए बड़े भाई
नई सरकार का पहला दौर तो ठीक चला, लेकिन दूसरे दौर के अंत होने तक केंद्र में मौजूद चंद्रशेखर की सरकार ने असम की सरकार को बर्ख़ास्त कर राज्य में राष्ट्रपति शासन लगा दिया.
गुवाहाटी विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के विभाग अध्यक्ष अखिल रंजन दत्ता का कहना है कि जितनी तेज़ी से क्षेत्रीय दल उभरे थे, उतनी ही तेज़ी के साथ उनका समर्थन का आधार भी घटने लगा.
वो कहते हैं, "एक दौर ऐसा था, जब राष्ट्रीय दल ख़ुद को छोटा भाई और असम के क्षेत्रीय दलों को बड़ा भाई कहने लगे थे. राष्ट्रीय दल भी क्षेत्रीय दलों की मर्ज़ी से ही काम करते थे. लेकिन कुछ ही सालों में कांग्रेस ने फिर अपना खोया हुआ आधार वापस हासिल कर लिया और क्षेत्रीय दल, ख़ास तौर पर असम गण परिषद छोटे भाई की भूमिका में आने लगा."
उनका कहना है कि हालात ऐसे हो गए कि फिर अगले तीन कार्यकालों तक कांग्रेस की सरकार रही और फिर 2016 में असम गण परिषद को भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन करना पड़ा. भाजपा की सरकार बनी और एजीपी उसमें शामिल तो हुआ, लेकिन छोटे भाई के रूप में.
2014 आते-आते क्षेत्रीय दलों की हालत हुई पतली
बीबीसी से बातचीत में वे कहते हैं कि परिषद के लिए 2014 के आम चुनावों ने बेचैनी पैदा कर दी थी, क्योंकि क्षेत्रीयता के सवाल पर उभरी पार्टी को एक भी सीट नहीं मिल पाई थी.
हालाँकि राजनीतिक विश्लेषक कहते हैं कि जब 1985 में असम गण परिषद ने सरकार बनाई थी, तो उस वक़्त भी उनके पास पूर्ण बहुमत नहीं था और सरकार बनाने के लिए उन्हें गठबंधन का ही सहारा लेना पड़ा था.
2014 के आते-आते परिषद की हालत इतनी ख़राब हो गई कि संगठन के सबसे क़द्दावर नेता प्रफुल्ल कुमार महंत को संगठन से बाहर का रास्ता दिखा दिया गया.
कमोबेश यही हाल बोडोलैंड पीपुल्स फ़्रंट यानी बीपीएफ़ का भी रहा, जो कांग्रेस के साथ वर्ष 2006 से लेकर 2011 तक गठबंधन में रही.
फिर 2016 के चुनावों में बीपीएफ़ के सुप्रीमो हाग्रामा मोहिलारी ने भाजपा से गठबंधन किया और बोडोलैंड क्षेत्रीय परिषद की 12 की 12 सीटें उनकी पार्टी ने जीत लीं.
इस बार चुनावों से ठीक पहले बीपीएफ़ के बीच मतभेद खुलकर सामने आने लगे और बीपीएफ़ ने भाजपा के साथ चलने की बजाय अपने रास्ते अलग कर लिए.
इस बीच भाजपा ने बोडोलैंड के एक और क्षेत्रीय संगठन यूनाइटेड पीपुल्स पार्टी लिबरेशन यानी यूपीपील से हाथ मिलाया और मौजूदा वक़्त में बोडोलैंड क्षेत्रीय परिषद में भाजपा और यूपीपील के बहुमत वाला प्रशासन है.
बीपीएफ़ क्यों हुआ बीजेपी से अलग?
बीपीफ़ की वरिष्ठ नेता और छह बार विधायक रह चुकीं प्रमिला रानी ने बीबीसी से कहा कि उनके दल ने भाजपा से रास्ते इसलिए अलग कर लिए, क्योंकि उनके नेता अपमानित महसूस कर रहे थे. उनका दावा था कि रस्ते अलग करने के बाद कांग्रेस ने उन्हें गठबंधन में शामिल होने का प्रस्ताव दिया, जिसे उन्होंने स्वीकार कर लिया.
कांग्रेस के नेतृत्व वाले महागठबंधन, जिसे यहाँ 'महाजोट' कह कर संबोधित किया जाता है, उसमें वामदल, बदरुद्दीन अजमल की ऑल इंडिया यूनाइटेड डेमोक्रेटिक फ्रंट (यूडीएफ़) भी शामिल है.
गुवाहाटी से प्रकाशित होने वाले हिंदी दैनिक के संपादक रवि शंकर रवि के अनुसार, नए गठबंधन ने असम गण परिषद को भारतीय जनता पार्टी के साथ फिर से सीटों को लेकर तोल मोल करने की गुंजाइश दे दी.
एजीपी को बीजेपी ने दी अधिक सीटें
पहले भाजपा चाहती थी कि एजीपी को 12 सीटें ही दे. लेकिन ताज़ा घटनाक्रम के बाद 23 सीटें देने पर मुहर लगानी पड़ी.
अगर ऐसा नहीं होता, तो भाजपा को बिना एजीपी को साथ लिए ही चुनाव लड़ना पड़ता, जिससे उसे राजनीतिक नुक़सान उठाना तय माना जा रहा था.
एजीपी के राज्य सभा के सांसद बीरेन्द्र प्रसाद बैश्य इस बात से इनकार करते हैं कि उनके दल ने भारतीय जनता पार्टी पर किसी भी तरह का कोई दबाव डालने की कोशिश की.
वो कहते हैं कि हर दल अपनी राजनीतिक रणनीति बनाता है और कोशिश करता है कि ज़्यादा से ज़्यादा सीटों पर उसके उम्मीदवार लड़ें. वो कहते हैं कि एजीपी ने भी ऐसा ही किया.
भारतीय जाना पार्टी के लिए भी इस बार के विधानसभा का चुनाव पिछली बार से काफ़ी अलग हैं, क्योंकि वर्ष 2019 में आए नए नागरिकता संशोधन क़ानून को लेकर हुए विरोध के बाद ये पहला चुनाव है.
नए आंदोलन से नई पार्टियाँ
नए क़ानून के विरोध में हो रहे प्रदर्शनों का केंद्र असम भी रहा और इस आंदोलन ने दो अन्य दलों को भी जन्म दिया.
इसमें अखिल गोगोई के नेतृत्व वाले कृषक किसान संग्राम समिति द्वारा बनाए गए रायजोर दल और ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन यानी आसू जैसे ग़ैर राजनीतिक संगठन से निकले लुरिन ज्योति गोगोई वाला असम जातीय परिषद जैसे दल शामिल हैं.
आसू के अध्यक्ष दीपंकर कुमार नाथ मानते हैं कि अपनी दुर्दशा के लिए क्षेत्रीय दल ख़ुद ही ज़िम्मेदार हैं. बीबीसी से चर्चा के दौरान उनका कहना था कि इन दलों को आम लोगों का समर्थन इसलिए मिला था क्योंकि ये सब असम के क्षेत्रीय स्वाभिमान को लेकर काम कर रहे थे.
वो कहते हैं, "बाद में इन दलों ने अपना मुख्या एजेंडा ही छोड़ दिया और राष्ट्रीय दलों के एजेंडे के अनुसार ही काम करने लगे, जिससे इनकी साख अपने ही आधार वाले क्षेत्रों में कमज़ोर होने लगी. लेकिन इस बार जो चुनाव हो रहे हैं, उसमें क्षेत्रीय दलों ने अपनी खोई हुई ज़मीन को दोबारा हासिल करने की कोशिश की है, जिसकी वजह से भाजपा और कांग्रेस जैसे राष्ट्रीय दलों को इनकी बात माननी पड़ रही है."