अशोक कुमार-दिलीप कुमार को हीरो बनाने वाला विदेशी सिनमेटोग्राफ़र
हिंदी और उर्दू फ़िल्मों के सिनमेटोग्राफ़र रहे विरिंग ने भारतीय सिनेमा को नया अंदाज़ दिया.
जब दूसरा विश्व युद्ध छिड़ा तब योज़ेफ़ विरिंग बॉम्बे (बाद में मुंबई) के फ़िल्म सेट पर व्यस्त थे. इस शहर को भारत का सपनों का शहर और बॉलीवुड का घर भी कहा जाता है.
म्यूनिख़ में पैदा हुए जर्मन नागरिक विरिंग ने बॉम्बे टॉकिज़ के लिए 17 हिंदी और उर्दू फ़िल्मों में सिनेमाटोग्राफ़र (छायाकार) के तौर पर काम किया. बॉम्बे टॉकीज़ स्टूडियो को प्रसिद्ध फ़िल्मी हस्ती हिमांशु राय और स्टार अभिनेत्री देविका राय ने बनाया था.
विरिंग ने जर्मन फ़िल्म निर्देशक फांस ऑस्टन के साथ मिलकर एमेलका फ़िल्म स्टूडियोज़ के लिए म्यूनिख़ में 'द लाइट ऑफ़ एशिया' के लिए काम किया था. 1920 की यह फ़िल्म बुद्ध के जीवन पर आधारित एक क्लासिक मूक फ़िल्म थी. लाइट ऑफ़ एशिया बनाने के दौरान वह पहली बार भारत आए थे.
फ़िल्म निर्माण के बाद विरिंग और ऑस्टन वापस जर्मनी लौट गए. जर्मनी में नाज़ी शासन के दौरान जब फ़िल्मकारों पर प्रोपेगेंडा फ़िल्म बनाने का दबाव था तब राय के निमंत्रण पर विरिंग ने भारत में काम करने को प्राथमिकता दी.
मुख्यधारा की फ़िल्में बनाने वाले बॉम्बे टॉकीज़ में तकनीकी विशेषज्ञता के आधार पर उनको नौकरी दी गई थी.
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विरिंग के काम की फोटोग्राफ़ी पर प्रदर्शनी लगाने वाली रहाब अल्लाना कहते हैं, "विरिंग ने भारत और यूरोप के बीच ख़ासतौर पर बनाई गई मर्सिडीज़ बेंज़ कार में अपने फोटोग्राफ़ी उपकरणों के साथ यात्रा की थी."
ऑस्टन जब जर्मनी लौट गए तब विरिंग भारतीय स्टूडियो के सिनमेटोग्राफ़र के तौर पर काम करने लगे और बाद में वह बॉम्बे के दूसरे स्टूडियो के डायरेक्टर ऑफ़ फ़ोटोग्राफ़ी बन गए.
वह हिंदी की जवानी की हवा (1935), अछूत कन्या (1936), महल (1949), दिल अपना प्रीत पराई (1960) और पाकीज़ा (1972 में रिलीज़) जैसी प्रसिद्ध फ़िल्मों के सिनेमाटोग्राफ़र रहे. 1967 में भारत में ही विरिंग की मौत हो गई.
अल्लान कहते हैं, "भारत में टॉकीज़ सिनेमा के दौर के दौरान उनके किए गए योगदान को सिनेमाई विरासत का एक अहम हिस्सा समझा जाता है."
गोवा में एक प्रदर्शनी में पहली बार विरिंग के 130 से अधिक फ़ोटोग्राफ़िक काम को पेश किया गया है.
इन तस्वीरों में विरिंग का सिनेमाटोग्राफ़र के रूप में योगदान दिखाया गया है. साथ ही सीन से हटकर होने वाले अभिनेताओं के हल्के-फुल्के पल भी इसमें शामिल हैं.
अल्लाना कहते हैं, "यह अब तक नहीं देखी गई सामग्री है." इनमें एशिया और यूरोप की यात्रा के दौरान विरिंग द्वारा ली गई तस्वीरें भी हैं. विरिंग एक छोटा सा लेइका कैमरा इस्तेमाल करते थे.
हालांकि उस समय भारत में फ़िल्म निर्माण पर उनका असाधारण प्रभाव था. अल्लाना कहते हैं, "विरिंग भारतीय सिनेमा में यूरोप की आधुनिकता लेकर आए और अछूत कन्या जैसी छूआछूत पर बनी फ़िल्म में आधुनिकता के पहलुओं को भी शामिल किया."
भारतीय टॉकीज़ परंपरा के सिनेमा में जर्मन अभिव्यक्ति के साथ-साथ वायुमंडलीय संरचनाएं और विभिन्न कोणों से कैमरे के इस्तेमाल का श्रेय भी उन्हें जाता है.
उनके कैमरा का काम लाजवाब था. देविका रानी, लीला चिटनिस, अशोक कुमार और दिलीप कुमार जैसे लोगों को हीरो और हीरोइन बनाने का श्रेय भी उन्हें ही जाता है.
विरिंग की 50वीं पुण्यतिथि पर यह तस्वीरें एक स्मरण-पत्र हैं उस शख़्स के लिए जो निर्वासन में रहा और विदेशी ज़मीन फ़िल्म और छवि निर्माण की खोज करने वाला अग्रदूत बना.
( सभी फ़ोटो साभार प्रदर्शनी ए सिनेमाटिक इमेजिनेशन: योज़ेफ़ विरिंग और बॉम्बे टॉकीज़ से. यह कार्यक्रम सेरेनडिपिटी आर्ट्स और द अल्काज़ी फ़ाउंडेशन के सहयोग से किया गया है.)