तो क्या अटल बिहारी बाजपेयी बनना चाहते हैं केजरीवाल?
केजरीवाल ने अपना यह गुस्सा दिल्ली लिटरेचर फेस्टिवल में व्यक्त किया। केजरीवाल ने केन्द्र सरकार पर ठीकरा फोड़ते हुए कहा कि उनका दिल्ली के लिए जनलोकपाल बिल की मांग करना बिल्कुल भी असंवैधानिक नहीं है। केजरीवाल ने कहा कि संविधान के अनुसार पुलिस, कानून एवं व्यवस्था और भूमि के अलावा दिल्ली विधानसभा को अन्य विषयों में विधेयक लाने और पारित करने का अधिकार हासिल है।
केजरीवाल के इस तेवर के देखकर राजनैतिक पंडितों को देश के पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी की याद आ रही है जो अपनी बात ना माने जाने पर हमेशा इस्तीफा देने की बात करते थे, जिसकी वजह से उनके विरोधी बैकफुट पर नजर आ जाते थे।
केजरीवाल का अंदाज भी कुछ-कछ उनके जैसा ही है लेकिन उनके और अटल बिहारी बाजपेयी में जमीन-आसमान का अंतर है। जहां अटल जी ने 30 साल राजनीति को देने के बाद सत्ता का स्वाद चखा था वहीं केजरीवाल ने मात्र 11 महीने पुरानी पार्टी के तहत सत्तासीन हो गये हैं। अटल बिहारी को बखूबी पता था कि उन्हें अपना गुस्सा कब, कहां और कैसे दिखाना है जबकि केजरीवाल तो अपनी हर नाकामी को अपने गुस्से से जोड़ देते है जो कि अब प्रभावहीन लगता है।
तीसरा सबसे बड़ा अहम अंतर दोनों में यह है कि अटल जी के गुस्से से उनके गठबंधन को फर्क पड़ता क्योंकि एनडीए भी जानता था कि बिना अटल बिहारी के सत्ता में रहना नामुमकीन है, भले ही पार्टियों में बीजेपी के लेकर मतभेद हो लेकिन अटल जी पर सब एकमत थे लेकिन केजरीवाल की गठबंधन सरकार में तो केजरीवाल अपनी गठबंधन मित्र पार्टी के ही खिलाफ जहर उगल रहे हैं जिसके कारण कांग्रेस ही उन्हें पागल और दीवालिया साबित करने में जुटी है।
फिलहाल तो दिल्ली की सत्ता में उबाल आया हुआ है देखते हैं कि यह उबाल कब ठंडा होता है और केजरीवाल अपनी बात ना माने जाने की सूरत पर त्यागपत्र देते हैं या नहीं? और अगर सच में वह इस्तीफा देते हैं तब दिल्ली की राजनैतिक स्थिति क्या होगी? और दिल्ली वासियों के उन हसीन सपनों का क्या होगा जो कि केजरीवाल ने उन्हें दिखाया है?