अरुण खेत्रपाल, 71 की जंग में पाकिस्तान के 10 टैंक्स अकेले उड़ाने वाला परमवीर योद्धा
नई दिल्ली। भारत-पाकिस्तान के बीच हुई तीसरी जंग को 48 साल हो गए हैं। इस जंग का अंत 16 दिसंबर 1971 को करीब एक लाख पाक सैनिकों के आत्मसमर्पण के साथ खत्म हुआ था। इस जंग का जिक्र जब-जब होगा तब-तब आपको भारत के उन सूरमाओं की कहानियां सुनने को मिलेंगी जिन्हें सुनकर आपके रोंगटे खड़े हो जाएंगे। इन सूरमाओं में से ही एक हैं शहीद सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल। सिर्फ 21 साल के खेत्रपाल की वीरता की कहानी आज भी पाकिस्तान में सुनाई जाती है। आज उनके जन्मदिन पर जानिए उनकी बहादुरी का वह किस्सा जो आपको जोश से भर देगा।
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एक सैनिक के घर हुआ जन्म
सेकेंड लेफ्टिनेंट खेत्रपाल को 'बसंतर के युद्ध' का योद्धा कहा जाता है। अरुण खेत्रपाल वह एक ऐसा योद्धा था जिसने दुश्मन के 10 टैंक्स को तबाह करने के बाद ही सांस ली थी। 14 अक्टूबर 1950 को पुणे में लेफ्टिनेंट कर्नल एमएल खेत्रपाल (जो बाद में ब्रिगेडियर होकर रिटायर हुए) उनके घर पर अरुण खेत्रपाल का जन्म हुआ। जब 71 में भारत और पाकिस्तान के बीच जंग छिड़ी अरुण की उम्र बस 21 साल थी और एक यंग ऑफिसर के तौर पर वह जंग के मैदान में पहुंचे। मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित अरुण सेकेंड लेफ्टिनेंट के तौर पर युद्ध में थे। यह रैंक बहुत साल पहले खत्म हो चुकी है। खेत्रपाल की बहादुरी की कहानियां पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में भी सुनाई जाती है। पांच से 16 दिसंबर 1971 तक जंग चली और अरुण ने जम्मू कश्मीर के बसंतर में मोर्चा संभाला था। बसंतर की लड़ाई 71 की जंग के दौरान भारत-पाकिस्तान युद्ध के दौरान पश्चिमी सेक्टर में लड़ी गई महत्वपूर्ण लड़ाइयों में से एक थी।
100 मीटर की दूरी पर तबाह किया एक टैंक
युद्ध की घोषणा के चार दिनों के अंदर, भारतीय सेना ने शकरगढ़ पर आक्रमण करने की पाकिस्तान की युद्धक योजनाओं को नाकाम कर दिया और भारतीय सैन्य टुकड़ियां स्यालकोट शहर के बाहर तक पहुँच गई । इस लड़ाई में भारतीय सैनिकों को दो परमवीर चक्रों, चार महावीर चक्रों और चार वीर चक्रों से सम्मानित किया गया। सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण ने 21 साल की उम्र में दुश्मन के 10 टैंक्स तबाह कर दिए थे। उन्होंने जिस जज्बे का प्रदर्शन किया उसने न सिर्फ पाकिस्तानी सेना को आगे बढ़ने से रोका बल्कि उसके जवानों का मनोबल इतना गिर गया कि आगे बढ़ने से पहले दूसरी बटालियन की मदद मांगी। युद्ध के दौरान अरुण बुरी तरह से घायल हो गए थे लेकिन इसके बावजूद टैंक छोड़ने को राजी नहीं हुए। दुश्मन का जो आखिरी टैंक उन्होंने बर्बाद किया, वो उनकी पोजिशन से 100 मीटर की दूरी पर था।
दुश्मन को आसानी से नहीं छोड़ने वाला योद्धा
बसंतर की लड़ाई में लेफ्टिनेंट खेत्रपाल शहीद हो गए लेकिन शहादत से पहले उन्होंने दुश्मन की नाक में दम कर दिया था। दुश्मन के कई टैंक को खत्म करने के बाद टैंक में लगी आग में घिरकर अरुण शहीद हो गए। उनका शव और उनका टैंक फमगुस्ता पाक ने कब्जे में ले लिया था, जिसे बाद में इंडियन आर्मी को लौटा दिया गया था। उनका अंतिम संस्कार सांबा जिले में हुए और अस्थियां परिवार को भेजी गईं, जिन्हें उनके निधन के बारे में काफी बाद में पता चला था। उनके टैंक पर आग लग गई और उनके कमांडर ने उन्हें वापस लौटने का ऑर्डर दिया। लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल ने अपना रेडिया सेट ऑफ कर दिया था। रेडियो पर अरुण के आखिरी शब्द थे, 'सर, मेरी गन अभी फायर कर रही है। जब तक ये काम करती रहेगी, मैं फायर करता रहूंगा।'
वीर अरुण आज भी सैनिकों के साथ
साल 1967 में अरुण नेशनल डिफेंस एकेडमी (एनडीए) में शामिल हुए थे। उसके बाद 1971 में '17पूना हॉर्स' में कमीशन मिला। यहां से उन्हें जंग में जाने का ऑर्डर दिया गया था। अरुण ने आखिरी दम तक अपनी बहादुरी का परिचय दिया और दुश्मन से लड़ते रहे। सेकेंड लेफ्टिनेंट ने जिस वीरता और अदम्य साहस का प्रदर्शन युद्ध के मैदान में किया, उसके बाद उन्हें सर्वोच्च सैन्य सम्मान परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया था। शहादत के बाद भी आज तक हर सैनिक को जब सेना में कमीशन मिलता है तो लेफ्टिनेंट खेत्रपाल अप्रत्यक्ष तौर पर उसके गवाह बनते हैं। एनडीए में जहां उनके नाम पर परेड ग्राउंड है तो इंडियन मिलिट्री एकेडमी (आईएमए) में उनके नाम खेत्रपाल ऑडीटोरियम बना हुआ है। इसके अलावा उनके टैंक फमगुस्ता को भी अहमदनगर में आर्मर्ड कोर सेंटर एंड स्कूल में संरक्षित करके रखा गया है।