Army Day 2020: सेना और सरकार में कब-कब हुआ विवाद
भारत आज यानी 15 जनवरी को 72वां राष्ट्रीय सेना दिवस मना रहा है. हर साल सभी सैन्य मुख्यालयों पर सेना के सम्मान में सेना दिवस मनाया जाता है. आज ही के दिन 1949 में भारत के आख़िरी ब्रिटिश कमांडर-इन-चीफ़ फ्रांसिस बुचर ने लेफ़्टिनेंट जनरल केएम करियप्पा को कमांडर-इन-चीफ़ की ज़िम्मेदारी सौंपी थी. अंग्रेज़ों से आज़ादी मिलने के बाद सेना की कमान भारत के हाथ में आना ऐतिहासिक पल था.
भारत आज यानी 15 जनवरी को 72वां राष्ट्रीय सेना दिवस मना रहा है. हर साल सभी सैन्य मुख्यालयों पर सेना के सम्मान में सेना दिवस मनाया जाता है.
आज ही के दिन 1949 में भारत के आख़िरी ब्रिटिश कमांडर-इन-चीफ़ फ्रांसिस बुचर ने लेफ़्टिनेंट जनरल केएम करियप्पा को कमांडर-इन-चीफ़ की ज़िम्मेदारी सौंपी थी.
अंग्रेज़ों से आज़ादी मिलने के बाद सेना की कमान भारत के हाथ में आना ऐतिहासिक पल था. सेना दिवस पर उन सैनिकों को भी श्रद्धांजलि दी जाती है, जिन्होंने ज़िम्मेदारी निभाते हुए अपनी जान गँवा दी.
भारतीय सेना की स्थापना एक अप्रैल, 1895 को हुई थी. हालांकि आज़ाद भारत में सेना की कमान भारत के पास 15 जनवरी 1949 को मिली और इसी दिन कोई भारतीय पहली बार सेना प्रमुख बना.
सेना दिवस के मौक़े पर रेहान फ़ज़ल आपको बता रहे हैं कि अब तक सेना और सरकार के रिश्ते कैसे रहे हैं.
अंतरराष्ट्रीय हलकों में भारतीय सेना की तारीफ़ होती रही है कि उसने अपने आप को राजनीतिक मुद्दों से दूर रखा है.
इस बात की भी तारीफ़ हुई है कि सेना के ऊपर राजनीतिक नियंत्रण पर बहुत कम सवाल उठाए गए हैं.
लेकिन अगर हम 1947 के बाद के इतिहास को देखे तो पाएंगे कि ऐसे कई मौके आए हैं जब सेना और सरकार के संबंधों में तनाव पैदा हुआ है.
अक्तूबर, 1947 में जब जूनागढ़ ने पाकिस्तान के साथ जाने का फ़ैसला किया तो उसकी सीमा के आसपास भारतीय सैनिक तैनात किए जाने पर भारतीय सेना के ब्रिटिश प्रमुखों ने अपना विरोध प्रकट किया था जिसे नेहरू और सरदार पटेल ने कतई पसंद नहीं किया था.
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करियप्पा का मामला
श्रीनाथ राघवन अपनी किताब 'वॉर एंड पीस इन मॉडर्न इंडिया' में लिखते हैं कि इस घटना की वजह से ही मंत्रिमडल की रक्षा समिति बनाई गई थी ताकि रणनीति के मामले में सिविल-मिलिट्री संबंधों को औपचारिक स्वरूप दिया जा सके.
आज़ादी के कुछ सालों बाद भारत के पहले सेना प्रमुख जनरल केएम करियप्पा ने कई नीतिगत मामलों पर अपने विचार व्यक्त करना शुरू कर दिए थे. नेहरू ने तब उन्हें बुलाकर ऐसा करने के लिए टोका भी था.
इस संभावना को दूर करने के लिए कि करियप्पा रिटायर होने के बाद कहीं राजनीति में न उतर जाएं, नेहरू ने उन्हें ऑस्ट्रेलिया में भारत का उच्चायुक्त बना कर भेज दिया था.
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जनरल थिमैया का इस्तीफा
ये अलग बात है कि इसके बावजूद, बाद में करियप्पा ने एक निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा था, जिसमें वो हार गए थे.
वैसे रियायरमेंट के बाद चुनाव लड़ने वाले जनरलों की फेरहिस्त काफ़ी लंबी है और इसमें जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा, जनरल बीसी खंडूरी और जनरल जेजे सिंह जैसे उच्च सैनिक अधिकारी शामिल हैं.
सितंबर, 1959 में तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल थिमैया ने रक्षा मंक्षी वीके कृष्ण मेनन से अपने मतभेदों के चलते इस्तीफ़ा दे दिया था.
ऊपरी तौर पर ये बताया गया था कि ये मतभेद कुछ अफ़सरों की पदोन्नति के मुद्दे पर थे. लेकिन अब मिले अभिलेखीय सबूतों के आधार पर कहा जा सकता है कि इस इस्तीफ़े की वजह इससे कहीं अधिक गहरी थी.
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'टेंप्रामेंटल मतभेद'
श्रीनाथ राघवन लिखते हैं, 'इस मामले के कुछ समय पहले ही भारत और चीन के सैनिकों की झड़प हुई थी. चीन के संभावित ख़तरे का मुकाबला करने के लिए थिमैया चाहते थे कि भारत सरकार पाकिस्तान के राष्ट्रपति अयूब ख़ाँ के भारत-पाकिस्तान के बीच संयुक्त रक्षा व्यवस्था बनाने के प्रस्ताव पर गंभीरता से विचार करे.'
उन्होंने आगे लिखा है, 'नेहरू ने इसको इसलिए मानने से इनकार कर दिया था, क्योंकि इससे भारत की गुट निरपेक्ष नीति प्रभावित होती. कृष्णा मेनन भी इस प्रस्ताव के पक्ष में नहीं थे. जब थिमैया राजनीतिक नेतृत्व को इसके लिए नहीं मना पाए तो उन्होंने अपना इस्तीफ़ा भेज दिया.'
बाद में नेहरू ने थिमैया को अपना इस्तीफ़ा वापस लेने के लिए मना लिया लेकिन उन्हें कोई आश्वासन भी नहीं दिया. लेकिन तब तक प्रेस को इसकी भनक लग गई थी.
जब संसद में इस पर सवाल उठाए गए तो नेहरू ने इसे 'टेंप्रामेंटल मतभेद' कह कर ज़्यादा भाव नहीं दिया.
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मानेक शॉ का जवाब
रक्षा मंत्री कृष्णा मेनन की अपने अधिकतर जनरलों से नहीं बनती थी. वो उन्हें पीठ पीछे 'गॉड अलमाइटी' कह कर पुकारा करते थे. एक बार उन्होंने मेजर जनरल सैम मानेक शॉ से पूछा था कि 'जनरल थिमैया के बार में आपकी क्या राय है?'
हमेशा मुंहफट रहे मानेक शॉ ने जवाब दिया था, 'सर जूनियर अफ़सर के तौर पर हमें अपने सीनियर अफ़सरों के बारे में अपने विचार प्रकट करने की इजाज़त नही है. हम अपने सीनियर्स का सम्मान करते हैं और इस में कोई दो राय नहीं है.'
मेनन ने इस जवाब को पसंद नहीं किया और बाद में सैम को इसका खमियाजा उस वक्त भुगतना पड़ा जब उनके ख़िलाफ़ एक जांच बैठा दी गई थी.
1973 में जब सैम मानेक शॉ के रिटायरमेंट का वक़्त आया तो सबसे वरिष्ठ होने के वावजूद जनरल पीएस भगत को सेना अध्यक्ष नहीं बनाया गया.
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शक्तिशाली जनरल
सैम चाहते थे कि भगत ही उनके उत्तराधिकारी हों लेकिन रक्षा मंत्री यशवंत राव चव्हाण के दबाव में जनरल बेवूर को अगला सेनाध्यक्ष बनाया गया.
कुछ हलकों में कहा गया कि सरकार नहीं चाहती थी कि सैम के बाद अगला जनरल भी उन जैसा ही शक्तिशाली जनरल हो.
उसी तरह जनरल कृष्णा राव के रिटायर होने के बाद जनरल एसके सिन्हा सबसे वरिष्ठ जनरल थे, लेकिन उनकी जगह जनरल एएस वैद्य को नया सेनाध्यक्ष बनाया गया.
बाद में कहा गया कि ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि जनरल सिन्हा जयप्रकाश नारायण के बहुत करीब थे.
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जेपी से सिन्हा की मुलाकात
जनरल एसके सिन्हा ने अपनी आत्मकथा 'चेंजिंग इंडिया-स्ट्रेट फ़्रॉम हार्ट' में लिखा है, 'एक बार मैं पटना से दिल्ली हवाई जहाज़ से सफ़र कर रहा था. इत्तेफ़ाक से जेपी की सीट मेरे बगल में थी. हम लोग बाते करने लगे. मैं उन्हें पहले से जानता था. जब वो उतरने लगे, तो मैने उनका ब्रीफ़केस उनके हाथ से ले लिया.'
जनरल सिन्हा आगे लिखते हैं, 'जेपी ने मना भी किया कि ये अच्छा नहीं लगेगा कि वर्दी पहने एक जनरल मेरा ब्रीफ़केस ले कर चले. मैंने कहा कि मैं जनरल होने के साथ-साथ आपका भतीजा भी हूँ. वो मुस्कराए और उन्होंने अपना ब्रीफ़केस मुझे पकड़ा दिया.'
उन्होंने लिखा है, 'जब हम हवाई अड्डे से बाहर आए तो मैंने वो ब्रीफ़केस जेपी को लेने आए एक शख़्स को पकड़ा दिया और उन्हें सेल्यूट कर उनसे विदा ली. अगले दिन जब मैं तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल टीएन रैना से मिलने गया, तो उन्होंने मुझसे कहा कि मुझे बताया गया है कि आप जेपी के बहुत नज़दीक हैं.'
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विष्णु भागवत की बर्खास्तगी
जनरल सिन्हा अपनी आत्मकथा में आगे लिखते हैं, 'एक अन्य मौक़े पर तत्कालीन वायु सेनाध्यक्ष ने जेपी का ज़िक्र करते हुए मुझसे पूछा था कि क्या वो बुड्ढा आदमी अभी तक ज़िदा है? मुझे उनके पूछने का ढ़ंग और भाषा अच्छी नहीं लगी थी. मैंने तुरंत कहा, ईश्वर की कृपा से भारत का महानतम व्यक्ति अभी भी जीवित है.'
इस बेबाकी का नुक़सान जनरल सिन्हा को उठाना पड़ा जब समय आने पर उनकी अनदेखी की गई. सिन्हा ने एक मिनट का समय न ज़ाया करते हुए अपने पद से इस्तीफ़ा दे दिया.
1998 में नौसेनाध्यक्ष एडमिरल विष्णु भागवत को एनडीए सरकार ने उनके पद से बर्ख़ास्त कर दिया, क्योंकि उन्होंने वाइस एडमिरल हरिंदर सिंह को उप नौसेनाध्यक्ष बनाने के सरकार के फ़ैसले को मानने से इनकार कर दिया था.
ये पहला मौका था जब किसी सर्विंग एडमिरल को इस तरह उनके पद से हटाया गया था.
वीके सिंह केस
साल 2012 में तत्कालीन सेनाध्यक्ष जनरल वीके सिंह के जन्म सर्टिफ़िकेट के मामले ने बहुत तूल पकड़ा था. वो इस मामले को सुप्रीम कोर्ट तक ले गए लेकिन जब कोर्ट ने इस मामले में हस्तक्षेप करने से इनकार कर दिया तो उन्होंने केस वापस ले लिया.
अपना कार्यकाल समाप्त होने के बाद वो राजनीति में आ गए और उन्होंने भारतीय जनता पार्टी के टिकट पर चुनाव लड़ा और नरेंद्र मोदी मंत्रिमंडल में मंत्री भी बने.
हाल ही में एक नहीं दो-दो जनरलों प्रवीण बख्शी और पीएम हरीज़ की वरिष्ठता को नज़रअंदाज़ कर जनरल बिपिन रावत को सेनाध्यक्ष बनाया गया.
ये सही है कि सिर्फ़ वरिष्ठता को ही पदोन्नति का आधार नहीं बनाया जा सकता और देश की ज़रूरतों के अनुसार किसी को जनरल बनाना सरकार का विशेषाधिकार है.
लेकिन इस संभावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि इस तरह के चलन से जनरलों में राजनीतिज्ञों के बीच अपने दावों के लिए लॉबीइंग करने की प्रवृत्ति को बढ़ावा मिलेगा जैसा कि कई राज्यों में वरिष्ठ आईपीएस अधिकारियों के साथ हुआ है.