अर्जुन देशपांडे: टाटा के साथ कारोबार करने वाले 18 साल के कारोबारी
हुनर उम्र का मोहताज नहीं होता. ये साबित किया है महाराष्ट्र के रहने वाले 18 साल के अर्जुन देशपांडे ने. आज वो और उनकी कंपनी 'जेनरिक आधार" चर्चा में बनी हुई है. जानेमाने उद्योगपति रतन टाटा ने अर्जुन देशपांडे की दो साल पहले बनी कंपनी में व्यक्तिगत तौर पर निवेश किया है. शुरुआती दौर में ही बिजनस टायकून रतन टाटा का साथ मिलना अर्जुन देशपांडे एक बड़ी उपलब्धि मानते हैं.
हुनर उम्र का मोहताज नहीं होता. ये साबित किया है महाराष्ट्र के रहने वाले 18 साल के अर्जुन देशपांडे ने. आज वो और उनकी कंपनी 'जेनरिक आधार’ चर्चा में बनी हुई है.
जानेमाने उद्योगपति रतन टाटा ने अर्जुन देशपांडे की दो साल पहले बनी कंपनी में व्यक्तिगत तौर पर निवेश किया है. शुरुआती दौर में ही बिजनस टायकून रतन टाटा का साथ मिलना अर्जुन देशपांडे एक बड़ी उपलब्धि मानते हैं.
वह कहते हैं, “जेनरिक दवाओं को लोगों तक पहुंचाने के मकसद को पूरा करने के लिए ये हमारे पास बड़ा मौका है. रतन टाटा जी भी किफ़ायती स्वास्थ्य सुविधाओं के हिमायती रहे हैं. ऐसे में हमें जल्द से जल्द अपने इस लक्ष्य को पूरा करना है.”
It a proud moment to announce Great association with Honourable Mr Ratan Tata Sir to provide affordable medicines to Indian people pic.twitter.com/uIlf6dIzwv
— Arjun Deshpande (@arjundeshpande4) May 7, 2020
अर्जुन देशपांडे जेनरिक आधार के संस्थापक और सीईओ हैं. वह खुद महाराष्ट्र में ठाणे के रहने वाले हैं और उनकी कंपनी भी ठाणे आधारित है.
जेनरिक आधार एक तरह से दवा का खुदरा कारोबार करती है. वह दवा निर्मिताओं से दवा लेती है और खुदरा कारोबारियों यानी छोटो मेडिकल स्टोर्स को बेचती है.
ये कंपनी सरकार द्वारा प्रमाणित निर्माण इकाई में तैयार होने वालीं जेनरिक, ब्रांडेड, होम्योपैथी और आयुर्वेद दवाएं भी उपलब्ध कराती है. अर्जुन देशपांडे कहते हैं उनकी कंपनी 80 प्रतिशत कम दामों पर दवा उपलब्ध कराती है.
कैसे हुई टाटा से मुलाकात
अर्जुन ये बताते हैं कि लगातार दो साल तक इस क्षेत्र में काम करते रहने पर आखिरकार उनकी मेहनत रंग लाई. उन्होंने बताया कि रतन टाटा से उनकी मुलाक़ात कैसे हुई.
उन्होंने कहा, “पूरे दो साल से मैं जेनरिक दवाओं को लेकर जागरुकता लाने की कोशिश कर रहा था. भारत पूरी दुनिया में जेनरिक दवाओं का मैन्यूफैक्चरिंग हब है. यहां से दूसरे देशों में जेनरिक दवाओं का बड़े स्तर पर निर्यात होता है. कई देशों में जाने के बाद मुझे ये लगा कि यही दवाइयां भारत के लोगों को भी सस्ती दरों पर मिलनी चाहिए.”
“तब मैंने लोगों तक सस्ती दवाएं उपलब्ध कराने का एक मॉडल बनाया. मैं इस दौरान ज़ागरुकता के लिए स्वास्थ्य शिविर भी लगा रहा था. रतन टाटा जी को इस बारे में पता चला और उन्हें मेरा मक़सद पसंद आया. उनका मेरे पास फोन आया और उन्होंने मिलने के लिए बुलाया. फिर मैंने उन्हें अपनी योजना व वर्क मॉडल बताया और वो निवेश के लिए तैयार हो गए.”
क्या है वर्क मॉडल
अर्जुन देशपांडे कहते हैं कि दवाओं की मार्केटिंग और ब्रांडिंग से उनकी क़ीमत बढ़ जाती है. ऐसे में हम जेनरिक दवाओं पर ज़ोर देते हैं जो लोगों को किफ़ायती दरों पर उपलब्ध हो सकती हैं.
अमूमन सभी दवाएं एक तरह का 'केमिकल सॉल्ट' होती हैं जिन्हे शोध के बाद अलग-अलग बीमारियों के लिए बनाया जाता है.
इनमें जो जेनेरिक दवाएं हैं वो सस्ती होती हैं क्योंकि उनकी ब्रांडिंग पर ख़र्चा नहीं होता. लेकिन, जो कंपनियां इन दवाओं का ब्रांड बनाकर बेचती हैं, वो महंगी होती हैं.
अर्जुन बताते हैं, “हम सीधे विश्व स्वास्थ्य संगठन के जीएमपी (गुड मैन्यूफैक्चरिंग प्रैक्टिसिस) प्रमाणित निर्माताओं से दवाएं ख़रीदते हैं और छोटी सिंगल दुकानों पर पहुंचाते हैं. हम पालघर, अहमदाबाद और पॉन्डिचेरी आदि जगहों से जेनरिक दवाएं लेते हैं.”
“छोटी दुकानों को ऑनलाइन बिक्री और बड़ी दवाओं की दुकानों से कड़ी प्रतियोगिता का सामना करना पड़ रहा है. हम उनकी भी मदद करने की कोशिश कर रहे हैं. साथ ही इससे लोगों को ज़रूरत पड़ने पर मेडिकल स्टोर से जेनरिक दवाएं मिल सकेंगी.”
वह कहते हैं कि डॉक्टर को जेनरिक दवाएं लिखनी चाहिए. बहुत सारी जगहों पर डॉक्टर्स ने ऐसा करना शुरू भी कर दिया है क्योंकि दवा का सॉल्ट मायने रखता है, उसका ब्रांड नहीं. कोरोना के कारण लोगों का बजट बहुत कम हो गया है. ऐसे में जेनरिक दवाएं लोगों के ख़र्चे को कम कर सकती हैं. इससे बुर्जुगों और ग़रीबों को फ़ायदा हो सकता है.
उन्होंने बताया, “भारत में 80 से 85 प्रतिशत दवाइयां जेनरिक हैं. कुछ ही दवाइयां होती हैं जिन्हें कंपनियां खुद शोध करके बनाती हैं. कोरोना वायरस में काम आने वाली हाइड्रोक्लोरोक्विन भी एक जेनरिक दवा है. भारत इसका ब्रांड नहीं बल्कि जेनरिक दवा ही निर्यात कर रहा है.”
कैसे शुरू की कंपनी
अर्जुन देशपांडे के जेनरिक दवाओं के क्षेत्र में आने के पीछे उनकी मां की भी अहम भूमिका है.
उनकी मां फार्मा के अंतरारष्ट्रीय कारोबार में हैं. अर्जुन छोटी उम्र से ही अपनी मां के साथ अलग-अलग देशों में जाते थे. वहीं से, अर्जुन को ख्याल आया कि भारत से जेनरिक दवाएं विदेशों में तो जाती हैं लेकिन भारत के लोगों को ये सस्ती दवा नहीं मिल पाती.
इसके बाद उन्होंने जेनरिक दवाओं के क्षेत्र में ही काम करने के बारे में सोचा और फिर 2016 में अपनी कंपनी शुरू कर दी.
अर्जुन देशपांडे कहते हैं, “एक उद्यमी के तौर पर मैंने देखा कि इस क्षेत्र में काफ़ी काम किया जा सकता है और इससे एक सामाजिक उद्देश्य भी पूरा होता है. मैंने बचपन से ही सोच लिया था कि मैं नौकरी नहीं करूंगा बल्कि देश में रोज़गार सृजन करूंगा. इसलिए मैंने एक नया वेंचर शुरू करने का फैसला किया.”
उन्होंने 10 से 15 लाख के निवेश के साथ अपनी कंपनी की शुरुआत की थी जिसका आज काफ़ी विस्तार हो गया है.
अपनी आने वाली योजनाओं को लेकर अर्जुन देशपांडे कहते हैं कि अभी तो रतन टाटा जी ने निवेश किया है. इसके बाद हम जितना जल्दी हो सके ज़्यादा से ज़्यादा शहरों में विस्तार करके दवा पहुंचाने की कोशिश करेंगे.