क्या दर्शकों का अधिकार छीन रहे हैं मल्टीप्लेक्स?
देश, समाज और नागरिकों के सामने एक गंभीर संवैधानिक, राजनीतिक और व्यावहारिक सवाल है कि क्या किसी क़ानून का होना उसके बारे में जानकारी होने की मान्यता बन सकता है?
फिलहाल क़ानून की नज़र में मान्यता है कि हर नागरिक कानून से वाकिफ़ है, लेकिन व्यावहारिक सच इसके ठीक उलट है.
देश, समाज और नागरिकों के सामने एक गंभीर संवैधानिक, राजनीतिक और व्यावहारिक सवाल है कि क्या किसी क़ानून का होना उसके बारे में जानकारी होने की मान्यता बन सकता है?
फिलहाल क़ानून की नज़र में मान्यता है कि हर नागरिक कानून से वाकिफ़ है, लेकिन व्यावहारिक सच इसके ठीक उलट है.
यही सच एक नागरिक के क़ानून और नियम से वाकिफ़ होने के रास्ता में बाधा है. ये जनहित और मानवीय अधिकार की दिशा को भी कुंद कर देता है.
किसी भी संस्थान का न्यूनतम दायित्व बनता है कि वो हर नागरिक और उपभोक्ता को नियम-क़ानून की जानकारी दे.
इस सवाल और इसकी विडम्बना को सिनेमाघरों और मल्टीप्लेक्स में फ़िल्म देखने के लिए पहुंचने वालों को बाहर से खाने-पीने का सामान और पानी ले जाने से रोकने, मल्टीप्लेक्स मालिकों की मर्ज़ी से वहां खाने का सामान तैयार करने और उसे मनमाने तरीक़े से ऊंचे दाम पर बेचने के चलन की समीक्षा से समझा जा सकता है.
बिना किसी क़ानूनके रोक
जब नागरिक को बता दिया जाता है कि आप किसी सिनेमा हॉल में खाने-पीने का सामान साथ नहीं ला सकते, तो नागरिक इसे क़ानून मान लेता है.
ऐसे में जब थिएटर में खाने की वस्तुएं तैयार कर महंगे दाम पर बेची और हॉल में परोसी जाती हैं, तब सिनेमा देखने वाला नागरिक मान लेता है कि ये व्यवस्था भी नियम-क़ानून के मुताबिक़ ही है.
सिनेमा हॉल में जाकर फ़िल्म देखने वाले अधिकतर नागरिक इसी के अनुसार व्यवहार भी कर रहे हैं.
कुछ दिनों पहले महाराष्ट्र सरकार ने आदेश दिया कि अब सिनेमा घरों (मल्टीप्लेक्स) में खाने का सामान ले जाने की छूट होगी. इससे ही स्पष्ट हुआ कि पहले इस पर रोक थी.
महाराष्ट्र सरकार ने ये भी कहा कि वहां बिकने वाले सामान के भाव भी नियमित किए जाएंगे.
ये फ़ैसला बताता है कि महाराष्ट्र सरकार कुछ नया करने जा रही है जो अब तक नहीं था. यानी सिनेमा दर्शक के पक्ष में एक महत्वपूर्ण निर्णय लिया गया है.
लेकिन सच यह है कि जैनेंद्र बख्शी नाम के एक नागरिक ने मुंबई हाई कोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की थी. उनका कहना था कि सिनेमा हॉल में खाने का सामान और पानी ले जाने पर बिना किसी क़ानून व नियम के रोक लगा दी गई है.
इसमें कहा गया था कि सिनेमा हॉल के अंदर खाने का सामान तैयार करना, बेचना और हॉल के अंदर परोसना महाराष्ट्र सिनेमाज़ रेगुलेशन रूल्स 1966 के नियम 121 द्वारा लगाई गई रोक को धता बताता है.
याचिका में सिनेमा हॉल के अंदर खाद्य सामग्री के मनमर्ज़ी से लिए जाने वाले दाम को निर्धारित और नियमित करने की मांग भी की गई थी.
'दर्शक का अधिकार छीन नहीं सकते'
इस याचिका की सुनवाई के दौरान हाई कोर्ट ने टिप्पणी की थी कि सिनेमाघरों और मल्टीप्लेक्स में खाने का सामान ले जाने पर रोक सिनेमा हॉल के लाइसेंस देने संबंधित क़ानून और नियम के ख़िलाफ़ है.
हाई कोर्ट ने कहा कि अगर सिनेमा मालिक खाने का सामान बनाने, बेचने और हॉल में पहुंचाने का काम नियम के विरुद्ध जाकर कर रहे हैं तो वो दर्शकों के खाने-पीने का सामान ले जाने के अधिकार को बिना किसी नियम-क़ानून के छीन नहीं सकते.
इसी केस की सुनवाई के दौरान सरकार ने आश्वासन दिया था कि वो ये सुनिश्चित करेगी कि सिनेमा देखने वाले नागरिकों के इस अधिकार का उल्लंघन ना हो बल्कि संबंधित नियमों का पालन किया जाए. महाराष्ट्र सरकार ने इसी आश्वासन के मुताबिक़ निर्णय लिया है.
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मल्टीप्लेक्स एसोसिएशन का विरोध
मल्टीप्लेक्स सिनेमा एसोसिएशन इस याचिका का विरोध कर रही थी. उनकी दलील थी कि सिनेमा हॉल मालिक की संपत्ति है. वो खाने-पीने का सामान ले जाने पर रोक लगा सकता है.
उनका कहना है कि जब दर्शक टिकट ख़रीदता है तो वो खाने का सामान और पीने का पानी साथ ले जाने के अधिकार को त्याग देता है.
एसोसिएशन ने सुरक्षा का सवाल भी उठाया. जैनेंद्र बख्शी की ओर से दायर जनहित याचिका की अगली सुनवाई 25 जुलाई 2018 को होनी है. जहां सरकार के फ़ैसले पर मल्टीप्लेक्स सिनेमा एसोसिएशन सवाल उठा सकती है. महाराष्ट्र के बाहर तो अब भी सिनेमा हॉल में महंगा खाना ख़रीदना नियम के मुताबिक़ ही जान पड़ता है.
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क़ानून को ठीक से समझना ज़रूरी
अब नागरिक कैसे जान सकते हैं कि पंजाब में महाराष्ट्र जैसा ही कोई क़ानून लागू होता है या नहीं?
ये जानकारी कहीं नहीं मिली है कि पंजाब सरकार ने भी सिनेमा हॉल में खाना और पानी ले जाने की छूट दे दी है, तो इसका अर्थ यही हुआ कि पंजाब में सिनेमा हॉल में खाना-पानी ले जाने पर रोक नियम अनुसार ही है.
इस मामले में पंजाब सिनेमा रेगुलेशन रूल्स 1952 के नियम 20 के प्रावधान को जानना होगा.
इसके अनुसार जिस बिल्डिंग में सिनेमा हॉल चलाने का लाइसेंस लिया गया है, उस बिल्डिंग का कोई भी हिस्सा फैक्टरी, वर्कशॉप, स्टोरेज या होटल चलाने के लिए इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है. बशर्ते लाइसेंसिंग अथॉरिटी ने इस सब के लिए विशेष लिखित इजाज़त नहीं दी हो.
सिनेमा हॉल जाने वाला हर व्यक्ति जानता है कि हॉल के दरवाज़े पर बाज़ार दर से महंगा पानी मिलता है. मुफ़्त पानी की व्यवस्था दूर कहीं कोने में होती है. इसे ही बेचने की निपुणता का नाम दिया जाता है.
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नागरिकों में जानकारी की कमी
सत्ता और क़ानून का पालन कराने वालों तक पहुंच और पूंजी के सहारे नागरिक अधिकारों को रौंदना मौजूदा बाज़ार नीति का चरित्र बन गया लगता है.
सूचना क्रांति, इंटरनेट व सोशल मीडिया की आंधी के बीच आज भी नागरिकों का छोटी-छोटी जानकारियों से वंचित होना हमारी पूरी व्यवस्था पर भी प्रश्न उठाता है.
व्यवस्था मान लेती है कि क़ानून और नियम सरकारी गजट में छप गए हैं तो नागरिक को भी उनकी सूचना मिल गई है.
जनसंख्या के बड़े हिस्से का अशिक्षित होना, सरकारी गजट तक पहुंच न होना, सूचना क्रांति की बदहाल दिशा और दशा हमारे समाज के सार्वजनिक विमर्श को भटकाती है.
ऐसे में ज़रूरी है कि संस्थान क़ानून और नियम की हर जानकारी अपने उपभोक्ताओं तक पहुंचाए.
इसी तरह सिनेमा हॉल में प्रवेश द्वार और टिकट पर भी दर्शक के अधिकार की जानकारी दी जाए. नियम का उल्लंघन होने पर लाइसेंस रद्द किया जाए.
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