नज़रिया: 2019 में भाजपा की सोशल इंजीनियरिंग कैसी होगी?
इस बारे में अनुमान लगाने के लिए तथ्य के नाम पर हमारे पास हाल में बीजेपी सरकार द्वारा उठाए गए कदम ही हैं. यह तो स्पष्ट है कि बीजेपी 2019 में ओबीसी को अपने खेमे में रखने की पूरी कोशिश करेगी.
ओबीसी कमीशन को संवैधानिक दर्जा देने की वर्षों पुरानी मांग को बीजेपी सरकार ने पूरा किया है. यह एक प्रतीकात्मक काम है और इससे ओबीसी को कोई फायदा नहीं होने वाला है.
बीजेपी अपने मूल आधार सवर्णों के साथ अति पिछड़ी जातियों का समीकरण बनाएगी और एससी-एसटी के एक हिस्से को साथ रखने की कोशिश करेगी. यही बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग-2.0 है.
एक बात अब लगभग स्पष्ट हो चली है कि नरेंद्र मोदी अगले चुनाव को अपने कार्यकाल का रेफ़रेंडम यानी जनमत संग्रह नहीं बनने देना चाहेंगे इसलिए बीजेपी इस बात की चर्चा भी नहीं कर रही है कि 2014 के उसके घोषणापत्र में कौन से वादे किए गए थे और उनका क्या हुआ.
बीजेपी का 2014 का घोषणापत्र और चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी के वादे इस बार विपक्ष के मुद्दे हैं. महंगाई, रोजगार और विकास के मुद्दे पर बीजेपी बहुत मुखर नहीं है. बीजेपी की ओर से अब बात 2024 के लक्ष्यों को लेकर हो रही है.
ओबीसी को साधने की कोशिश
नरेंद्र मोदी ने कहा था कि वे अपने कार्यकाल के आख़िरी साल में राजनीति करेंगे. वह आखिरी साल मई महीने में शुरू हो चुका है.
अगर उनकी ही बात को मान लें तो वे पिछले चार महीने से जो भी कर रहे हैं, उसे राजनीति और चुनाव के नज़रिए से देखा जाना चाहिए.
इस दौरान बीजेपी और सरकार ने समाजिक दृष्टि से कई क़दम उठाए हैं. अगर उन्हें गौर से देखा जाए तो बीजेपी की 2019 की रणनीति को समझने में मदद मिल सकती है.
इस दौरान या इससे कुछ पहले बीजेपी ने जो बड़ी घोषणाएं की हैं या बड़े कदम उठाए हैं उनमें तीन ओबीसी की ओर लक्षित हैं.
पहला, ओबीसी आयोग को संवैधानिक दर्जा देना. दो, ओबीसी को दो या दो से अधिक भागों में बांटने के लिए गठित रोहिणी कमीशन का कार्यकाल नवंबर तक के लिए बढ़ाना और तीन, 2021 की जनगणना में ओबीसी की गिनती को शामिल करना.
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एससी-एससी एक्ट को सरकार ने कमजोर किया
एससी-एसटी को लक्षित करके दो कदम उठाए गए हैं. एक, एससी-एसटी एक्ट को अपने मूल स्वरूप में बहाल करना और सुप्रीम कोर्ट द्वारा इस एक्ट को बदलने वाले फैसले को बेअसर करना और दूसरा, प्रमोशन में आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट में चल रहे केस में एससी-एसटी को प्रमोशन में आरक्षण की वकालत करना.
गौर करने की बात है कि एससी-एसटी एक्ट को मूल स्वरूप में बहाल करने के लिए अलावा बाकी चारो फैसले शासन के पहले वर्ष में किए जा सकते थे. लेकिन सरकार ने चुना कि ये फैसले कब लिए जाने हैं और सरकार की राय यह बनी कि ये फैसले शासन के चौथे साल में ही करने हैं.
एससी-एसटी एक्ट का मामला भी सरकार ने ही यहां तक पहुंचाया है, वरना 1989 से चल रहे इस एक्ट को लेकर इतना हंगामा कभी नहीं हुआ. इस एक्ट से संबंधित एक केस में जब सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार का पक्ष जानना चाहा तो सरकार की ओर से कोर्ट में पेश हुए वकील एडिशन सोलिसिटर जनरल मनिंदर सिंह ने एक्ट को कमजोर करने की जमीन तैयार कर दी.
उन्होंने मान लिया कि एक्ट का दुरुपयोग हो रहा है, जिनके खिलाफ दुरुपयोग हो रहा है उन्हे मदद पहुंचाने के लिए सरकार कुछ नहीं कर सकती और अग्रिम जमानत दी जा सकती है. सुप्रीम कोर्ट ने इसी आधार पर अपना फैसला सुनाया.
सरकार का गणित इसलिए फेल हो गया क्योंकि 2 अप्रैल को इस फैसले के खिलाफ बहुत ही जोरदार भारत बंद हो गया और सरकार के लिए फैसले को बेअसर करने के अलावा कोई उपाय नहीं बचा.
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इस सरकार में प्रमोशन में आरक्षण की संभावना कम
प्रमोशन में आरक्षण पर सरकार बात करती रहेगी, लेकिन बीजेपी इस बात की गारंटी करेगी कि उसके पांच साल के कार्यकाल में किसी भी एससी या एसटी कर्मचारी या अफसर का रिजर्वेशन के आधार पर प्रमोशन न हो.
वैसे भी चुनाव अगर समय से होते हैं तो अगले साल मार्च के आसपास चुनाव की अधिसूचना जारी हो जाएगी. अब से लेकर अगले छह महीने में प्रमोशन में आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट का एससी-एसटी के पक्ष में फैसला आ जाए और सरकार उसे लागू भी कर दे, इसकी संभावना कम ही है.
हालांकि बीजेपी आश्वस्त भी नहीं है कि ऐसा करने से एससी-एसटी की नाराजगी दूर हो जाएगी. जब से केंद्र में बीजेपी की सरकार आई है, जमीनी स्तर पर दलितों और आदिवासियों की नाराजगी अलग अलग तरीके से जाहिर हो रही है.
रोहित वेमुला से लेकर ऊना और डेल्टा मेघवाल से लेकर सहारनपुर तक यह नाराजगी सड़कों पर नजर आई है. आदिवासी पत्थलगड़ी पर पुलिस सख्ती को लेकर नाराज हैं. बीजेपी कभी नहीं चाहेगी कि दलित-आदिवासी उससे इतने नाराज हो जाएं कि वे चुनाव में उस उम्मीदवार की तलाश करने लगे जो बीजेपी को हराए.
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एससी-एसटी को नजरअंदाज करना कितना मुश्किल
जब तक सिर्फ मुसलमान गैर-भाजपावाद पर अमल करते हैं, तब तक बीजेपी को कोई दिक्कत नहीं है. बल्कि यहां तक तो गणित बीजेपी के पक्ष में है. लेकिन कोई भी और सामाजिक शक्ति अगर गैर-भाजपावाद पर अमल करने लगे तो बीजेपी के लिए मुश्किल हो जाएगी.
एससी और एसटी देश के 25.2 फीसदी वोटर है. मुसलमान के बाद अगर इन समुदायों में भी अगर बीजेपी को लेकर नाराजगी या मोहभंग हो जाए, तो बीजेपी मुसीबत में पड़ जाएगी. इसलिए बीजेपी आखिर तक इस बात की कोशिश करेगी कि एससी-एसटी पूरी तरह नहीं भी तो, उसका एक बड़ा हिस्सा बीजेपी के साथ रहे.
लेकिन यह बीजेपी की इच्छा है. ऐसा होना जरूरी नहीं है. अगर यह हो गया तो बीजेपी के पास क्या रास्ता होगा?
इसके लिए बीजेपी एक नए किस्म की सोशल इंजीनियरिंग पर काम कर रही है.
यहां संक्षेप में यह जान लेना आवश्यक है कि सोशल इंजीनियरिंग क्या है और बीजेपी ने इस पर कैसे काम किया है. सोशल इंजीनियरिंग दरअसल राजनीति विज्ञान में इस्तेमाल होने वाला शब्द है जिसका अर्थ उन उपायों से है, जिनका इस्तेमाल करके सरकार या मीडिया या सत्ताएं बड़े पैमाने पर लोगों के विचारों या सामाजिक व्यवहार को बदलने की कोशिश करती है.
वो सोशल इंजीनियरिंग जिसके बदौलत बीजेपी आगे बढ़ी
लेकिन भारत में सोशल इंजीनियरिंग का इस्तेमाल बीजेपी की उस रणनीति के लिए होता है, जिसका इस्तेमाल बीजेपी के तत्कालीन महासचिव गोविंदाचार्य ने बीजेपी का सामाजिक जनाधार बढ़ाने और नए नए समाजिक समूहों को समर्थन हासिल करने के लिए अस्सी और नब्बे के दशक में किया था.
बीजेपी आज जितनी बड़ी पार्टी है, उसके पीछे इस सोशल इंजीनियरिंग का भी योगदान है.
जनसंघ या बीजेपी अरसे तक भारतीय राजनीति में हाशिए की ताकत थी. इसे मूल रूप से उत्तर भारतीय ब्राह्मणों और विभाजन के बाद आए बनियों की पार्टी माना जाता था. हालांकि बाकी समाजिक समूहों के लोग भी उसके साथ थे, जो किसी भी पार्टी में होते हैं.
लेकिन जनसंघ के कोर में ब्राह्मण और बनिए ही थे. उस दौर में ब्राह्मणों के पास कांग्रेस नाम की अपनी पार्टी थी, तो बीजेपी का सामाजिक स्पेस और भी कम था. बनियों के नाम पर भी उसके पास वही लोग थे, जो पाकिस्तान से विस्थापित होकर आए थे.
1977 तक जनसंघ भारतीय राजनीति में कांग्रेस, क्म्युनिस्ट और समाजवादियों के बाद चौथे नंबर की ताकत था. लोहिया के गैर-कांग्रेसवाद ने उसे राष्ट्रीय राजनीति में पैर जमाने का मौका दिया. जयप्रकाश आंदोलन की लहर पर सवार होकर उसने अपनी ताकत बढ़ाई.
जनसंघ 1977 में केंद्र सरकार में भी शामिल हुआ, लेकिन उसकी औकात बहुत ज्यादा नहीं बन पाई. 1977 में भी जनसंघ ब्राह्मण-बनियों की पार्टी का अपना टैग हटा नहीं पाया. जनता पार्टी में विलीन हो चुका जनसंघ जब अलग हुआ तो बीजेपी का गठन हुआ. 1984 में तो कांग्रेस की लहर में बीजेपी लोकसभा में सिर्फ दो सीट जीत पाई थी.
तो इस तरह खुद को स्थापित किया भाजपा ने
बीजेपी की राजनीति में एक बड़ा उछाल 1986 के बाद शुरू हुए राममंदिर आंदोलन से आया. इसी समय बीजेपी ने अपनी पुरानी छवि से आगे बढ़कर खासकर, प्रदेशों में गैर-ब्राह्मण, गैर-बनिया नेतृत्व को उभारना शुरू किया.
उत्तर प्रदेश में इस दौर में कल्याण सिंह, ओम प्रकाश सिंह और विनय कटियार सामने आते हैं. मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान, उमा भारती और बाबूलाल गौर. बिहार में सुशील मोदी और हुकुमदेव नारायण यादव का कद बड़ा किया जाता है तो झारखंड में बाबूलाल मरांडी और अर्जुन मुंडा नजर आने लगते हैं.
खुद नरेंद्र मोदी इसी दौर में सतह पर दिखने लगते हैं. गुजरात में केशुभाई पटेल उभर कर आते हैं. वसुंधरा राजे का कद बढ़ाया जाता है. यह सब जिस योजना के तहत किया गया, उसे ही सोशल इंजीनियरिंग कहते हैं.
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सवाल उठता है कि 2019 में बीजेपी की सोशल इंजीनियरिंग क्या होगी?
इस बारे में अनुमान लगाने के लिए तथ्य के नाम पर हमारे पास हाल में बीजेपी सरकार द्वारा उठाए गए कदम ही हैं. यह तो स्पष्ट है कि बीजेपी 2019 में ओबीसी को अपने खेमे में रखने की पूरी कोशिश करेगी.
ओबीसी कमीशन को संवैधानिक दर्जा देने की वर्षों पुरानी मांग को बीजेपी सरकार ने पूरा किया है. यह एक प्रतीकात्मक काम है और इससे ओबीसी को कोई फायदा नहीं होने वाला है. लेकिन ओबीसी के लिए यह एक भावनात्मक मुद्दा तो था ही.
इसी तरह ओबीसी अरसे से मांग कर रहे थे कि जनगणना में एससी और एसटी की तरह ही बाकी जातियों की गिनती हो और उनसे जुड़े आंकड़े इकट्ठे किए जाएं. बीजेपी ने सभी जातियों की गणना की मांग न मानकर आंशिक रूप से इस मांग को पूरा करने के लिए ओबीसी गणना की बात की है.
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...तो फिर शुरू होगा नया महाभारत
लेकिन बीजेपी जो तीसरा कदम उठा रही है, वह दोधारी तलवार है. बीजेपी ने ओबीसी का आंकड़ा आने से पहले ही ओबीसी के बंटवारे के लिए आयोग बना दिया है. ये आयोग अगर नवंबर में अपनी रिपोर्ट दे देता है तो देश में जातियों को लेकर नया महाभारत शुरू हो जाएगा.
ओबीसी की जिन जातियों को आगे बढ़ा हुआ बताकर उन्हें एक छोटे ग्रुप में समेटा जाएगा, वे जातियां ऐसा किए जाने का आधार मांगेंगी, जो सरकार के पास नहीं है. ऐसे में पिछड़ों की प्रभावशाली जातियां बीजेपी से नाराज हो सकती हैं. लेकिन अति पिछड़ी जातियों को सरकार का ये कदम पसंद आएगा.
बीजेपी देश भर में पिछड़ी जातियों के सम्मेलन कर रही है और उसके नेताओं को खासकर निचले स्तरों पर संगठन में जगह दे रही है.
अगर बीजेपी ओबीसी के बंटवारे के लिए बने रोहिणी कमीशन को चुनाव से पहले रिपोर्ट देने को कहती है और उसकी सिफारिश पर अमल करते हुए ओबीसी को केंद्रीय स्तर पर बांट देती है तो इसका मतलब होगा कि बीजेपी सवर्णों, जिसके वोट को लेकर वह पूरी तरह आश्वस्त है, के साथ अति पिछड़ी जातियों का समीकरण बनाएगी और एससी-एसटी के एक हिस्से को साथ रखने की कोशिश करेगी. यही बीजेपी की नई सोशल इंजीनियरिंग है.
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