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नजरियाः अडल्ट्री कानून पर बदले बदले सरकार नज़र आते हैं, घर की बर्बादी के आसार नज़र आते हैं!

जब मीरा ने गाना शुरू किया 'कुल की कानि...', 'मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई' तब राणा बिस का प्याला भेज कर भी लाचार ही रहे. और जब कृष्ण कन्हैया की मुरली की धुन सुन मगन भई गोपियाँ आधी रात घर से स्वजनों को छोड़ निकल पड़ती तब यह तय करना असंभव हो जाता था कि उनका आकर्षण शारीरिक था या आध्यात्मिक.

भारत के मिथकों पुराणों में ऐसे आख्यानों का अभाव नहीं जिनमें दंड निर्दोष छली गई पत्नी को ही दिया जाता है. इंद्र जब पति का रूप धर अहिल्या को भ्रमित कर सहचरी बनाता है, ऐसा ही प्रसंग है.

By BBC News हिन्दी
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अडल्ट्री कानून
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अडल्ट्री कानून

एक पुरानी कहावत है- 'देख पराई चूपड़ी मत ललचावे जी (जीव)', मगर यहाँ बात रूखी-सूखी रोटी की नहीं वरन पत्नी की हो रही है, जिसे सर्वोच्च न्यायालय ने अपने ऐतिहासिक फ़ैसले से पति परमेश्वर की ग़ुलामी से निजात दिला दी है!

जाने कब से अपनी अकल और दूसरे की ब्याहता सर्वश्रेष्ठ समझने वालों की कमी नहीं रही है. इसीलिए शादी के बाद परपुरुष के साथ रमण को पाप ही नहीं, अपराध भी समझा जाता रहा है.

बाइबिल में जो दस महादेश (कमांडमेंट) दर्ज हैं, उनमें एक अडल्ट्री को गर्हित वर्जित आचरण में शुमार करता है. हिंदू परंपरा में पातिव्रत धर्म की बड़ी महिमा है पर ईसाई और मुसलमान, यहूदी आदि भी इस 'दुराचरण' को दंडनीय अपराध मानते रहे हैं.

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'सेवेंथ सिन' से लेकर 'सिलसिला' तक जैसी फ़िल्मों की कहानी बेवफ़ाई की दास्तान का ही बखान करती हैं. कमांडर नानावती का पुरदर्द अनुभव भी अपनी पत्नी के 'विश्वासघात' से ही उसके प्रेमी की हत्या तक पहुँचाने वाला सिद्ध हुआ.

कुछ लोगों को लगता है कि भारत के पूर्व वायसराय माउंटबेटन की पत्नी की नेहरू के साथ घनिष्ठता इस हसीन गुनाह की सीमारेखा के बहुत पास फिसलती रही थी. विडंबना यह है कि आला अदालत के इस फ़ैसले तक इस जुर्म की शिकायत सिर्फ़ आहत पति या पत्नी ही कर सकते थे. बाक़ी हाल वही था- 'जब मियाँ-बीवी राज़ी तो क्या करेगा क़ाज़ी?'

वैसे हक़ीक़त यह थी कि बेचारी पत्नी या पति कुछ भी करने में असमर्थ रहते थे अगर उनके जीवनसाथी को किसी ताक़तवर प्रेमी ने रिझा लिया हो. 'मेरी बीबी को उसके प्रेमी से बचाओ!' की गुहार लगाने के अलावा वह कर भी क्या सकते थे?

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अच्छे दिन आएंगे?

जब मीरा ने गाना शुरू किया 'कुल की कानि...', 'मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई' तब राणा बिस का प्याला भेज कर भी लाचार ही रहे. और जब कृष्ण कन्हैया की मुरली की धुन सुन मगन भई गोपियाँ आधी रात घर से स्वजनों को छोड़ निकल पड़ती तब यह तय करना असंभव हो जाता था कि उनका आकर्षण शारीरिक था या आध्यात्मिक.

भारत के मिथकों पुराणों में ऐसे आख्यानों का अभाव नहीं जिनमें दंड निर्दोष छली गई पत्नी को ही दिया जाता है. इंद्र जब पति का रूप धर अहिल्या को भ्रमित कर सहचरी बनाता है, ऐसा ही प्रसंग है.

ज़ाहिर है कि अब तक अंधे कानून का पलड़ा पुरुष की तरफ़ ही झुका था और स्त्रियों के समानता के अधिकार का हनन होता था. पर क्या सुप्रीम कोर्ट की इस दहाड़ से पलक झपकते उनके अच्छे दिन आ जाएँगे?

फ़ैसले में साफ़ कहा गया है कि पत्नी के शरीर पर पति का मालिकाना हक नहीं. सरकार की यह दलील ख़ारिज कर दी गई कि इस 'दुराचरण' को दंडनीय जुर्म नहीं रखा गया तो 'विवाह की पवित्र संस्था' ख़तरे में पड़ जाएगी. विवाह सभी धर्मों में इसे पवित्र बंधन नहीं, एक क़रार अनुबंध समझा जाता है.

यह तर्क धर्म निरपेक्ष समाज में अकाट्य नहीं समझा जा सकता. इसके साथ-साथ यह जोड़ने की ज़रूरत है कि एक तर्कीपसंद अदालती फ़ैसले से पितृसत्तात्मक संस्कारों की दक़ियानूस बेड़ियाँ ख़ुद ब ख़ुद नहीं टूटने वाली.

जिस तरह वयस्कों के बीच सहमति से समलैंगिक संबंधों को अब भारत में जुर्म नहीं माना जाता, उसी तरह विवाहेतर शारीरिक संबंध अब निजता के बुनियादी अधिकार के सुरक्षा कवच का संरक्षण प्राप्त कर चुके हैं.

अडल्ट्री कानून-
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क्या अतिआशावादी उतावली नादानी है?

सोचने की बात यह है कि कितने बुनियादी या मानव अधिकार उन सभी नागरिकों की पहुँच में हैं, जो इनके उल्लंघन के शिकार होते हैं? जहाँ कन्या शिशु की भ्रूण हत्या, बलात्कारों से लेकर अंतर्जातीय-अंतर सांप्रदायिक प्रेम विवाह 'ऑनर किलिंग' तक जैसे जघन्य अपराधों को समाज सहज भाव से स्वीकार कर लेता है और इनके अभियुक्तों को सज़ा दिलाने में सरकार की नाकामी हमें यही सोचने को मजबूर कर रही है कि अतिआशावादी होने की उतावली नादानी है.

यह तरक़्क़ी पसंद फ़ैसला शादी की बुनियाद को निश्चय ही कमज़ोर करने वाला है. यह कहना ठीक है कि जब मन ही नहीं मिल रहे तब ज़बरन बदन मिलाते रहने का क्या तुक है? परंतु अगर इसी तर्क को शीर्षासन करा दें तो यह भी सुझा सकते हैं कि बदन तो गौण हैं, मन मिला रहे तो जन्म-जन्म का साथ निभाते रहना चाहिए.

यह भी पढ़ें | अडल्ट्री पर सबसे कड़ा क़ानून कहाँ है

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तन, बदन और मन को इतनी आसानी से अलग किया जा सकता है क्या? अंग्रेज़ी मुहावरा में जिसे सातसाली खुजली कहा जाता है वह वैवाहिक जीवन की ऊब को दूर करने की लंपट छटपटाहट ही तो है.

'दगा-दगा, वोई-वोई' की मीठी खुजली जो फिसलन भरी पगडंडी तक पहुँचा देती है. इस प्रलोभन से बचने में ही भलाई नज़र आती हैं. जितना खुजाएँगे दाद उतना बढ़ेगा. तसल्ली कहाँ होती है? शादी के साथ सेक्स अभिन्न रूप से जुड़ा है और यह कहना मुश्किल है कि इस मिठाई या चाट को मिल बाँट कर खाया पचाया जा सकता है.

तलाक़ के लिए अभी भी परपत्नी या परपुरुष गमन को आधार बनाया जा सकता है. जब ऐसे मुक़दमे अदालत के सामने आएँगे तब निजता का हनन नहीं होगा क्या? अदालत का यह कहना ठीक है कि अविवाहित या विधवा और विधुर के साथ विवाहेतर शारीरिक संबंध अगर अपराध नहीं तो फिर बदफैली के ही साथ नाइंसाफ़ी क्यों. मगर क्या यह विवाह के साथ जुड़े संतान और उत्तराधिकार के क़ानून, आज़ाद मिज़ाज के खुले रिश्तों को क़बूल करने के बाद अक्षत रहेंगे?

बदले बदले हमें सरकार नज़र आते हैं, घर की बर्बादी के आसार नज़र आते हैं!

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English summary
Approach The government appears to have changed instead of the Adulty law the waste of the house is visible
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