ऐप, सेक्स और धोखा, लव कहाँ से लाएँ?
एक दौर था जब सेक्स की तलाश में भटकती पीढ़ी थी अब प्यार की तलाश में नई पीढ़ी परेशान है.
"टिंडर यूज़ किया, 'हैप्पन' यूज़ किया लेकिन मेरे टाइप की लड़की नहीं मिली..." दिल्ली यूनिवर्सिटी (डीयू) में फ़िज़िक्स ऑनर्स कर रहे विकास ने बताया.
"किस टाइप की लड़की चाहिए?" हमारा अगला सवाल था.. "सिंसियर टाइप की चाहिए थी..."
विकास की बात अभी पूरी नहीं हुई थी कि साथ खड़े उनके दोस्त और डीयू में ही पढ़ रहे ललित बोल पड़े, "इन ऐप्स पर आधी से ज़्यादा लड़कियों को सिर्फ़ सेक्स में इंटरेस्ट है.. कोई कमिट नहीं करना चाहती.. वे खुलकर ये बात कहती भी हैं."
विकास और ललित के साथ खड़े उनके चार हमउम्र दोस्तों ने भी हां में हां मिलाई.
उसी सड़क के दूसरे सिरे पर मौजूद एक और कॉलेज के सामने दोस्तों के साथ जूस पी रहे मौर्य की राय भी कमोबेश ऐसी ही है, "आजकल लड़कियां भी बिल्कुल चिल्ड आउट हैं."
बातचीत डीयू कैंपस में हो रही है. सड़क के दोनों तरफ़ एक के बाद एक डीयू के कई मशहूर कॉलेज हैं.
'लव इज़ इन द एयर' के माहौल में हम जानने निकले हैं कि 'टिंडर', 'हैप्पन', 'ग्राइंडर', 'ट्रूली मैडली' वाली आजकल की पीढ़ी प्यार ढूंढने कहां जाती है.
लड़कों की शिकायत है कि डेटिंग ऐप्स वाली ये लड़कियां लॉन्ग टर्म रिलेशनशिप यानी लंबे रिश्तों में दिलचस्पी नहीं दिखातीं, बात कैज़ुअल सेक्स से आगे नहीं बढ़ पाती.
वहीं लड़कियों का कहना है कि लड़के ख़ुद ही वहां 'टाइम पास' करने आते हैं, इमोशनल कमिटमेंट नहीं होता.
एमसीए कर रहीं वैशाली बताती हैं, "किसी भी लड़के को राइट स्वाइप कर दो, एक-दो मैसेज के बाद ही ड्रिंक्स पर बुलाने लगता है."
बाक़ी लड़के-लड़कियों के तजुर्बे भी तक़रीबन ऐसे ही हैं. सुनकर लगा कि शायद ज़्यादा बड़ा सवाल ये है कि ये पीढ़ी प्यार ढूंढ भी रही है या नहीं.
जाने-माने साइकोथेरेपिस्ट डॉक्टर संदीप वोहरा इसका जवाब कुछ इस तरह देते हैं, "असल में, नहीं ढूंढ रही है. और इसकी कई वजहें हैं. तकनीक वरदान भी है और अभिशाप भी. 20 साल पहले जब लड़के-लड़कियां किसी को देखते थे तो सोचते थे कि कैसे बात करूं, कैसे अप्रोच करूं लेकिन आजकल तो सब कुछ इंस्टेंट है".
वे कहते हैं, "ऑप्शन्स की कोई कमी नहीं है. ऐड रिक्वेस्ट भेजो, एक्सेप्ट हुई, तो हुई. नहीं हुई तो भी कोई बात नहीं, और बहुत विकल्प हैं. तकनीक ने रिश्तों की दुनिया में भूचाल सा ला दिया है."
ये सुनकर मुझे अपने एक कॉलीग की कुछ साल पहले कही एक बात याद आई, न्यूज़रूम में खड़े होकर उन्होंने कहा था कि 'बीवी, गाड़ी और मोबाइल के मामले में हमेशा लगता है कि थोड़ा रूक जाते तो बेहतर मॉडल हाथ आता.'
आज के युवा भी शायद कुछ बेहतर ढूंढने में लगे हैं.
सोशल मीडिया के ज़माने में ग़लतफ़हमी और ख़ुशफ़हमी का फ़र्क ख़त्म सा हो गया है.
स्मार्टफ़ोन और एडिटिंग ऐप्स की मेहरबानी से सब अपने-अपने वर्चुअल स्पेस के सितारे हैं. सब ख़ुश नज़र आते हैं और सबकी ज़िंदग़ी ख़ूबसूरत दिखती है.
यही देख-सुनकर बड़े हो रहे युवाओं के सपनों को 'सब्ज़बाग़' बनते देर नहीं लगती.
हर तरफ़ से होती लाइक्स, तारीफ़ों की बारिश और लगातार मिलता अटेंशन किसी के भी दिमाग़ को सातवें आसमान पर पहुंचा सकता है.
ऐसे में 'परीकथा' के पीछे भाग रही सोशल मीडिया वाली पीढ़ी को 'यूं ही' किसी पर 'सेटल' होना, टिकना मुश्किल लगता है.
डॉक्टर वोहरा भी मानते हैं कि सोशल मीडिया एक दोधारी तलवार है, "हर कोई एक वर्चुअल रिएलिटी यानी आभासी असलियत में जी रहा है. हम इसे सोशल मीडिया डिक्टेटेड रिएलिटी कहते हैं जिसमें सपने ही फॉल्स अज़म्पशन यानी दिखावे के आधार पर बुन लिए जाते हैं."
रही-सही कसर डेटिंग ऐप्स ने पूरी कर दी है.
डॉक्टर वोहरा की चिंता डेटिंग ऐप्स के इस्तेमाल पर है, "डेटिंग ऐप्स ने लड़के-लड़कियों के बीच रिश्ते को बहुत आसान बना दिया है. अब कोई हिचक नहीं रही. अब उन्हें समाज के नियमों के हिसाब से नहीं चलना पड़ता. पहले कुछ समय लगता था लेकिन अब तो इनक्यूबेशन पीरियड बिल्कुल ख़त्म हो गया है जिसकी वजह से बहुत सारे विकल्प आपकी मेज़ पर आ जाते हैं जिससे आप और कंफ़्यूज़ हो जाते हैं."
ये कंफ़्यूजन दिख भी रहा है. सभी प्यार ढूंढ रहे हैं और सभी को शिक़ायत है कि कोई कमिट नहीं करता.
समय की कमी भी एक बड़ी वजह है. रिश्ते समय और सब्र मांगते हैं जबकि 'कैज़ुअल सेक्स' फ़टाफ़ट हो सकता है.
पहले काम के घंटे बंधे हुए होते थे. लोग शामें परिवार के साथ बिताते थे लेकिन अब कॉलेज जाने वाले युवा पढ़ाई और करियर की चिंता में लगी है तो गलाकाट मुक़ाबले वाली नौकरियों और स्टार्टअप्स में जुटे लोग दिन का बड़ा हिस्सा दफ़्तर में बिताते हैं, इनमें लड़के और लड़कियां दोनों शामिल हैं. इनसे बचा समय ट्रैफ़िक से जूझने और सोशल मीडिया पर चला जाता है.
ऐसे में किसी रिश्ते को बनाने-बढ़ाने के लिए ईमानदारी से समय देना भी एक बड़ी चुनौती है, समय मिल जाए तो नीयत होनी भी ज़रूरी है.
न्यूक्लियर परिवारों में पले बहुत से बच्चों की दुनिया सिर्फ़ उनके इर्द-गिर्द घूमती है, किसी रिश्ते के लिए समझौते करना, परेशानी उठाना या किसी और की ज़रूरतों को ख़ुद पर तरज़ीह देना उन्हें अखरता है.
डॉक्टर वोहरा भी इस राय से इत्तेफ़ाक़ रखते हैं, "सब अपने बारे में सोच रहे हैं. कोई किसी और के हिसाब से ज़िंदग़ी नहीं जीना चाहता. लड़के हों या लड़कियां, आजकल सभी महत्वाकांक्षी हैं. लड़कियां जान चुकी हैं कि अपने पैरों पर खड़ा होना उनकी पहली प्राथमिकता है. ऐसे में दहेज, शादी, बच्चे, ये उन्हें झमेले भी लग सकते हैं. कभी-कभी यही कमिटमेंट फ़ोबिया को जन्म देता है."
सवाल ये है कि जब ज़िंदगी में सब ठीक चल रहा हो, पैसे और सेक्स दोनों मिल रहे हों, घूमने-फिरने, मिलने-जुलने, सहारा देने के लिए दोस्त हों तो कोई क्यों ज़िम्मेदारियों के चक्कर में पड़े?
इसके सवाल के जवाब में डॉक्टर वोहरा कहते हैं, "अपने आस-पास देखिए. डिप्रेशन, तनाव, चिंता के मामले कितने बढ़ रहे हैं. विज्ञान ने तो सेक्स के लिए इंसानों जैसे दिखने वाले गुड्डे-गुड़िया भी बना दिए लेकिन इसका मतलब ये नहीं कि हम रोबोट की तरह व्यवहार करने लगें. माता-पिता और टीचर्स की भूमिका इसमें अहम है".
डॉक्टर वोहरा की सलाह है कि "माँ-बाप को बच्चों को मोबाइल फ़ोन के ज़रूरत से ज़्यादा इस्तेमाल पर रोक लगानी चाहिए. उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि बच्चों को उसकी लत न लगे. अगर आपका बच्चा जल्दी-जल्दी अपना बॉयफ्रेंड या गर्लफ्रेंड बदलता है तो उससे बात करें, वजह पूछें. टेक्नॉलॉजी और इंसानी रिश्तों में संतुलन बनाए रखना बेहद ज़रूरी है क्योंकि संतुलन बिगड़ने पर युवा बहुत आसानी से नशे के चंगुल में आ जाते हैं."
युवाओं में बढ़ता डिप्रेशन और नशे की लत यक़ीनन हमारे लिए बहुत बड़ी चिंता है. लेकिन इस पर चर्चा फिर कभी.