#Padma Shri: एक घटना जिसने बदली 70,000 कैंसर मरीजों का मुफ्त इलाज करने वाले डॉ. रवि कन्नन की जिंदगी
नई दिल्ली- केंद्र सरकार ने इस साल जिन लोगों को पद्म पुरस्कार देने का ऐलान किया है, उनमें सर्जिकल ओंकोलॉजिस्ट डॉक्टर रवि कन्नन का नाम भी शामिल है। कैंसर के इलाज के क्षेत्र में अनमोल योगदान देने के लिए उन्हें पद्मश्री पुरस्कार देने की घोषणा की गई है। डॉक्टर कन्नन पहले तमिलनाडु में काम करते थे, लेकिन उन्होंने अपनी जिंदगी के अहम 13 साल असम के पिछड़े बराक वैली में गरीब कैंसर मरीजों के इलाज के लिए समर्पित किया है। जो लोग उन्हें जानते हैं या जिन लोगों का उन्होंने इलाज किया है, वह उन्हें धरती पर ईश्वर का ही स्वरूप मानते हैं। लेकिन, कम ही लोगों को यह पता है कि आखिर ऐसा क्या हो गया कि वह चेन्नई में अपनी प्रतिष्ठित करियर को दांव पर लगाकर गरीब कैंसर मरीजों और उनके परिवार की सेवा में अपना जीवन लगा दिया? इस आर्टिकल में डॉक्टर कन्नन से जुड़ी बेहद खास और दिल को छूने वाली बातों को समेटने की कोशिश की गई है।
डॉक्टर रवि कन्नन: एक संक्षिप्त परिचय
सर्जिकल ओंकोलॉजिस्ट डॉक्टर रवि कन्नन की जिंदगी की खास पहलुओं पर गौर फरमाने से पहले उनका एक संक्षिप्त परिचय कर लेना बेहद जरूरी है। वो पहले चेन्नई में काम करते थे, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से वह असम में रह रहे हैं और बराक वैली में 70,000 से ज्यादा कैंसर मरीजों का मुफ्त इलाज किया है। वह सिर्फ कैंसर मरीजों का इलाज ही नहीं करते, उनके ठहरने, खाने-पीने और उनके अटेंडेंट्स के लिए रोजगार का भी इंतजाम करते हैं। उनकी मेहनत और लगन का नतीजा है कि एक ग्रामीण कैंसर सेंटर करीब एक दशक में एक पूर्ण कैंसर अस्पताल और रिसर्च सेंटर के रूप में तब्दील हो चुका है। उन्होंने कैंसर के आसानी से और सुविधाजनक उपचार के लिए कई तरह के सफल इनोवेटिव प्रयोग भी किए हैं। उन्होंने असम के पिछड़े बराक वैली इलाके में लोगों तक स्वास्थ्य सेवाएं उपलब्ध कराने के मकसद से 2007 में चेन्नई में अपनी जॉब छोड़ दी थी और पूरे परिवार के साथ यहां शिफ्ट हो गए थे। उनके आने से पहले बराक वैली से सबसे नजदीकी अस्पताल 300 किलोमीटर दूर था।
बराक वैली की परेशानी समझकर आए थे
स्वास्थ्य सुविधाओं के क्षेत्र में असम की बराक वैली देश की सबसे महरूम इलाकों में शामिल है। डॉक्टर रवि कन्नन पहले चेन्नई के अदयार कैंसर इंस्टीट्यूट में काम करते थे और गेस्ट सर्जन और मोटिवेटर के तौर पर एक बार असम की यात्रा पर आए थे। यहां आने पर उन्हें लगा कि एक डॉक्टर के रूप में उनकी चेन्नई से ज्यादा बराक वैली में जरूरत है। तब उन्होंने 2007 में यहां आने का फैसला कर लिया। शुरू में उनकी पत्नी सीता कन्नन को उनके इस फैसले पर थोड़ी आपत्ति थी। वो खुद यूनाइटेड स्टेट्स इंडिया एजुकेशनल फाउंडेशन के लिए काम करती थीं। उनकी पत्नी की चिंता वाजिब थी। डॉक्टर दंपति की बेटी उस समय पांचवीं में पढ़ती थी और असम में आए दिन उग्रवादी हिंसा की घटनाएं सुनाई देती थीं। जब एक बार सीता असम आईं, तब उन्हें भी महसूस हुआ कि वहां डॉक्टर की जरूरत है और उन्होंने पति के फैसले का साथ दिया।
क्यों लिया बराक वैली शिफ्ट होने का फैसला?
एक इंटरव्यू में डॉक्टर कन्नन ने खुद बताया है कि पहले यहां के कैंसर मरीजों के मन में एक धारणा थी कि यह लाइलाज बीमारी है, इसलिए इसके इलाज पर ज्यादा खर्च करने का कोई फायदा नहीं है। लेकिन, वे कैंसर मरीजों को बताना चाहते थे कि इसका भी उपचार है। वह नहीं चाहते थे कि उपचार के अभाव में कैंसर के किसी मरीज की मौत हो जाए। उनके मुताबिक बराक वैली के लोगों की लाइफस्टाइल ऐसी है कि उनके कैंसर की गिरफ्त में आने की आशंका काफी ज्यादा रहती है। मसलन, वे तंबाकू, सुपारी और शराब का बहुत ज्यादा इस्तेमाल करते हैं। उन्होंने पाया था कि कैंसर के प्रति वहां लोगों में जागरुकता की भी काफी कमी थी। जैसे ही किसी को कैंसर का पता चलता था लोग असहाय महसूस करते थे और उनकी कोशिश होती थी कि वह बीमारी को छिपा लें।
कैसे बदली डॉक्टर रवि कन्नन की जिंदगी?
दरअसल, डॉक्टर रवि कन्नन की जिंदगी में एक ऐसी घटना घटी, जिसके बाद उन्होंने तय कर लिया कि यहां के लोगों को तब तक कैंसर का इलाज नहीं मिल सकता जब तक कि इसके लिए उनके पास उनके सहयोग के लिए लिए एक पूरा इंफ्रास्ट्रक्चर मौजूद न हो। डॉक्टर साहब के मुताबिक कैंसर ऐसी बीमारी है, जो एक बार डॉक्टर से मुलाकात से ठीक नहीं हो सकती। इसके लिए रोगी को बार-बार लगातार डॉक्टर के संपर्क में रहना पड़ता है। एक बार एक मरीज इनके पास आया और इलाज के 5,000 रुपये देकर लौटा तो फिर कभी वापस नहीं आया। जबकि, कैंसर के इलाज के लिए फॉलोअप बहुत ही जरूरी है। बाद में उन्हें पता चला कि उस मरीज ने जो 5,000 रुपये इलाज के लिए दिए थे, उसकी एवज में उसने एक अमीर आदमी के हाथों अपने बेटे को बेच दिया था। इस भयावह अनुभव ने उनकी जिंदगी बदल दी। उन्होंने किसी तरह से उस इंसान को उसका बच्चा वापस दिलाया और फिर गरीबों के इलाज के लिए क्रांतिकारी उपाय की शुरुआत कर दी।
मरीज का इलाज, अटेंडेंट को रोजगार
बच्चा बेचने की घटना ने डॉक्टर रवि की सोच बदल दी थी। उन्होंने अपने अस्पताल में मरीजों के तीमारदारों के लिए अपने ही अस्पताल में रोजगार की व्यवस्था शुरू करवाई। इस काम में कई स्थानीय समूहों और सरकार से भी उन्हें मदद मिली। उनके अस्पताल में मरीजों से टेस्ट के लिए 500 रुपया लिया जाता है और फिर पूरी जिंदगी मुफ्त इलाज किया जाता है। इसका नतीजा ये हुआ कि फॉलोअप के लिए आने वाले मरीजों की संख्या में बेतहाशा इजाफा होता चला गया। आज की तारीख में करीब 70 फीसदी मरीज पूरा इलाज करवाते हैं और 90 फीसदी मरीज फॉलोअप के लिए पहुंचते हैं। आज उनके अस्पताल में देश में मौजूद किसी भी स्टैंडर्ड कैंसर इंस्टीट्यूट की तरह की गुणवत्ता वाला इलाज मौजूद है। डॉक्टर रवि को आज भी याद है कि पहले मरीज के परिजन कैसे उबला हुआ चावल और हरी मिर्च खाकर रहने और जमीन पर सोने को मजबूर थे, क्योंकि तब यहां ऐसी कोई व्यवस्था ही नहीं थी। इसलिए मरीज फॉलोअप के लिए आते ही नहीं थे।
बराक वैली में क्या आया बदलाव?
2007 में जब डॉक्टर रवि कन्नन अपने परिवार के साथ चेन्नई से बराक वैली शिफ्ट हुए थे, तब वहां एक छोटी सी कछार कैंसर हॉस्पिटल सोसाइटी थी, जो वित्तीय और डॉक्टरों की संकट झेल रही थी। आज की तारीख में इस अस्पताल में सालाना 20,000 मरीजों का इलाज हो रहा है, मरीजों के तीमारदारों के लिए रोजगार पैदा किया जा रहा है, मरीजों को मुफ्त और उनके परिवार वालों को मामूली कीमतों पर खाना उपलब्ध कराया जा रहा है। यही वजह है कि जब डॉक्टर रवि को पद्मश्री दिए जाने की घोषणा हुई तो कैंसर से छुटकारा पा चुके एक प्रोफेसर जयदीप बिश्वास ने अपने फेसबुद वॉल पर लिखा, 'हालांकि मैंने कभी भगवान को नहीं देखा है, मैं जानता हूं कि भगवान कछार कैंसर हॉस्पिटल में रहते हैं।' खुद को पद्मश्री दिए जाने के ऐलान पर रवि कहते हैं कि इससे निश्चित ही उत्साह बढ़ता है, लेकिन हमारा लक्ष्य यही है कि कैंसर के हर मरीज को इलाज मिले। डॉक्टर रवि की दूरदर्शिता की वजह से आज करीमगंज, हैलाकांडी और दीमा हसाओ जिले में सैटेलाइट क्लीनिक के जरिए इलाज की सुविधा उपलब्ध है।
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