राम नाम जोड़ने या भगवा पोतने से आंबेडकर बीजेपी के नहीं हो जाएँगे
आंबेडकर पर दलितों के सिवा किसी का कोई हक़ नहीं, रत्ती भर भी नहीं, सिर्फ़ दलित ही कह सकते हैं कि आंबेडकर उनके हैं, किसी और के पास आंबेडकर को अपना कहने का कोई नैतिक आधार नहीं है, चाहे कांग्रेसी हों, समाजवादी या वामपंथी.
आंबेडकर के सबसे नए वाले भक्तों को तो बिल्कुल नहीं, जो उन्हें पहले राम नाम से पवित्र करके, उनका रंग बदलकर
आंबेडकर पर दलितों के सिवा किसी का कोई हक़ नहीं, रत्ती भर भी नहीं, सिर्फ़ दलित ही कह सकते हैं कि आंबेडकर उनके हैं, किसी और के पास आंबेडकर को अपना कहने का कोई नैतिक आधार नहीं है, चाहे कांग्रेसी हों, समाजवादी या वामपंथी.
आंबेडकर के सबसे नए वाले भक्तों को तो बिल्कुल नहीं, जो उन्हें पहले राम नाम से पवित्र करके, उनका रंग बदलकर, फिर उनकी गोद में बैठना चाहते हैं.
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कुछ दिनों पहले कहा कि उनकी पार्टी ने आंबेडकर को जितना मान दिया है उतना किसी और ने नहीं दिया, आंबेडकर को 'मान देने' का अवार्ड ख़ुद लेने वाले पीएम की पार्टी के आधा दर्जन दलित सांसद चिट्ठी लिखकर गुहार लगा रहे हैं कि उनके राज में दलितों के साथ ज्यादती हो रही है.
ये कहना ढोंग ही है कि आंबेडकर पूरे देश के हैं, हमारे संविधान निर्माता हैं, महान विभूति हैं. इस देश की अधिकतर ग़ैर-दलित आबादी ने आंबेडकर का सच्चे दिल से कभी आदर नहीं किया है, और आज भी नहीं करती है. देख तो रहे हैं हम कि उनकी जितनी प्रतिमाएँ बनती हैं, उतनी ही तोड़ी जाती हैं.
आंबडेकर की प्रतिमाएँ तोड़े जाने पर उन लोगों के मुँह से कभी आह तक नहीं निकलती जो उन पर माल्यार्पण करते हैं. ये कैसा सम्मान है? आंबडेकर का इतना ही सम्मान है तो देश में तमिलनाडु से लेकर यूपी तक, आंबेडकर की मूर्तियाँ पिंजरों में बंद क्यों करनी पड़ीं?
दरअसल, आरएसएस या बीजेपी आंबेडकर को जितना चाहें 'मान दें दें' लेकिन जिन विचारों की प्रखरता आंबेडकर को महान बनाती है, उन पर चर्चा करना हिंदुत्व से जुड़े किसी भी व्यक्ति के लिए अत्यंत कष्टकर हो जाता है. 2016 में आंबेडकर की 125वीं जयंती बहुत धूमधाम से मनाने वाले आरएसएस ने एक बात का सबसे पुख़्ता इंतज़ाम किया कि आंबेडकर के विचार किसी तरह लोगों तक न पहुँच जाएँ.
आंबेडकर हिंदू धर्म के सबसे प्रखर और कटु आलोचक हैं, उन्होंने बौद्ध धर्म अपनाया, हिंदू देवी-देवताओं को मानने से इनकार किया, उनके नाम में राम जोड़ने वाले जानते होंगे कि उन्होंने राम और कृष्ण को अवतार मानने से इनकार कर दिया था, उन्होंने हिंदू ग्रंथों का हवाला देते हुए बताया था कि प्राचीन काल में ब्राह्मण गोमांस खाते थे, उन्होंने सभी हिंदू शास्त्रों को दलितों के शोषण का औजार बताया, वे राष्ट्रवादी न होकर, शुद्ध न्यायवादी थे.
अत्याचारों की जड़ में ब्राह्मणवादी हिंदू धर्म
ऐसे आंबेडकर को गौरवशाली हिंदू परंपरा में अगाध श्रद्धा रखने वाले राष्ट्रवादी सच्चा सम्मान कैसे दे सकते हैं, या तो उनकी धार्मिक आस्था सच्ची है या फिर आंबेडकर का आदर, दोनों एक साथ सच नहीं हो सकते.
याद करने की कोशिश कीजिए कि ख़ुद को जातिवाद विरोधी कहने वाली हिंदुत्ववादी ताक़तों ने कब दलितों पर हुए किसी अत्याचार की पुरज़ोर निंदा की, कब ये खुलकर माना कि दलितों के साथ अत्याचार हुआ है, अगर मानना भी पड़ा तो कब स्वीकार किया कि ये अत्याचार किन लोगों ने किए. आंबेडकर बिना किसी लीपापोती के ये बताते हैं कि इन अत्याचारों की जड़ में ब्राह्मणवादी हिंदू धर्म है.
संघ से जुड़े संगठनों और आंबेडकर के बीच सामंजस्य बिठाने की कहीं, क़तई कोई गुंजाइश है ही नहीं लेकिन बीजेपी है कि आंबेडकर को भी मैनेज कर लेने की कोशिश में है, इस दुस्साहस की वाक़ई दाद देनी होगी.
नितांत एकाकी योद्धा जिसने धर्म के पहाड़ हिलाए
बड़ौदा के राजा की मदद से आज़ादी से पहले समाजशास्त्र और अर्थशास्त्र में, अमरीका और ब्रिटेन से दोहरा डॉक्टरेट पाने वाले आंबेडकर की प्रतिभा को इस देश ने कभी नहीं सराहा. संविधान निर्माण का क्रेडिट उन्हें देना पड़ा लेकिन उनके बाक़ी क्रांतिकारी विचारों को पूरे हिंदू समाज ने मिल-जुलकर तकरीबन एक ख़ामोश साज़िश के तहत दफ़न कर दिया क्योंकि उनको मानने का मतलब वर्ण व्यवस्था को छोड़ना होता जो हिंदू धर्म का आधार है.
'एनाइलेशन ऑफ़ कास्ट', 'रिड्ल्स ऑफ़ हिंदुइज़्म' और 'हू वेयर शूद्राज़...' असल में वे महाग्रंथ हैं जिनका नाम हमें किसी स्कूल, कॉलेज में, कोर्स में, किसी प्रोफ़ेसर ने नहीं बताया क्योंकि इन किताबों में बहुत सारी बातें हैं जो हिंदू समाज की बुनियादी मान्यताओं को तार्किक चुनौती देती हैं, हमें बताती हैं कि धर्म के नाम पर जाति को, जाति के नाम पर अन्याय को कैसे स्वीकार्य बनाया गया.
आज भी आंबेडकर की झूठी जय-जयकार करने वाले लोग नहीं जानते कि उन्होंने अन्याय को धार्मिक मान्यता देने की साज़िश पर कितनी ज़ोरदार चोट की थी, बिल्कुल अकेले सिर्फ़ अपनी पढाई-लिखाई और तार्किक बुद्धि के बूते. अगर जानते भी हैं तो आंबेडकर के लिखे-कहे पर कोई बात नहीं होती क्योंकि वह चुभने वाला है, आंबेडकर हिंदुओं को 'एक बीमार समाज' कहते थे जिसे उनकी नज़र में इलाज की ज़रूरत थी.
आंबेडकर ने अपना जीवन 'दलितों की आज़ादी' के लिए लड़ने में लगाया, वे स्वतंत्रता सेनानी नहीं थे बल्कि उन्हें डर था कि अँगरेज़ों के जाने के बाद 'हिंदू भारत' में दलितों का जीना और मुश्किल हो जाएगा, उन्होंने खुलकर हिंदू राष्ट्र के ख़तरों के प्रति आगाह किया था.
गांधी से गहरे मतभेद
गांधी छूआछूत ख़त्म करने का अभियान चलाते थे, ये जो आज दलितों के घर ज़मीन पर बैठकर खाना खाने का करतब दिखाने वाले लोग हैं, वे गांधी के पुराने आइडिया से दलितों का दिल जीतने की कोशिश कर रहे हैं, गांधी चाहते थे कि वर्ण व्यवस्था बनी रहे लेकिन अस्पृश्यता ख़त्म हो जाए, इस मामले में भाजपा पूरी तरह गांधीवादी है.
आंबेडकर मानते थे कि वर्ण व्यवस्था के मूल में ही शोषण-दमन है इसलिए वह साथ खाने से या सामाजिक मेल-जोल से ख़त्म नहीं होगा, वे वर्ण व्यवस्था का ही ख़ात्मा चाहते थे जिसका मतलब था कि हिंदू धर्म उस रूप में नहीं रह सकता जैसा सदियों से रहा है, ऐसे में सिवा दलितों के, उन लोगों को आंबेडकर की बातें क्यों पसंद आतीं जो इस व्यवस्था के चलते पीढ़ी-दर-पीढ़ी बेज़ा फ़ायदे में रहे हैं.
गांधी और नेहरू उनका असम्मान करते हों इसकी कोई मिसाल तो नहीं मिलती बल्कि आंबेडकर देश के पहले न्याय मंत्री थे, लेकिन ये ज़रूर है कि नेहरू ने आंबेडकर या उनके विचारों को कोई ख़ास अहमियत दी हो ऐसा भी नहीं दिखता.
आज़ाद भारत में आंबेडकर को उनका सही स्थान किसी ने कभी स्वेच्छा से नहीं दिया है, यह उनको मानने वाले लोगों के संघर्ष का रंग है कि आज राष्ट्रीय स्तर पर आंबेडकर पर बात हो रही है.
आंबेडकर का नहीं, दलितों की राजनीतिक ताक़त का सम्मान
वो तो भला हो कांशीराम का, अगर वे दलितों को राजनीतिक ताक़त नहीं बनाते तो आज भी कोई आंबेडकर का नाम लेने वाला न होता.
जैसे-जैसे दलित आंबेडकर के सबसे बड़े योगदान आरक्षण की वजह से सशक्त हुए हैं वैसे-वैसे आंबेडकर का मोल बढ़ा है, इसलिए नहीं कि वे महान थे, महान तो वे थे ही, लेकिन मोल इसलिए बढ़ा कि उन्हें महान मानने वालों का विश्वास जीतना अब राजनीतिक मजबूरी बन चुकी है.
कांग्रेस ने दलितों और ब्राह्मणों को लंबे समय तक एक साथ साध लिया था, मुसलमान भी उसे अपनी पार्टी मानते थे और गांधी की विरासत बेचकर दशकों तक काम चल गया, आंबेडकर की ज़रूरत ही नहीं पड़ी, साठ-सत्तर के दशक में बड़ी हुई पीढ़ी ने आंबेडकर का नाम शायद ही कभी सुना क्योंकि तब तक कोई कांशीराम नहीं था दलितों को ये नहीं समझाने के लिए कि तुम्हारे वोट की क़ीमत उतनी ही है जितनी किसी ज़मींदार या पुजारी की.
डॉक्टर बीआर आंबेडकर अन्याय के भयावह अंधकार के ख़िलाफ़ एकाकी संघर्ष का नाम है, उनका मर्म न तो गांधीवादियों ने समझा, न वामपंथियों ने, न किसी और ने. आंबेडकर ने दलितों के दमन-शोषण और अत्याचार की सामाजिक स्वीकृति, उसे हिंदू धर्म की वर्णाश्रम व्यवस्था से मिलने वाली वैधता पर तीख़े सवाल उठाए.
इसी अन्याय को ज़्यादातर लोग संस्कृति, सामाजिक व्यवस्था और धर्म मानते रहे थे, इसे ईसा मसीह की पैदाइश से पहले कभी गौतम बुद्ध ने चुनौती दी थी, बीच-बीच में कबीर, रैदास, बाबा फ़रीद, नानक जैसे अनेक संत बताते रहे कि ये जात-पात फर्जी हैं, फिर आए आंबेडकर जिन्होंने वेद-पुराणों का गहन अध्ययन करने के बाद, इन्हीं बातों को तर्कों और तथ्यों की नई धार दी.
आंबेडकर और गांधी के बीच अलग दलित इलेक्टोरेट के सवाल पर जो टकराव था उसके बारे में पढ़ना आँखें खोलने वाला है कि डॉक्टर आंबेडकर और गांधी की सोच कितनी अलग थी, अलग इलेक्टोरेट के मामले में गांधी ने आमरण अनशन शुरू कर दिया और दबाव में आंबेडकर को 1932 में पूना पैक्ट पर हस्ताक्षर करना पड़ा.
आंबेडकर चाहते थे कि संसद में दलितों के नुमाइंदे चुनने के लिए केवल दलित वोट डालें और चुने गए लोग दलितों के मुद्दों को आगे बढ़ाएँ लेकिन पूना पैक्ट में इसे खारिज कर दिया गया, पैक्ट के तहत दलितों के लिए सीटें रिज़र्व हो गईं जहाँ गैर-दलित चुनाव नहीं लड़ सकते थे लेकिन वोटर सामान्य थे, आंबेडकर का मानना था कि ऐसे सांसद प्रभावी नहीं होंगे और आगे चलकर ये सही साबित हुआ.
इसकी मिसाल भाजपा के सांसद छोटेलाल खैरवार हैं जिन्होंने साफ़ शब्दों में कहा है--"मुख्यमंत्री मुझे डाँटकर भगा देते हैं, सांसद हुआ तो क्या हो गया, रहूँगा तो दलित ही."
कांग्रेस अक्सर कहती थी कि वह दलितों की हितैषी है इसलिए उसने एक दलित व्यक्ति डॉ केआर नारायणन को राष्ट्रपति बनवाया है, अब बीजेपी रामनाथ कोविंद के बारे में यही दावा करती है, मगर ये एहसान करने की अदा दिखावे से ज्यादा कुछ नहीं है जिसे अंगरेज़ी में 'टोकनइज़्म' कहा जाता है.
गांधी सवर्ण हिंदुओं के जिस हृदय परिवर्तन की बात करते थे, वो अभी तक नहीं हो पाया है. अमित शाह के नेतृत्व वाली भारतीय जनता पार्टी में एक भी राष्ट्रीय स्तर का पदाधिकारी दलित नहीं है जबकि पार्टी के अपने संविधान के तहत अनुसूचित जाति के कम-से-कम तीन लोग पदाधिकारी होने चाहिए.
बात बस इतनी-सी है कि आंबेडकर की कौन कितनी इज्जत कौन करता है, इसका फैसला भी दलित ही करेंगे जिनके आंबेडकर हैं, मूर्तियों पर माला चढ़ाना तो सबकी मजबूरी है.
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