अखिलेश यादव के, 'क्या भाई चाचा?' को 'हां भाई भतीजा' बोल पाएंगे शिवपाल यादव
बेंगलुरू। सपा सुप्रीमो अखिलेश यादव और पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी में दो बातें बड़ी बहुत कॉमन हैं। यूपी के दोनों लड़कों और युवराजों के कंधों पर एक तरफ जहां राजनीतिक विरासत बचाने का दवाब है, दूसरी तरफ दोनों के कंधों पर पुश्तैनी राजनीतिक जमीन का बोझ भी बेताल की तरह लटका हुआ है।
इनमें सबसे दिलचस्प यह है कि यूपी के दोनों लड़कों द्वारा राजनीति में फेंके गए उनके पाशे कभी सीधे नहीं पड़े। इसे अखिलेश यादव और राहुल गांधी की कुंडली का दुर्लभ संयोग ही कहेंगे कि दोनों अपनी मां के एकलौते पुत्र हैं। दोनों ऐसे राजनीतिक दल के आखिरी चिराग हैं, जो इतिहास बनने की ओर अग्रसर हैं।
कमोबेश दोनों पार्टियों की हालत भी एक जैसी है, क्योंकि दोनों ही पार्टियों के पारंपरिक वोटर्स पूरी तरह से छिटक चुके हैं और उनकी वापसी भगीरथ प्रयासों से ही संभव होगी।अखिलेश यादव और राहुल गांधी के बीच एक और अद्भुत समानता है और वो है चुनाव दर चुनाव चुनावी पराजय का।
एक ओर राहुल गांधी हैं, जो लोकसभा चुनाव 2014 से 2019 तक हार का रिकॉर्ड पार्टी के नाम दर्ज करा चुके हैं और दूसरी ओर अखिलेश यादव है, जिनकी सरपरस्ती में पार्टी लोकसभा चुनाव 2014 से लेकर लोकसभा चुनाव 2019 के अंतराल में तैरना तक सीख नहीं पाई है।
अखिलेश यादव के हालिया बयानों पर गौर कीजिए। अखिलेश यादव चाचा शिवपाल यादव की घर वापसी का सपना देख रहे है। अखिलेश यादव भूल रहे हैं कि जब वो पिता और सपा संस्थापक मुलायम सिंह यादव का तख्तापलट कर रहे थे तब भी चाचा शिवपाल यादव उनके साथ खड़े थे। आज भी मुलायम सिंह यादव का आशीर्वाद शिवपाल यादव को हासिल हैं, इसलिए लगता नहीं है कि शिवपाल यादव की सपा में घरवापसी अखिलेश के लिए आसान रहने वाली है।
सपा में अखिलेश यादव की राजनीतिक यात्रा की औपचारिक शुरूआत वर्ष 2003 में हुई जब अखिलेश यादव पहली बार फिरोजाबाद से सांसद चुने गए। समाजवादी पार्टी वर्ष 2012 में हुए यूपी विधानसभा चुनाव में 224 सीट गई और युवा दवाबों के बीच सपा सुप्रीमो को अखिलेश यादव को महज 38 वर्ष की उम्र यूपी की कमान सौंपनी पड़ी। अखिलेश की राजनीतिक समझ और अपरिपक्वता का भान मुलायम सिंह को पहले से ही था।
जुलाई 2012 में सपा सुप्रीमो ने अखिलेश यादव की कार्यक्षमता पर सवाल भी उठा दिए। मुलायम ने अखिलेश सरकार के कामकाज और कार्यक्षमता की आलोचना करते हुए उनमें व्यापक सुधार का सुझाव दिया। सपा सुप्रीमो के मुंह से यह बात निकली तो जनता में यह सन्देश गया कि सरकार तो उनके पिता और दोनों चाचा चला रहे हैं, अखिलेश नहीं? माना जाता है उसके बाद से ही अखिलेश यादव सपा को चलाने की असफल कोशिश में बर्बाद की कगार पर ले आ पहुंचे हैं।
अखिलेश यादव की राजनीतिक समझ और काबिलियत का नमूना ही था जब वर्ष 2019 लोकसभा चुनाव में सपा-बसपा का गठबंधन हुआ। यहां एक बात ध्यान देने वाली यह है कि पार्टी के संस्थापक मुलायम सिंह यादव बसपा के साथ गठबंधन से बिलकुल नहीं थे। उत्तर प्रदेश की राजनीति को जमीन से समझने मुलायम सिंह यादव हकीकत पहले भी भांप गए थे। दरअसल उत्तर प्रदेश में दोनों ही पार्टियां एक तरह से मुख्य प्रतिद्वंदी रही हैं।
जातिगत राजनीति करने वाली इन दोनों पार्टियों का कॉडर भी एक दूसरे को पसंद नहीं करता था। लेकिन अखिलेश को लगता था कि सपा और बसपा का वोट बैंक मिलकर बीजेपी को पीछे छोड़ सकता है। हालांकि उनका यह अंदाजा काफी हद तक गोरखपुर, फूलपुर और कैराना में सही साबित हुआ था. लेकिन लोकसभा चुनाव में अनुभवी मुलायम सिंह का अंदाजा सही साबित हुआ।
अखिलेश यादव 2019 लोकसभा चुनाव में ही फेल नहीं हुए बल्कि 2014 में भी बुरी तरह फेल हुए थे जब उन्होंने कांग्रेस के साथ गठबंधन करके लोकसभा चुनाव साथ-साथ लड़ा था और अखिलेश यादव की दूरदर्शिता की कमी ही कहेंगे कि जनता ने वर्ष 2012 विधानसभा चुनाव में अकेली लड़ी सपा बहुमत सौंपकर सत्ता पर बिठाया था, उसी यूपी जनता ने वर्ष 2017 में हुए यूपी विधानसभा चुनाव में बुरी तरह उठाकर पटक दिया। वर्ष 2012 में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व में सपा को कुल 224 विधानसभा सीटों पर प्रचंड जीत मिली थी।
वर्ष 2012 विधानसभा चुनाव में सपा के पक्ष में कुल 29.29 फीसदी वोट शेयर हासिल हुए थे, लेकिन वर्ष 2017 में हुए कांग्रेस के साथ गठबंधन करके यूपी विधानसभा चुनाव में उतरी सपा को महज 47 सीटों पर जीत दर्ज कर पाई। उसका वोट शेयर भी गिरकर 21.8 पर पहुंच गया। सपा के वोट शेयरिंग में करीब 8 फीसदी की कमी दर्ज की गई, जिसका कारण कांग्रेस के साथ सपा का गठबंधन था, क्योंकि 114 सीटों पर लड़ी कांग्रेस को सिर्फ 6.2 फीसदी वोट ही मिला था।
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