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अकबर इलाहाबादी जिन्होंने अंग्रेज़ों की नौकरी करते हुए उनके ख़िलाफ़ जमकर लिखा

अकबर इलाहाबादी ने अपनी पहली ही ग़ज़ल से अपने पढ़ने-सुनने वालों को अपना दीवाना बना लिया था. पश्चिमी शिक्षा के बारे में अकबर की शिकायत थी कि वो इंसान को उदार न बनाकर केवल नौकरी पाने का एक ज़रिया बनाती है.

By BBC News हिन्दी
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अकबर इलाहाबादी
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अकबर इलाहाबादी

अकबर इलाहाबादी ने अपनी पहली ही ग़ज़ल से अपने पढ़ने-सुनने वालों को अपना दीवाना बना लिया था. 21 साल की उम्र में अपने पहले मुशायरे में उन्होंने दो लाइनें कही थीं-

समझे वही इसको जो हो दीवाना किसी का

अकबर ये ग़ज़ल मेरी है अफ़साना किसी का

इसके बाद अकबर इलाहाबादी ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा. बड़ी ही सहजता और हल्के-फुल्के अंदाज़ में बड़ी बात कह जाने का हुनर अकबर के पास था.

उर्दू शायरी में अकबर पहले शख्स थे जिनको बदलते हुए ज़माने, उस ज़माने से अपने सांस्कृतिक मूल्यों के लिए ख़तरा और अंग्रेज़ी तालीम को अंग्रेज़ी साम्राज्य के ताक़तवर हथियार होने का एहसास शिद्दत से था.

अकबर 1846 में पैदा हुए थे यानी महात्मा गांधी से 23 साल और अल्लामा इक़बाल से 31 साल पहले. इन दोनों की पढ़ाई यूरोप में हुई थी.

उन्होंने यूरोप और उसकी तहज़ीब और शिक्षा को बहुत नज़दीक से देखा था, लेकिन अकबर ने मुल्क से बाहर जाए बग़ैर इस तहज़ीब और शिक्षा के नुक़सान को समझा.

पश्चिमी शिक्षा के बारे में अकबर की पहली शिकायत ये थी कि वो इंसान को उदार न बनाकर केवल नौकरी पाने का एक ज़रिया बनाती है. तभी तो उन्होंने लिखा था--

नई तालीम को क्या वास्ता है आदमीयत से

जनाब-ए-डार्विन को हज़रते-आदम से क्या मतलब

अकबर इलाहाबादी
Rajkamal Prakashan
अकबर इलाहाबादी

आधुनिक शिक्षा और अंग्रेज़ी के ख़िलाफ़

सैयद मोहम्मद अक़ील अपने लेख 'दीन होता है बुज़ुर्गों की नज़र से पैदा’ में लिखते हैं, "अकबर आधुनिक शिक्षा और विचारधारा के ज़बरदस्त विरोधी थे और चूँकि ये दोनों चीज़ें अंग्रेज़ी ज़बान के रास्ते ही हासिल हो रही थी, इसलिए वो अंग्रेज़ी के भी विरोधी हो गए, लेकिन वो महज़ लोगों के विचारों का प्रतिनिधित्व कर रहे थे."

अकबर कहते थे कि नई तालीम हमें सिर्फ़ बाज़ार का माल बना देती है. वे लिखते हैं--

तालीम जो दी जाती है वो क्या है फ़क़त बाज़ारी है

जो अक्ल सिखाई जाती है वो क्या है फ़क़त सरकारी है

अकबर इलाहाबादी की बदलती हुई दुनिया में सिर्फ़ उन चीज़ों के नुकसान का दर्द नहीं , जो खो गईं थीं.

अंग्रेज़ों के मातहत हिंदुस्तानी जब उनकी व्यवस्था का हिस्सा बने तो उन्होंने वफ़ादारी के जोश में अंग्रेज़ के भी कान काट लिए और देसी अफ़सर विदेशी से बढ़ कर ज़ुल्म-पसंद निकला–

तहमद में बटन जब लगने लगे जब धोती से पतलून उगा

हर पेड़ पे एक पहरा बैठाकर हर खेत में एक क़ानून उगा

रेलगाड़ी, छापेखाने और नए अविष्कारों के ख़िलाफ़

अकबर की रचनाओं का वो भाग आधुनिक समालोचकों के लिए सबसे अधिक नाराज़गी का कारण बना जहाँ वो नल के पानी, छापाख़ाने और रेलगाड़ी जैसी चीज़ों के आविष्कार को रद्द करते हुए नज़र आते हैं, लेकिन ग़ौर से देखें तो अकबर का विरोध तरक़्की के इन नए माध्यमों के विरुद्ध नहीं था.

दरअसल, वो उनका विरोध इसलिए कर रहे थे क्योंकि उनकी नज़र में ये नई चीज़ें ग़ुलामी का प्रतीक थीं और ज़िंदगी की बेहतरी के नाम पर ये तब्दीलियाँ हिंदुस्तानी जीवन-शैली और तहज़ीब को तबाह करने का काम कर रही थीं.

अकबर को या उस ज़माने में शायद किसी को भी रेलगाड़ी के इतिहास के बारे में कुछ मालूम न रहा होगा, लेकिन अकबर ने तब भी लिखा, इंजन या रेलगाड़ी सिर्फ़ साम्राज्यी ताक़तों के फैलाव का ज़रिया ही नहीं, बल्कि देश के माहौल को बिगाड़ने का भी हथियार है, उन्होंने लिखा--

मशीनों ने किया नेकों को रुख़सत

कबूतर उड़ गए इंजन की पीं से

आज जिसे 'स्टॉकहोम सिन्ड्रम’ कहा जाता है अकबर ने उसे क़रीब 100 साल पहले ही पहचान लिया था. इसका मतलब था मजबूरी की वो अवस्था जहाँ क़ैदी को अपने क़ैद कर लेने वाले से ही लगाव पैदा हो जाता है.

यहाँ तक कि क़ैद हुआ शख़्स ख़ुद अपने क़ैद करने वाले को और ख़ुद को एक ही समझ कर उसके साथ अपने को जोड़ लेता है.

अकबर कहा करते थे कि ये हालत आज इस तरह मौजूद है कि पश्चिम के लोग एशिया का शोषण कर रहे हैं और एशिया के लोग उन्हीं पर कुर्बान हुए जा रहे हैं--

मिटाते हैं वो हमको तो अपना काम करते हैं

मुझे हैरत तो उन पर है जो इस मिटने पे मरते हैं

उर्दू के हास्य-व्यंग्य साहित्य में ऊँचा मुक़ाम

मशहूर उर्दू लेखक शम्सुर्रहमान फ़ारूख़ी ने अपनी किताब 'अकबर इलाहाबादी पर एक और नज़र’ में लिखा, "मैं अकबर को उर्दू के पाँच या छह सबसे बड़े शायरों में शुमार करता हूँ और दुनिया के हास्य व्यंग्य साहित्य में अकबर का मुक़ाम बहुत बुलंद समझता हूँ."

"मेरा ख़्याल है कि अकबर के साथ इंसाफ़ नहीं किया गया, सतही तौर पर पढ़कर ये फ़ैसला ले लिया गया कि वो एक दकियानूसी शख़्स थे."

उर्दू के मशहूर व्यंग्यकार मुज्तबा हुसैन लिखते हैं, "हास्य-व्यंग्य अपनी प्रवृत्ति के लिहाज से हंगामी और वक्ती होती है और मौजूदा हाल से उसका संबंध क्षणिक होता है."

"यही वजह है कि वक़्त गुज़र जाने पर हास्य और व्यंग्य के बेमिसाल काम भी फीके पड़ जाते हैं और कुछ तो बिल्कुल ख़त्म और मुर्दा हो जाते हैं. लेकिन इसके बावजूद ये समझना कि हास्य-व्यंग्य की शायरी में कोई भी ताकत और मज़बूती नहीं होती ग़लत है."

मशहूर लेखक आले अहमद सुरूर ने लिखा है, "नई पीढ़ी अकबर के आर्ट की सुंदरता से अब भी लुत्फ़ ले सकती है और मज़े की बात तो ये है कि शायद जिन पर उनका वार सबसे घातक है वही उनके लिखे से ज़्यादा लुत्फ़ उठाते हैं. यही शायर का इनाम है."

अकबर इलाहाबादी
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अकबर इलाहाबादी

निजी और राजनीतिक मान्यताओं में विरोधाभास

उर्दू साहित्य में अकबर की लोकप्रियता कम होने की एक वजह उनके निजी जीवन और राजनीतिक मान्यताओं के बीच विरोधाभास भी था.

शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी लिखते हैं, "अपने शेर में तो अकबर खुद को तमाम अंग्रेज़ी तौर-तरीक़ों का सख़्त दुश्मन जाहिर करते हैं, लेकिन वो ख़ुद अंग्रेज़ी राज के एक वरिष्ठ पदाधिकारी थे."

"उन्हें इस बात पर भी गर्व था कि टॉमस बर्न जो एक ज़माने में उत्तर प्रदेश के चीफ़ सेक्रेट्री थे, उनका बहुत लिहाज़ करते थे."

"अंग्रेज़ों से सख़्त नफ़रत के बावजूद अकबर ने अपने बेटे इशरत हुसैन को उच्च शिक्षा के लिए लंदन भेजा था और उनकी रज़ामंदी से वो यूपी की सिविल सर्विस में बतौर डिप्टी कलक्टर शरीक हुए थे."

शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी
Facebook/Shamsur Rahman Faruqi
शम्सुर्रहमान फ़ारूक़ी

जज बनकर रिटायर हुए

अकबर इलाहाबादी का जन्म 16 नवंबर, 1846 को इलाहाबाद के पास बारा गाँव में हुआ था. शुरू में वो नौकरी की तलाश में बहुत भटके. फिर वो जमुना पुल के निर्माण के समय पत्थरों की नाप-जोख के मुंशी बन गए.

बाद में उन्हें नकलनवीस की नौकरी मिल गई. वर्ष 1867 में वो नायब तहसीलदार बन गए. उससे इस्तीफ़ा देकर उन्होंने हाइकोर्ट में काम किया.

सन् 1873 में उन्होंने वकालत की परीक्षा पास की. उसके बाद उन्होंने सात साल तक इलाहाबाद, गोरखपुर, आगरा और गोंडा में वक़ालत भी की.

सन 1880 में वो मुंसिफ़ हो गए और तरक्की पाते-पाते वो ज़िला जज के पद तक पहुंच गए. जस्टिस एकमन के रिटायर होने के बाद उनका हाइकोर्ट में जज होना भी तय था, लेकिन तभी उनकी आँखों की रोशनी कम होने लगी.

इसलिए वो समय से पहले पेंशन लेकर इलाहाबाद की कोतवाली के पीछे अपनी आलीशान कोठी इशरत महल में रहने चले गए.

गौहर जान के लिए शेर

एक बार कलकत्ता की मशहूर गायिका गौहर जान इलाहाबाद आईं तो वो अकबर इलाहाबादी से मिलने गईं.

अकबर साहब ने उनसे कहा, "पहले मैं जज हुआ करता था. अब रिटायर होकर सिर्फ़ अकबर रह गया हूँ. मेरी समझ में नहीं आ रहा कि मैं आपको कौन सा तोहफ़ा पेश करूँ."

उसी मुलाकात में उन्होंने गौहर जान पर शेर लिख कर उनके हाथों में पकड़ा दिया था-

ख़ुशनसीब आज भला कौन है गौहर के सिवा सब कुछ अल्लाह ने दे रखा है शौहर के सिवा

गौहर जान
WATERMAN'S ART CENTRE
गौहर जान

ख़ुद पर हँसने की कला

ब्रिटिश हुकूमत ने उन्हें सन 1898 में 'ख़ान बहादुर’ के ख़िताब से नवाज़ा.

जीवन के अंतिम वर्षों में महात्मा गांधी, देश की आज़ादी और हिंदू मुस्लिम एकता में अकबर की दिलचस्पी पहले से ज़्यादा बढ़ गई थी उन्होंने इन विषयों पर अपने विचार एक लंबी नज़्म में व्यक्त किए.

सर सैयद अहमद के दिल में अकबर के लिए इतना आदर था कि उन्होंने अकबर की नियुक्ति अलीगढ़ में करा ली थी ताकि वो उनकी संगत का जी भर आनंद ले सकें.

सर सैयद अहमद ख़ां
ALIGARGH MUSLIM UNIVERSITY
सर सैयद अहमद ख़ां

अंग्रेज़ हुकूमत में अकबर जिन-जिन सरकारी पदों पर रहे वो उन्हें इतनी छूट नहीं देते थे कि वो व्यवस्था का सीधा विरोध कर सकें.

और अपने समय के शासन की विसंगतियों और विडंबनाओं पर सीधे-सीधे प्रतिक्रिया व्यक्त कर सकें इसलिए उन्होंने व्यंग्य का रास्ता अपनाया.

एक बार अकबर से मिलने कोई आया जिसने अपने विज़िटिंग कार्ड पर अपने नाम के साथ बीए जोड़ रखा था.

अकबर ने एक शेर उस विज़िटिंग कार्ड के पीछे लिखकर कार्ड वापस कर दिया--

शेख़जी घर से न निकले और ये फ़रमा दिया

आप बीए पास हैं , बन्दा भी बीबी पास है

किसी बड़े व्यंग्यकार की एक ख़ूबी ये भी होती है कि वो दूसरों पर ही नहीं. खुद अपने पर भी हँसना जानता है.

ये ख़ूबी भी अकबर की शायरी में देखने को मिलती है जब अकबर कहते हैं--

शेख़ साहब ख़ुदा से डरते हो, मैं तो अँग्रेज़ से ही डरता हूँ

वो अपने व्यंग्य की ज़द में ख़ुद अपने को भी आने का मौका देने में चूकते नहीं.

यहाँ ये बता दें कि अकबर ख़द अंग्रेज़ी निज़ाम की नौकरी में थे और ऐसा होने की मजबूरी उन्हें महसूस न होती रही हों, ऐसा नहीं है.

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English summary
Akbar Allahabadi who wrote fiercely against the British
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