कृषि कानून और किसान आंदोलन: जानिए भारत में क्यों नहीं खत्म हो सकती है एमएसपी?
नई दिल्ली। राष्ट्रपति की मुहर के बाद पूरे देश में लागू नए प्रावधानों वाले कृषि कानून 2020 में न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी एक महत्वपूर्ण कड़ी बनकर उभरी है, जिसको आधार बनाकर किसान आंदोलन के लिए सड़कों पर उतर चुका है। किसानों को आशंका है कि नए कृषि कानूनों में कृषकों द्वारा उपजाई गई फसलों को एमएसपी पर बेचने की सुविधा समाप्त हो जाएगी। यह बात किसानों के जह्न में कैसे आई, यह राजनीतिक विषय हो सकता है, लेकिन वास्तविकता यह है कि 140 करोड़ आबादी वाले कृषि प्रधान देश भारत में एसएसपी से छेड़छाड़ संभव ही नहीं हैं।
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प्रधानमंत्री मोदी खुद कई मंचों पर एमएसपी को लेकर सफाई दे चुके हैं
गौरतलब है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद कई मंचों पर एमएसपी को लेकर सफाई दे चुके हैं कि कृषि कानून में एमएसपी के प्रावधानों से छेड़छाड़ नहीं की गई है, लेकिन दिल्ली पहुंचने पर अमादा हरिय़ाणा और पंजाब के किसान हैं कि मान नहीं रहे हैं। मोदी सरकार की ओर से गृह मंत्री अमित शाह ने बाकायदा बातचीत के लिए किसानों को आह्वान किया। कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर आंदोलनरत किसानों से हर मुद्दे पर बातचीत के लिए तैयार है, लेकिन किसानों का नेतृत्व कर रहा यूनियन और यूनियन को ट्रिगर करने वाले राजनीतिक दल नए कृषि कानूनों को रद्द किए जाने से कम पर राजी ही नहीं हैं।
सवाल है कि किसानों में एमएमपी खत्म होने का डर किसने बैठाया है।
बड़ा सवाल है कि किसानों में एमएमपी खत्म होने का डर किसने बैठाया है। उससे भी बड़ा सवाल यह है कि एमएसपी खत्म होने की आशंका से हरियाणा और पंजाब के किसान ही क्यूं इतना आंतकित हैं, जबकि पूरा देश लगभग शांत होकर तमाशबीन बना हुआ है। पंजाब और हरियाणा के किसानों में एमएसपी खत्म करने को लेकर डर स्वाभाविक है, क्योंकि पंजाब और हरियाणा के किसान आज भी पुराने ढर्रे वाली किसानी पर कायम है और प्रत्येक वर्ष धान और गेंहू की फसल लेकर एमएसपी पर उन्हें बेचकर फारिक हो जाते हैं, जबकि इन दोनों राज्यों से इतर अन्य राज्यों के किसान अब नकदी फसल पर जा चुके हैं।
एमएसपी को लेकर किसानों को डर है उनकी फसलों को कौन खरीदेगा?
राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली को चारों ओर से घेरकर आंदोलन कर रहे पंजाब और हरियाणा के किसानों को डर है कि अगर एमएसपी के प्रावधान को खत्म कर दिया गया तो हर साल बड़ी मात्रा में पैदा होने वाली उनकी फसलों को कौन खरीदेगा। यहां यह जानना जरूरी है कि नए कृषि कानून में एमएसपी से कोई छेड़छाड़ नहीं की गई है अलबत्ता किसानों को मंडी से इतर और एमएसपी से इतर निजी कंपनी को भी अपनी उपज बेचने के लिए छूट दे दी है। यानी अब किसानों की मंडी पर निर्भरता समाप्त कर दी है और अपनी फसल देश के किसी भी कोने में बैठे खऱीदार को बेच सकते हैं।
हिंदुस्तान में आज भी 76 करोड़ लोगों को प्राथमिक आय को स्रोत खेती है
जहां तक बात एमएसपी खत्म करने की आशंकाओं की बात है तो यह समझ लीजिए कि 140 करोड़ आबादी वाले हिंदुस्तान में जहां आज भी 76 करोड़ लोगों को प्राथमिक आय को स्रोत किसानी है, वहां एमएसपी कैसे खत्म हो सकती है। यह इसलिए मुमकिन है, क्योंकि सरकारी राशन की दुकानों के जरिए गरीबों को मुफ्त अथवा सस्ती दरों पर अनाज पहुंचाने वाली सरकार एमएमसपी की दर पर ही किसानों से अनाजों को खऱीद कर उसे गरीबों और जरूरतमंदों को वितरित करवाती है। कोरोना महामारी के दौरान करीब 80 करोड़ जरूरतमंदों को एमएसपी पर खऱीदकर गोदामों में रखे गए अनाजों को दिया गया था।
क्या एमएमसपी खत्म करने का जोखिम कोई सरकार ले सकती है?
सोचने वाली बात है कि क्या एमएमसपी खत्म करने का जोखिम कोई सरकार ले सकती है, क्योंकि पीडीएस के जरिए सरकार हर महीने करोड़ों गरीबों और जरुरतमंदों को राशन मुहैया करा रही है। अगर सरकार ने एमएसपी पर अनाज खऱीदने की व्यवस्था बंद करती है, तो किसानों से सरकार अनाज कैसे खऱीदेगी। इसलिए यह व्यवस्था खत्म होने वाली है, यह सवाल ही बेमानी है, जो विशुद्ध रूप से राजनीतिक दलों द्वारा फैलाया झूठ के अलावा कुछ नहीं हैं। सरकार पीडीएस के लिए कम से कम 6 महीनों तक का अनाज किसानों से खऱीद कर स्टोर करती है, जो आपात जरूरतों के लिए स्टोर किए जाते हैं।
गरीबों को मुफ्त अनाज देने के लिए एमएसपी पर खऱीदना अनिवार्य है
लोकतांत्रिक राष्ट्र में जन कल्याणकारी योजनाओं के मद्देनजर सरकार गरीबों को मुफ्त अनाज देने के लिए एमएसपी पर खऱीदना अनिवार्य कड़ी है। पीडीएस के अलावा सरकार को एमएसपी पर अनाज खरीदने की जरूरत लागू राइट टू फूड कानून की वजह से भी करनी पड़ती है। राइट टू फूड के तहत सरकार गरीबी रेखा से नीचे रहने वाले लोगों को मुफ्त अनाज देने की जिम्मेदारी है, इसके लिए सरकार को किसानों से ही अनाज खऱीदती है। उपरोक्त तथ्यों की रोशनी में कम से कम हिंदुस्तान में सरकारों द्वारा एमएमसपी के प्रावधानों से छेड़छाड़ करने की बात हजम होने लायक नहीं है।
एमएमसपी खत्म नहीं करने की बात सरकार देश की संसद में कह चुकी है
एमएमसपी खत्म नहीं करने की बात सरकार देश की संसद में कह चुकी है। सरकार के मुताबिक उसकी एमएमसी खत्म करने की कोई योजना नहीं हैं और कोई भी सरकार संसद में कही गई बात या किए गए वादों से नहीं मुकरती है। अगर ऐसा होता है तो ऐसी सरकारों के खिलाफ कानूनी मुकदमा भी चल सकता है और सरकारें गिर भी सकती है। हालांकि यह बात संसद के बाहर भी मोदी सरकार के कई मंत्री कई बार दोहरा चुके है, लेकिन राजनीतिक हो गया किसान आंदोलन सरकार से बातचीत के बजाय कृषि कानून को रद्द करने की जिद कर रही है, जिसमें एमएसपी से छेड़छाड़ से जिक्र तक नहीं हैं।
एमएसपी पर फसल बेचने वाले किसानों की संख्या महज 6 फीसदी है
उल्लेखनीय है आंकड़ों पर गौर करेंगे तो पाएंगे कि जिस एमएसपी को लेकर सड़कों पर सरकार के खिलाफ खड़े होकर किसान नारे लगा रहे हैं, उस एमएसपी पर फसल बेचने वाले किसानों की संख्या महज 6 फीसदी है और 94 फीसदी किसान एमएसपी से कम कीमत पर अपनी फसल बेचते हैं। यह आंकड़ा बताता है कि किसान कृषि कानूनों को लेकर नहीं, बल्कि राजनीतिक दलों द्वारा फैलाई गई आशंकाओं को लेकर सड़कों पर खड़े किए गए हैं, क्योंकि किसी भी हालत में एमएसपी पर फसल बेंचने पर लाभ की स्थिति में रहने वाले किसानों का डरना स्वाभाविक है।
भारत सरकार वर्तमान में 23 फसलों को एमएमसपी पर खऱीदती है
भारत सरकार वर्तमान में 23 फसलों को एमएमसपी पर खऱीदती है, लेकिन इनमें मुख्य फसल गेहूं और धान है, जो हरियाणा और पंजाब के किसानों द्वारा आंख बंद कर पैदा किया जाता है, क्योंकि वो दूसरी अन्य फसल उगाते ही नहीं है और अपनी फसल एमएसपी पर सरकार को बेचने की उनकी सबसे अधिक निर्भरता है, जिससे वो राजनीतिक दलों की फैलाई गई आशंकाओं के सबसे अधिक शिकार हुए हैं, जबकि देश के अन्य हिस्सों में लोग मिश्रित और नकदी खेती करने लग गए हैं। दिलचस्प बात यह है कि नए कृषि कानून में अब मंडी के अलावा बड़े व्यापारियों को अनाज बेचने का विकल्प खुल गया है।
अभी भारत में एमएसपी को संवैधानिक गारंटी का दर्जा हासिल नहीं है
हालांकि अभी भारत में एमएसपी को संवैधानिक गारंटी का दर्जा हासिल नहीं है, लेकिन फिर भी सरकार किसानों से अपनी जरूरत से अधिक मात्रा में हर साल फसल खऱीदती है। लंबे समय से इस बात की मांग की जा रही थी कि सरकार एमएमसपी को संवैधानिक दर्जा दे, लेकिन भारत में अब हुए 15 प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल में यह मांग जहां का तहां बना रहा है। कांग्रेस, जो एमएमसी खत्म करने की आशंकाओं के बीच शुरू हुए किसान आंदोलन का समर्थन कर रही है, उसने भी अपने 54 साल के शासन काल में एमएमसी को संवैधानिक दर्जा देने की कोशिश नहीं की।
MSP के संवैधानिक दर्ज के लिए पूर्व PM चौधरी चरण सिंह ने भी कुछ नहीं किया
यहां तक कि 1979 से 1980 के बीच देश के प्रधानमंत्री रहे चौधरी चरण सिंह ने अभी अपने कार्यकाल में एमएसपी को संवैधानिक दर्जा दिलाने की पहल नहीं की है, जबकि वो किसानों के बड़े नेता थे। अब हालत यह है कि कांग्रेस समेत सभी राजनीतिक दल एमएसपी को संवैधानिक दर्जा दिलाने की मांग को लेकर भी संघर्षरत है, जिन्होंने पिछले 73 सालों में उसके लिए खुद कुछ नहीं किया। इस सबके बीच में किसान लगातार कमजोर हुआ, जिसकी परवाह किसी सरकार को नहीं रही और साल कर्ज में डूबे हजारों किसान आत्महत्या तक करनी पड़ जाती है।