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कृषि क़ानून: ज़्यादा ज़मीन-कम पैदावार, क्या करें किसान कि फ़सल लहलहा उठे

चीन भारत से कम ज़मीन पर खेती करता है लेकिन इससे अधिक फ़सल उपजाता है. पर भारत में दुनिया के कई देशों की औसत पैदावार से कम उपज होती है. यह तस्वीर कैसे बदलेगी?

By ज़ुबैर अहमद
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भारतीय किसान
DIPTENDU DUTTA
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कृषि एक टीमवर्क है. इसमें खेत जोतने वाला किसान भी शामिल है, बिजली देने वाली और क़ानून बनाने वाली सरकार और निजी क्षेत्र के कारोबारी भी, जो किसी कृषि उत्पाद का वैल्यू एडिशन यानी मूल्य संवर्धन करते हैं. इस टीम में कृषि उत्पाद बेचने वाला बाज़ार भी शामिल है और उपभोक्ता भी, जो इन्हें खरीदता है.

भले ही भारत में इस टीम के खिलाड़ी कितने भी नाक़ाबिल क्यों न हों, लेकिन इन सबने मिल कर देश को खाद्यान्न के मामले में आत्मनिर्भर ही नहीं बल्कि 'फू़ड सरप्लस' वाला देश बना दिया है.

गेहूँऔर चावल के मामले में तो फू़ड सरप्लस की स्थिति है ही. साल 1950 में खाद्यान्न पैदावार पाँच करोड़ टन थी और आज 50 करोड़ टन है. यह कोई छोटी उपलब्धि नहीं है.

इसके बावजूद भारत में फसलों की औसत पैदावार दुनिया के कई देशों की औसत पैदावार से कम है.

कई फसलों के मामले में हमारे यहाँ प्रति हेक्टेयर या एकड़ उत्पादन दुनिया के दूसरे देशों की तुलना में कम है. अमेरिका के बाद हमारे यहाँ सबसे ज्यादा खेती की ज़मीन है, लेकिन फ़सल उत्पादन अमेरिका से चार गुना कम है.

चीन भारत से कम ज़मीन पर खेती करता है लेकिन इससे अधिक फसल उपजाता है.

कृषि अर्थशास्त्री प्रोफ़सर अशोक गुलाटी ने इस बारे में बीबीसी को बताया, "चीन के पास हमसे कम ज़मीन है. उसकी 'ग्रॉस लैंड होल्डिंग साइज़' भी भारत से छोटी है. हमारे पास 1.08 हेक्टेयर की लैंड होल्डिंग साइज़ है, जबकि उसके पास महज .67 हेक्टेयर की. लेकिन उनका कृषि उत्पादन हमसे तीन गुना ज़्यादा है.''

''ऐसा इसलिए क्योंकि वो रिसर्च और डेवलपमेंट पर ज़्यादा खर्च करते हैं. वहाँ की खेती में विविधता है. किसान जो निवेश करते हैं, उस पर सब्सिडी मिलती है. हमें उनसे सीखना चाहिए. "

भारत की खेती को लेकर अच्छी बात यह है कि यह चाहे तो अपने फसलों की पैदावार दोगुनी कर सकता है. लेकिन ख़राब बात यह है कि अगर एग्रीकल्चर चेन से जुड़े सभी खिलाड़ी अपनी भूमिका अदा करते हैं तो भी इस लक्ष्य को हासिल करने में एक या दो पीढ़ियाँ बीत जाएंगीं.

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NOAH SEELAM
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पैदावार इतनी कम क्यों?

भारत में जो खेती होती है उसमें हर चीज एक दूसरे से जुड़ी हुई है. खेती के लिए मानसून और सिंचाई का पानी दोनों चाहिए.

इसके लिए कुशल जल प्रबंधन की ज़रूरत पड़ती है ताकि सूखे और बाढ़ का सामना किया जा सके और बेहतर तरीके से सिंचाई हो.

मिट्टी बढ़िया होनी चाहिए. इसे पोषक तत्वों की ज़रूरत होती है. तभी अच्छी जुताई होती है. अच्छी मिट्टी के लिए माकूल मौसम चाहिए.

मौसम अच्छा हो तभी मिट्टी की ऊपरी परत पर सूक्ष्म जीव पैदा होते हैं. अगर मिट्टी की ऊपरी परत बढ़िया होगी तो मिट्टी का क्षरण कम होगा और फसलों में पोषण भी भरपूर होगा.

कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि तमाम वजहों से यह कृषि चेन कई जगहों से टूट जाती है. इन्हें जल्द से जल्द आपस में जोड़ने की ज़रूरत है.

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Frank Bienewald
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मिट्टी की भी एक ज़िंदगी होती है

कृषि वैज्ञानिकों का कहना है कि भारत में खेती की 40 फ़ीसदी ज़मीन की मिट्टी को नुकसान पहुँच चुका है और इसकी भरपाई में लंबा समय लग जाएगा.

मिट्टी के क्षरण से इसकी उपज क्षमता कम हो जाती है. अवैज्ञानिक तरीके से खेती, एक ही मिट्टी का बार-बार इस्तेमाल, पानी की बर्बादी, जंगलों की कटाई और रासायनिक खादों के बहुत अधिक इस्तेमाल से मिट्टी की ऊपरी परत को नुकसान पहुँचता है.

अमेरिका की ओहायो स्टेट यूनिवर्सिटी में काम करने वाले भारतीय मूल के मशहूर मृदा वैज्ञानिक डॉक्टर रतन लाल का कहना है कि मिट्टी की भी एक जिंदगी होती है और हमें इसे सँवारना पड़ता है.

इस साल का 'वर्ल्ड फू़ड प्राइज़' जीतने वाले डॉक्टर लाल को अब 'फू़ड लॉरेट' भी कहा जाता है.

उन्होंने बीबीसी से बातचीत में कहा, "मिट्टी एक एक जीवित इकाई है. उपजाऊ मिट्टी में 'जीवित पदार्थ ' होते हैं हैं. जैसे-कीटाणु और जीवित ऑर्गेनिज्म. जैसे हम हैं, वैसी ही मिट्टी भी है. मिट्टी को भी भोजन चाहिए.''

मिट्टी को पशुओं के मल-मूत्र, खर-पतवार या खेत में छोड़ दी गई फसलों के सड़ने से भोजन मिलता है. हालाँकि खर-पतवार, खेत में छोड़ दी गई फसल या पराली जलाने से अच्छा है (पराली से दिल्ली में वायु प्रदूषण की समस्या काफ़ी बढ़ जाती है) कि खेत को जोतते समय इन चीज़ों को मिट्टी में मिला दिया जाए."

डॉक्टर लाल 75 साल के हैं. 60 के दशक में वह पंजाब से अमेरिका चले गए थे. उनका इस बात में गहरा यक़ीन है कि मिट्टी, पौधों, पशुओं का स्वास्थ्य और पर्यावरण एक हैं. इन्हें अलग नहीं किया जा सकता.

उनका कहना है कि मिट्टी पर्यावरण के लिहाज से बेहद ज़रूरी काम करती है. जैसे बारिश के पानी को बरकरार रखने जैसा काम. यह भूजल को प्रदूषित होने से बचाने के लिए फ़िल्टर की तरह काम करती है.

मिट्टी में जैव पदार्थों का स्तर तीन से चार फ़ीसदी से होना चाहिए. लेकिन उत्तर भारत के राज्यों की मिट्टी में जैव पदार्थ .2 फ़ीसदी ही है.

डॉक्टर लाल कहते हैं, "मिट्टी में जैव तत्वों की लगभग पूरी तरह अनुपस्थिति से न सिर्फ़ फसलों की पैदावार कम हुई बल्कि इनमें 'माइक्रो न्यूट्रिएंट्स' भी घटे हैं.''

डॉक्टर लाल की रिसर्च बताती है कि बढ़िया यानी पोषक मिट्टी में फसल उगाना फ़ायदेमंद साबित होता है. क्योंकि कम ज़मीन में ही ज़्यादा फसल होती है. पानी भी कम लगता है. सिंचाई कम करने की ज़रूरत होती है इसलिए डीजल या बिजली की खपत भी कम होती है. इसके साथ ही रासायनिक खाद भी थोड़ा ही लगता है.

डॉक्टर लाल कहते हैं, "भारत में मिट्टी क्षरण एक गंभीर समस्या है. यहाँ की मिट्टी में जैव तत्व काफ़ी कम हैं. इसलिए जब बहुत बारिश होती है तो बाढ़ आ जाती है और जब बारिश नहीं होती है तो सूखा पड़ जाता है. "

संयुक्त राष्ट्र के एक अध्ययन के मुताबिक़ उपजाऊ मिट्टी के तौर पर ऊपरी 2.5 सेंटीमेंट की परत तैयार होने में 500 साल लग जाते हैं लेकिन यह एक ही दशक में नष्ट हो सकता है.

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कोई फौरी हल नहीं

डॉक्टर लाल का कहना है कि भारत की मिट्टी को इसके स्वाभाविक उपजाऊ स्तर तक पहुँचने में एक या दो पीढ़ियाँ लग जाएंगीं. भारत में प्रति हेक्टेयर कृषि पैदावार 2.1 टन है. अगर हम अपनी मिट्टी की सेहत बरकरार रख पाएं तो यह दोगुनी हो सकती है.

वो कहते हैं, "मैंने 1980 के दशक में अपनी मिट्टी को उपजाऊ बनाने की कोशिश में लगे कई चीनी वैज्ञानिकों को ट्रेनिंग दी थी. अब उन्होंने अपने यहाँ की मिट्टी को सेहतमंद बना कर यह लक्ष्य हासिल कर लिया है."

किसान शक्ति संघ के अध्यक्ष पुष्पेंद्र सिंह डॉक्टर लाल से सहमत लगते हैं लेकिन उनका कहना है कि पंजाब और हरियाणा के खेतों में कुछ न्यूट्रिएंट्स वापस चले जाते हैं.

वो कहते हैं "हम धान और गेहूँ के बीच कई किस्मों की दालें उगाते हैं. ये मिट्टी को काफ़ी पोषक तत्व देती हैं. हम इसके खर-पतवार और बची फसलों को मिट्टी में मिला देते हैं. इससे यूरिया कम लगता है."

लेकिन पुष्पेंद्र सिंह यह भी मानते है कि इतना काफ़ी नहीं है.

वो कहते हैं, ''डॉक्टर लाल की थ्योरी बिल्कुल सही है. लेकिन मिट्टी में दोबारा उसका पुराना उपजाऊपन लौटा लाना काफ़ी खर्चीला काम है.''

पुष्पेंद्र सिंह का मानना है कि किसानों से इसका ख़र्चा उठाने की उम्मीद नहीं करनी चाहिए. इसका खर्चा सरकार को उठाना चाहिए.

वो कहते हैं, "पहले हम एक फसल लेने के बाद कुछ ज़मीन परती छोड़ देते थे. लेकिन आज दो या इससे ज़्यादा फसल लेनी पड़ती है क्योंकि खेती की लागत काफ़ी बढ़ गई है. अगर सरकार दूसरी फ़सल की कीमत हमें दे तो हम सिर्फ एक फ़सल की खेती करें. लेकिन क्या सरकार के पास इसके लिए बजट है?''

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मानसून पर टिकी सिंचाई

भारत में आधी खेती बारिश पर निर्भर है. मानसून अच्छा रहा तो पैदावार ज़्यादा होती है और ख़राब रहा तो यह घट जाती है. यूएन की एक हालिया स्टडी में कहा गया है कि देश में पिछले 60 साल में दो करोड़ 20 लाख कुएं खोदे गए.

देश के कई हिस्सों में पानी के लिए बहुत गहरी खुदाई करनी पड़ती है. पश्चिमी भारत में 30 फ़ीसदी कुएं बगैर इस्तेमाल के छोड़ दिए गए हैं क्योंकि ये पूरी तरह सूख चुके हैं. कई राज्यों में तो भूजल स्तर ख़तरनाक स्तर तक नीचे जा चुका है. राजस्थान और गुजरात में रेगिस्तान का इलाका बढ़ता जा रहा है.

वैज्ञानिक इन दिनों जल प्रबंधन पर काफ़ी जोर दे रहे हैं. वो छिड़काव और 'ड्रिप इरिगेशन' (बूंदों के ज़रिए होने वाली सिंचाई) की ज़ोरदार सिफ़ारिश कर रहे हैं.

इसराइल में सिंचाई का यह तरीका काफ़ी सफलतापूर्वक इस्तेमाल होता है. सिंचाई की इन तकनीकों का विकास भी इसराइल में ही हुआ है. इसमें कम पानी के इस्तेमाल से ही ज़्यादा पैदावार होती है.

ड्रिप इरिगेशन काफ़ी कारगर है. इससे बहुत अच्छे तरीके से फसलों तक पानी और पोषक तत्व पहुंचते हैं. इतना ही नहीं, सीधे पौधों की जड़ों वाले इलाकों में सही मात्रा और सही समय पर पानी और न्यूट्रिएंट्स पहुंचते हैं.

इस सिंचाई से पौधों को किस वक्त क्या चाहिए उस हिसाब से यह मिल जाता है. लिहाजा, उनकी ज़्यादा से ज़्यादा बढ़त होती है.

पंजाब में भूजल स्तर काफ़ी नीचे गिरता जा रहा है क्योंकि यहाँ धान की खूब खेती होती है. धान एक ऐसी फसल है, जिसे खूब पानी चाहिए.

गन्ने और सोयाबीन को भी काफ़ी पानी चाहिए. धान की खेती के लिए खेत को पानी से भरा होना चाहिए लेकिन ड्रिप इरिगेशन से पानी बचाने में मदद मिलती है.

भारत में एक दशक पहले ड्रिप इरिगेशन शुरू हुई थी लेकिन भारत में जितनी ज़मीन में खेती होती है, उसका महज चार फ़ीसदी हिस्से को ही यह कवर करती है.

पुष्पेंद्र सिंह कहते हैं ड्रिप इरिगेशन अच्छी तकनीक है लेकिन यह धान की सिंचाई के लिए सुविधाजनक नहीं होती. ड्रिप इरिगेशन का इस्तेमाल गन्ने और और कुछ दूसरी फसलों के लिए हो रहा है लेकिन यह धान के लिए कारगर नहीं रहेगी.

पुष्पेंद्र कहते हैं कि यह काफ़ी खर्चीला है. वो पूछते हैं, ''इसका ख़र्च कौन उठाएगा? नई तकनीक धीरे-धीरे तो आएगी ही, लेकिन किसान इसका ख़र्चा उठा सके इसके लिए उसकी मदद करनी होगी.''

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फसलों में विविधता की कमी

डॉक्टर लाल इस बात पर ज़ोर देते हैं कि भारतीय किसान अब धान, गेहूँ, गन्ना, कपास और सोयाबीन जैसी परंपरागत फसलों के बजाय कुछ और दूसरी फसलें उगाएं.

वो कहते हैं, ''पंजाब, हरियाणा और पश्चिम उत्तर प्रदेश में सिर्फ धान, गेहूँ और गन्ना ही पैदा करना ठीक नहीं है. इन फसलों में काफ़ी पानी लगता है. धान की खेती बिहार जैसे राज्यों में होनी चाहिए. इन राज्यों के किसानों को फल, कपास और सब्जियाँ उगाने को प्रेरित करना चाहिए.''

डॉक्टर लाल का मानना है कि बहुत ज्यादा धान और गेहूँ उगाने से 'प्रोडक्शन सरप्लस' (ज़रूरत से ज़्यादा उत्पादन) हो जाता है और इससे भंडारण की समस्या आती है. नतीजन, 30 फ़ीसदी अनाज सड़ जाता है.

प्रोफे़सर गुलाटी भी फसलों की विविधता के पैरोकार हैं. वो चीन का उदाहरण देते हैं, जहाँ फसलों की विविधता ने पैदावार बढ़ाने मे मदद की है. वो कहते हैं कि बहुत अधिक पानी खींचने वाली धान की फसल पंजाब के प्राकृतिक संसाधनों को बर्बाद कर रही है.

पुष्पेंद्र सिंह को फसलों की विविधता से एतराज़ नहीं है लेकिन वो इनके लिए पर्याप्त एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य की माँग करते हैं.

यहाँ 'पर्याप्त' शब्द काफ़ी अहम है. उनका कहना है कि पंजाब के किसानों को फल, सब्ज़ियाँ और दूसरी फसलें पैदा करने के लिए कहा जा रहा है लेकिन किसान यह भी उम्मीद करता है कि जिस तरह से धान का एमएसपी मिलता है, इनके लिए भी ऐसे ही एमएसपी की गारंटी हो. तब तो विविधता का फ़ायदा है. वरना ऐसी फसलें पैदा करने का क्या लाभ?

पुष्पेंद्र सिंह कहते हैं, ''हम साल में 75 हज़ार करोड़ रुपये का तिलहन मँगाते हैं. हमने तिलहन और दलहन की खेती को बढ़ावा दिया है. ऐसा नहीं है कि हमने खेती में विविधता नहीं लाई है. इसी वजह से हमारे यहाँ दाल का उत्पादन बढ़ा है. विविधता तो करें लेकिन क्या सरकार ख़रीद की गारंटी लेगी? सरकार को ख़रीद पक्की करनी होगी. हमें इसके लिए मार्केट भी तो चाहिए.''

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छोटी जोत की समस्या

केंद्र सरकार ने साल 2011 में एक सर्वे कराया था, जिसमें पता चला कि देश में लैंड होल्डिंग आकार दो एकड़ से भी कम का है.

ग्रामीण इलाकों में एक चौथाई फ़ीसदी परिवारों के पास महज 0.4 एकड़ जमीन है और एक चौथाई लोग भूमिहीन हैं.

वैज्ञानिकों का कहना है कि आधुनिक कृषि तकनीकों को अपनाने, इनपुट्स लगाने, ज़मीन सुधारने, जल संरक्षण और पौधों को बचाव के वैज्ञानिक तरीके अपनाने में यह छोटी जोत बड़ी समस्या है. खेती का मशीनीकरण इन हालात में मुश्किल है.

ज़्यादातर राज्यों में भूमि सुधार की धीमी रफ़्तार इस समस्या को और बढ़ा देती है. कई विशेषज्ञ मानते हैं कि छोटी जोत वाली ज़मीनों को एक जगह कर उनका आकार बड़ा कर देने से पैदावार बढ़ाने में मदद मिलेगी.

कॉन्ट्रैक्ट फ़ार्मिंग में छोटी जोत वाले किसान ज्यादा कमज़ोर स्थिति में होंगे. अगर किसी विवाद की स्थिति में उसे कॉर्पोरेट से लोहा लेना हो तो वो उसके बूते की बात नहीं होगी.

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विज्ञान, तकनीक और डेटा का इस्तेमाल

कृषि वैज्ञानिकों के बीच इस बात की रज़ामंदी है कि भारतीय कृषि सेक्टर को बड़े पैमाने पर खेती के वैज्ञानिक तरीके, आधुनिक तकनीकी औजारों और डेटा का इस्तेमाल करना चाहिए ताकि उत्पादकता बढ़े और फसलों को भरपूर माइक्रो न्यूट्रिएंट्स दिया जा सके.

मसलन-ज़मीन की सेटेलाइट मैपिंग हो, जिससे मिट्टी की गुणवत्ता का विश्लेषण हो सके. इससे देश के बड़े हिस्से में यह पता चल सकेगा कि अलग-अलग जगहों की मिट्टी के हिसाब से कौन सी फसल मुफ़ीद है और इसमें कितना पानी लगेगा.

मानसून चक्र का विश्लेषण और भूजल स्तर का पता लगा लेने से किसान खेती के लिए बेहतर तरीके से तैयार हो सकेंगे.

डॉक्टर लाल कहते हैं कि यह एक प्रक्रिया है और अब समय आ गया है कि बड़े पैमाने पर आधुनिक तरीकों का इस्तेमाल किया जाए.

उनका मानना है कि अगर ड्रोन तैनात किए जाएं और डेटा और सेटेलाइटों की मदद ली जाए तो न सिर्फ़ पैदावार दोगुनी होगी बल्कि फसलों की पोषण गुणवत्ता भी बढ़ेगी. इससे खेती पर निर्भर रहने वाली आबादी में भी कमी आएगी.

यूएन की एक हालिया स्टडी के मुताबिक अमेरिका में कुल आबादी का सिर्फ दो फ़ीसदी हिस्सा खेती के काम में लगा है.

सिर्फ़ दो फ़ीसदी आबादी इतना खाद्यान्न और दूसरे कृषि उत्पाद पैदा करती है यह दो अरब लोगों की ज़रूरत पूरी कर सकते हैं.

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'जो अमेरिका और चीन ने किया, अब वो भारत करे'

डॉक्टर लाल का मानना है कि जो प्रक्रिया अमेरिका ने दशकों पहले और चीन ने 1980 के दशक में शुरू की थी उसे शुरू करने की बारी अब भारत की है.

वो कहते हैं, ''अमेरिका में सिर्फ़ दो फीसदी आबादी सीधे खेती से जुड़ी हुई है, जबकि भारत में 60 से 70 फ़ीसदी आबादी खेती पर निर्भर है. यह बहुत बड़ी आबादी है. कहीं न कहीं से तो बदलाव शुरू करना ही होगा. खेती बहुत सारे लोगों का सहारा नहीं बन सकती. एक बड़ी आबादी को वैकल्पिक पेशा अपनाना ही होगा.''

भारत की कुल जीडीपी में कृषि और इसके सहायक सेक्टरों की 17 फ़ीसदी भागीदारी है. यह 2018-19 का आँकड़ा है. लगभग 60 फीसदी आबादी खेती पर ही निर्भर है.

वहीं, सर्विस सेक्टर भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ है. जीडीपी में इसकी हिस्सेदारी 54.3 फ़ीसदी है, जबकि औद्योगिक सेक्टर की हिस्सेदारी 29.6 फ़ीसदी है. इसका मतलब यह है कि सर्विस और औद्योगिक सेक्टर में कृषि सेक्टर से कम लोग काम करते हैं लेकिन जीडीपी में उनका योगदान कहीं ज़्यादा है.

एक बार जब तकनीक का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल होने लगेगा और खेती में ज्यादा मशीनीकरण शुरू होने के साथ मिट्टी की क्वालिटी सुधरने लगेगी तो कम ज़मीन में ज़्यादा फसल पैदा होगी.

इसके साथ ही बेहतर जल प्रबंधन के इस्तेमाल से स्थिति में बदलाव होगा. अगर ऐसा हुआ तो इस सेक्टर को कम लोगों की जरूरत होगी. यानी खेती पर आबादी का जो बोझ है वह कम होगा.

डॉक्टर लाल का कहना है कि सरकार को एक समग्र सोच बना कर सुधार करना होगा. उनका मानना कि किसानों के कल्याण के लिए कृषि सुधार जरूरी हैं और इन्हें टाला नहीं जा सकता.

वो कहते हैं, ''किसान वैकल्पिक खेती करें और वैकल्पिक रोजगार अपनाएं, इसके लिए सरकार को ख़र्च करना होगा. इसके साथ ही औद्योगिक और सर्विस सेक्टर में भी सुधार करना होगा ताकि खेती में लगे लोगों को इनमें खपाया जा सके.''

डॉक्टर लाल चेतावनी देते हुए कहते हैं कि अगर हमने सुधारों की शुरुआत अभी से नहीं की तो यह आने वाली पीढ़ियों साथ नाइंसाफ़ी होगी.

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English summary
Agricultural law: more land-less yields, what to do farmersfor crop
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