आख़िर किस मजबूरी में ख़ामोश हो गए हैं नीतीश?
अटल-आडवाणी के एनडीए में नीतीश कुमार की एक हैसियत वो थी जब उन्होंने नरेंद्र मोदी को बिहार में चुनाव प्रचार नहीं करने दिया. जब नरेंद्र मोदी को लेकर बीजेपी अड़ गई तो नीतीश ने अपनी राह अलग कर ली.
एक वक़्त अब है जब नीतीश कुमार एयरपोर्ट पर मोदी के स्वागत में गुलाब के फूल लेकर खड़े रहते हैं. इसी महीने 10 अप्रैल को मोदी बिहार पहुंचे तो नीतीश कुमार पटना एयरपोर्ट पर गुलाब
अटल-आडवाणी के एनडीए में नीतीश कुमार की एक हैसियत वो थी जब उन्होंने नरेंद्र मोदी को बिहार में चुनाव प्रचार नहीं करने दिया. जब नरेंद्र मोदी को लेकर बीजेपी अड़ गई तो नीतीश ने अपनी राह अलग कर ली.
एक वक़्त अब है जब नीतीश कुमार एयरपोर्ट पर मोदी के स्वागत में गुलाब के फूल लेकर खड़े रहते हैं. इसी महीने 10 अप्रैल को मोदी बिहार पहुंचे तो नीतीश कुमार पटना एयरपोर्ट पर गुलाब के फुल लेकर खड़े थे.
ये वही नीतीश हैं जिन्होंने मोदी के साथ बिहार में अख़बारों के विज्ञापन में अपनी तस्वीर छपने पर बीजेपी के दिग्गज नेताओं को दिया भोज रद्द कर दिया था. यह मामला जून 2010 का है तब पटना में भारतीय जनता पार्टी की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक हुई थी.
इसी दौरान बिहार के अख़बारों में बाढ़ में मदद करने को लेकर मोदी की तस्वीर नीतीश कुमार के साथ छपी थी. नीतीश को मोदी के साथ वो तस्वीर बिल्कुल रास नहीं आई और उन्होंने दिया भोज कैंसल कर दिया. इसके साथ ही नीतीश ने गुजरात के मुख्यमंत्री के तौर पर मोदी से बाढ़ पीड़ितों की मदद के लिए मिले पांच करोड़ रुपए को वापस कर दिया था.
नीतीश की ख़ामोशी में बेबसी या ग़ुस्सा?
क्या नीतीश का वो तेवर अब इतिहास बन गया? आख़िर नीतीश की ऐसी कौन सी मजबूरी है जिसके कारण उन्हें इस कदर झुकना पड़ा?
पिछले साल 14 अक्टूबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पटना यूनिवर्सिटी के दीक्षांत समारोह में पहुंचे थे. नीतीश कुमार ने भरी सभा में मंच से सार्वजनिक रूप से पीएम मोदी से पटना विश्वविद्याल को केंद्रीय विश्वविद्यालय का दर्जा देने की मांग की, लेकिन इसे अनसुना कर दिया गया. मंच पर मोदी भी मौजूद थे. इसे अपमान के तौर पर देखा गया, लेकिन नीतीश कुमार चुप रह गए.
पिछले साल नीतीश के दोबारा एनडीए में शामिल होने के बाद से केंद्र की मोदी कैबिनेट का विस्तार हुआ, लेकिन जेडीयू से किसी को शामिल नहीं किया गया. इसे लेकर जेडीयू के भीतर भी बंद मुंह वाली बेचैनी देखी गई, लेकिन नीतीश कुमार ख़ामोश रह गए.
बिहार को विशेष दर्जा दिलाने को लेकर नीतीश ने 2014 के आम चुनाव से लेकर 2015 के बिहार विधानसभा चुनाव तक कैंपेन चलाया, लेकिन अब वो केंद्र की सत्ताधारी पार्टी के साथ हैं तो पूरी तरह से चुप्पी मार ली.
हाल में ही बिहार में सांप्रदायिक सौहार्द बिगाड़ने और मुसलमानों पर हमले के कई वाक़ये हुए. इनमें बीजेपी नेताओं और अन्य हिन्दुवादी संगठनों की भागीदारी प्रत्यक्ष रूप से सामने आई, लेकिन नीतीश कुमार ने चुप रहना ही ठीक समझा.
बिहार बीजेपी अध्यक्ष नित्यानंद राय ने सार्वजनिक रूप से प्रदेश में कहा कि मोदी के विरोध करने वालों के हाथ काट लेंगे, लेकिन नीतीश खामोश रहे.
जब जून 2013 में नीतीश कुमार ने बीजेपी का 17 साल पुराना साथ छोड़ा था तो वो मोदी को ललकारते हुए निकले थे. अब नीतीश इतने बेबेस क्यों दिख रहे हैं?
एनडीए में नीतीश का रुतबा कम हुआ?
जेडीयू में कई अहम पदों पर रहे और पूर्व राज्यसभा सांसद शिवानंद तिवारी कहते हैं, ''नीतीश कुमार की अब ऐसी स्थिति हो गई है कि न बीजेपी का साथ छोड़ सकते हैं और ही सहज होकर रह सकते हैं. एक वक़्त था जब नीतीश कुमार के पीछे-पीछे बीजेपी चलती थी. बीजेपी नीतीश के कारण ही अपने स्टार नेता मोदी को बिहार में चुनाव प्रचार करने के लिए भेजने की हिम्मत नहीं कर पाती थी.''
शिवानंद कहते हैं, ''नीतीश कुमार अब कैसी राजनीति कर रहे हैं इसे बिहार में हाल में हुए सांप्रदायिक हमलों से भी समझ सकते हैं. महागठबंधन के जनादेश को धोखा देकर उन्होंने उन्हीं ताक़तों को गले लगाया जिनके ख़िलाफ़ वो चुनाव लड़े थे. वो इनके ख़िलाफ़ मुखर होकर बोलते थे. जिनके पास वो गए हैं उनका मन बढ़ गया है.''
''इसके पहले एनडीए में थे तो नीतीश कुमार का अपर हैंड था. नीतीश के एजेंडे पर गठबंधन चलता था. अब वो दोबारा गए हैं तो बीजेपी समझ गई है कि नीतीश कुमार नक़ली आदमी हैं. इस आदमी की कोई नैतिकता नहीं है और सत्ता के लिए कुछ भी कर सकता है.''
''इस मामले में तो मेरा आकलन भी बिल्कुल ग़लत साबित हुआ. हमने लंबे समय से नीतीश कुमार के साथ काम किया और अब सार्वजनिक रूप से कह रहा हूं कि मैं मूर्ख था कि नीतीश कुमार को समझ नहीं पाया.''
शिवानंद तिवारी को लगता है कि उन्होंने नीतीश कुमार को समझने में बड़ी भूल की. तिवारी कहते हैं, ''ये आदमी सार्वजनिक मंचों पर तो ख़ुद को ऐसे पेश करता है कि असली चेहरा छुप जाता है. और छुपाकर रखने में अब तक कामयाब रहा है.''
''लोग ये कल्पना कर रहे थे कि 2019 में नरेंद्र मोदी की कट्टर छवि के मुक़ाबले नीतीश कुमार की उदार छवि पेश की जाएगी. मैं तो कहता हूं कि देश बच गया. अगर ग़लती से भी नीतीश कुमार देश के प्रधानमंत्री हो गए होते तो समझिए कि पता नहीं देश को कहां बेच देते.''
बीजेपी का साथ रास नहीं आया?
लालू प्रसाद के राष्ट्रीय जनता दल के साथ चुनाव लड़ने और कुछ ही समय बाद बीजेपी से हाथ मिला लेने को लेकर नीतीश के विधायकों में भी खलबली है. इन विधायकों को लगता है कि वो जिस सामाजिक गोलबंदी के आधार पर वो चुनाव जीतकर आए थे वो बीजेपी के साथ संभव नहीं है. ये अपने भविष्य को लेकर बुरी तरह से आशंकित हैं.
जेडीयू के तीन विधायकों ने नाम नहीं बताने की शर्त पर कहा कि जेडीयू के भीतर कम से कम 50 फ़ीसदी ऐसे विधायक हैं जो बीजेपी के साथ आने से ख़फ़ा हैं. इनका कहना है कि इनमें से ज़्यदातार विधायक ओबीसी और दलित हैं. क्या ये विधायक आने वाले समय में विद्रोह भी कर सकते हैं? इस सवाल पर इनका कहना है कि अभी इतनी हिम्मत किसी के पास नहीं है.
इन विधायकों की बात पर जेडीयू के एक प्रवक्ता से राय मांगी तो उन्होंने भी नाम नहीं बताने की शर्त पर कहा कि यह बिल्कुल सही बात है कि बीजेपी के साथ आने से पार्टी के ज़्यादातर विधायक ख़ुश नहीं हैं.
नीतीश कुमार ने सांप्रदायिकता का आरोप लगाकर बीजेपी का साथ छोड़ा था और धर्मनिरपेक्षता के नाम लालू से हाथ मिलाया था. अब नीतीश कुमार भ्रष्टाचार को लेकर लालू से अलग हुए और सुशासन के नाम पर एक बार फिर से बीजेपी के साथ आ गए.
क्या नीतीश कुमार के लिए बीजेपी अब सेक्युलर?
ऐसे में कई सवाल एक साथ उठते हैं. पहला यह कि क्या नीतीश कुमार के लिए बीजेपी अब सेक्युलर पार्टी हो गई? दूसरा यह कि नीतीश कुमार को सांप्रदायिकता और भ्रष्टाचार से एक साथ दिक़्क़त क्यों नहीं होती है? उन्हें कभी सांप्रदायिकता से समस्या होती है तो कभी भ्रष्टाचार से, लेकिन क्या भारतीय राजनीति के लिए ये दोनों समस्याएं किसी ख़ास अवधि के लिए होती हैं?
अगर उन्हें लालू का साथ भ्रष्टाचार और कुशासन के कारण पसंद नहीं है और बीजेपी का साथ सांप्रदायिकता के कारण तो दोनों का साथ एक साथ क्यों नहीं छोड़ देते? क्या नीतीश के लिए सत्ता ही सर्वोपरि है और उसके लिए किसी न किसी का साथ ज़रूरी है? क्या नीतीश कुमार को विपक्ष की राजनीति रास नहीं आती है?
जेडीयू प्रवक्ता राजीव रंजन इन सवालों के जवाब में कहते हैं, ''नीतीश कुमार चाहे जिस खेमे में रहें वो अपने मूल्यों से समझौता नहीं करेंगे. उनके रहते ही शहाबुद्दीन, राजवल्ल्भ यादव और रॉकी यादव की गिरफ़्तारी हुई. हाल के दिनों में दो पत्रकारों की हत्या हुई तो दो घंटे के अंदर गिरफ़्तारी हुई. हमे अश्विनी चौबे के बेटे को भी गिरफ़्तार किया. 12 सालों में कभी इस राज्य में सांप्रदायिक तनाव में नहीं हुआ, लेकिन ऐसी कोशिश की जा रही है कि सांप्रदायिक ध्रुवीकरण बढ़े पर नीतीश कुमार ऐसा होने नहीं देंगे.''
बीजेपी को कड़ा संदेश
राजीव रंजन ने कहा, ''गठबंधन में शामिल पार्टी को बिल्कुल स्पष्ट संदेश दिया गया है कि कोई ग़ैरज़िम्मेदार बयान नहीं आए. हमने भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व को भी अवगत करा दिया है कि आपत्तिजनक बयान अब नहीं आने चाहिए. हम गठबंधन की मज़बूरी के नाम पर किसी ग़लत काम को आगे नहीं बढ़ाएंगे.''
राजीव रंजन कहते हैं कि उनके नेता के लिए धर्मनिरपेक्षता और सुशासन को लेकर कोई द्वंद्व नहीं है. उन्होंने कहा, ''हम किसी भी गठबंधन में रहकर दोनों में से किसी से समझौता नहीं करेंगे. हम अगर एनडीए में लौटकर आए हैं तो सोच समझकर आए हैं. बिहार में अब तक जो भीषणतम दंगा हुआ है वो 1989 में भागलपुर का दंगा था और उसके मुख्य साज़िशकर्ता कामेश्वर यादव को लालू यादव ने सम्मानित किया.''
राजीव रंजन कहते हैं कि गठबंधन जो भी रहे चेहरा नीतीश कुमार का होता है और वो अपने हिसाब से काम करते हैं. उनका कहना है कि किसी के हावी होने का सवाल नहीं नहीं उठता है.
जेडीयू के राष्ट्रीय प्रवक्ता पवन वर्मा का कहना है कि लालू का साथ नीतीश ने भ्रष्टाचार और अपराधीकरण की वजह से छोड़ा, लेकिन इसका मतलब यह क़तई नहीं है कि बीजेपी के साथ आने से धर्मनिरपेक्षता को लेकर कोई समझौता करने जा रहे हैं.
पवन वर्मा कहते हैं कि इसक पहले 17 साल नीतीश कुमार अपनी शर्तों पर एनडीए में रहे और अब भी अपनी शर्तों के साथ हैं.
उन्होंने, ''हमने अश्विनी चौबे के बेटे को गिरफ़्तार किया. उसने सरेंडर नहीं किया था. हमने उसकी अग्रीम ज़मानत का विरोध किया. हाल की सांप्रदायिक घटनाओं में बीजेपी के लोग भी शामिल रहे तो उन्हें गिरफ़्तार किया गया.''
फिर साथ आएंगे नीतीश और लालू
हालांकि शिवानंद तिवारी पवन वर्मा के तर्कों को सिरे से ख़ारिज करते हैं. शिवानंद तिवारी का मानना है कि नीतीश कुमार को बीजेपी ने डराकर साथ लाया है. वो कहते हैं, ''बिहार में सृजन घोटाला हज़ारों करोड़ रुपए का है और सब कुछ नीतीश कुमार की नाक के नीचे हआ है. ऐसे में मोदी सरकार को पता है कि नीतीश को अंदर करने के लिए पर्याप्त चीज़ें हैं. नीतीश या तो अंदर होते या बीजेपी के साथ आना होता. मुझे लगता है कि नीतीश के साथ यह मजबूरी रही होगी.''
बिहार की राजनीति को क़रीब से देखने वाले यहां के स्थानीय पत्रकारों का कहना है कि नीतीश कुमार बीजेपी के साथ दोबारा आकर ख़ुद को फंसा हुआ पा रहे हैं. तो क्या नीतीश कुमार फिर से महागठबंधन में शामिल हो सकते हैं? क्या आरजेडी नीतीश कुमार को फिर अपनाने के लिए तैयार है? आरजेडी के वरिष्ठ नेता अब्दुल बारी सिद्दीकी का कहना है कि बीजेपी के ख़िलाफ़ उनकी पार्टी कुछ भी करने के लिए तैयार है.