ओवैसी की पार्टी के बाद CPI-ML भी इस इरादे के साथ लड़ेगी बंगाल में चुनाव
नई दिल्ली- बिहार विधानसभा चुनाव में असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी एआईएमआईएम ने अपने दम पर इस बार 5 सीटें जीती हैं। लेकिन, एक और दल है जिसकी किस्मत आरजेडी के साथ गठबंधन की वजह से जाग उठी है। भाकपा (माले) को वहां 12 सीटें मिली हैं और उसका हौसला अब इतना बुलंद है कि ओवैसी की तरह इस पार्टी के महासचिव दीपाकंपर भट्टाचार्य भी बंगाल फतह करने को तैयार हो गए हैं। ये बात अलग है कि जिस लेफ्ट को बिहार में लालू यादव ने हाशिए पर ला दिया था, समय का चक्र बदलने के बाद उनके बेटे की उंगलियां पकड़कर वह फिर से माले के तौर पर एक बड़ी वामपंथी सियासी शक्ति के रूप में स्थापित हुआ है। आक्रामक वामपंथ की विचारधारा की पैरोकार यह पार्टी नई ऊर्जा का इस्तेमाल बंगाल में आजमाने की रणनीति बना रही है। जिस बंगाल में 34 साल तक सीपीएम की अगुवाई वाले लेफ्ट फ्रंट की इच्छा के बिना पत्ता भी नहीं हिलता था, वहां लेफ्ट की चुनावी रणनीति क्या हो उसे यह सीख अब दीपाकंर भट्टाचार्य जैसे सीपीआई-एमएल के नेताओं से लेनी पड़ रही है।
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बिहार में भाकपा-माले पहले से भी एक जमीनी ताकत रही है। पिछले करीब साढ़े-तीन चार दशकों में वहां पर यह लेफ्ट की सबसे बड़ी प्रभावी शक्ति बनकर उभरी है। इसका अपना एक कैडर वोट बैंक रहा है, जो राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के कैडर वोट बैंक से जरा भी कमतर नहीं है। यही वजह है कि इस बार राजद के मुस्लिम-यादव वोटों का समर्थन मिला तो पार्टी 3 सीटों से छलांग लगाकर 12 विधायकों तक पहुंच गई। इस विधानसभा चुनाव में बिहार में गठबंधन के चुनाव का माले से ज्यादा फायदा किसी ने नहीं उठाया है। लेकिन, बंगाल में इसका राजनीतिक वजूद ऐसा नहीं रहा है। ना तो वहां आजतक एक भी सीट जीती है और ना ही 34 वर्षों के शासन में सीपीएम-सीपीआई की अगुवाई वाले लेफ्ट फ्रंट ने ही इसे कोई वामपंथी ताकत माना था। लेकिन, बिहार चुनाव ने परंपरागत वामपंथ के गढ़ में सेंध लगाने की उसकी उम्मीदें परवान चढ़ा दी हैं, जो कि मौजूदा समय में दीदी के प्रभाव में सियासी तौर पर मृतप्राय नजर आ रहा है।
बंगाल में 2011 में लेफ्ट फ्रंट की ऐतिहासिक हार के बाद से अबतक जितने भी चुनाव हुए हैं, उसकी हालत बद से बदतर होती चली गई है। खासकर 2014 से भाजपा की उभार के बाद से तो उसकी हालत बहुत ही दयनीय हो चुकी है। सीपीएम-सीपीआई पुरानी सियासी दुश्मन कांग्रेस का हाथ पकड़कर चलने लगी है, फिर भी उसमें उठकर खड़े होने की ताकत नहीं बची है। 2011 के विधानसभा चुनाव में 294 सीटों में से 222 पर टीएमसी के विधायक थे तो सीपीएम के 26, आरएसपी के 3, ऑल इंडिया फॉर्वर्ड ब्लॉक के 2 और सीपीआई का एक विधायक था। 2019 के लोकसभा चुनाव आते-आते यह स्थिति हो गई कि बीजेपी टीएमसी के 22 सीटों की तुलना में 18 सीटें जीत गई और कांग्रेस से गठबंधन के बाद भी सीपीएम को एक भी सीट तो नहीं ही मिली, 20 फीसदी वोट शेयर भी गंवा दिए।
भाकपा (माले) कभी वामपंथ के लिए उर्वरा रही बंगाल की धरती पर इस बार वह फसल काटना चाहती है, जो सीपीएम-सीपीएम अब नहीं काट पा रही है। पार्टी के महासचिव दीपांकर भट्टाचार्य ने कहा है कि बंगाल को लेकर उनका नजरिया सीपीएम और लेफ्ट फ्रंट से अलग है। उन्होंने ईटी से कहा है, 'बंगाल के चुनावों ने दिखाया है कि बीजेपी की राजनीति, विचाधारा और शासन के खिलाफ प्रभावी तौर पर लड़ा जा सकता है। बिहार में ताकत बढ़ाने के साथ ही सीपीआई-एमएल पश्चिम बंगाल के चुनावों पर भी फोकस करेगी और राज्य में हमारे लिए बीजेपी ही मुख्य प्रतिद्वंद्वी है और विधानसभा चुनावों में बीजेपी की खतरनाक राजनीति से लड़ने और उसे हराना ही बंगाल में हमारी सबसे बड़ी प्राथमिकता है।'
जब उनसे यह सवाल किया गया कि क्या वह बंगाल में लेफ्ट-कांग्रेस के प्रस्तावित गठबंधन का हिस्सा बनना चाहेंगे तो उन्होंने कहा, 'हमें तो ऐसा लगता है कि सीपीएम के लिए मुख्य चुनावी फोकस और जोर बंगाल में तृणमूल से लड़ने और उसे हराने पर है, बीजेपी से लड़ने और उसे हराने पर नहीं, जो कि बंगाल के लिए खतरा है। इसलिए सीपीआई-एमएल का सीपीएम-कांग्रेस फ्रंट के साथ गठबंधन होना इस बात पर निर्भर करता है कि क्या सीपीएम तृणमूल को हराने के मौजूदा मुख्य फोकस से बीजेपी से लड़ने और उसे हराने पर अपना पूरा जोर लगा सकती है....' यानि पार्टी वहां अपनी शर्तों पर लेफ्ट फ्रंट के साथ गठबंधन का संकेत दे रही है।
जब उनकी पार्टी टीएमसी को मुख्य राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी नहीं मानती तो उससे गठबंधन के संभावना पर उनका कहना है कि, 'उसके साथ गठबंधन नहीं। तृणमूल सरकार लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा करने और वादों को निभा पाने में विफल रही है। लेकिन, बंगाल के मुख्य चुनावी मुद्दे जैसे कि विकास की कमी, प्रवासी मजदूरों की दुर्दशा, बेरोजगारी, कोविड-19 से निपटने में नाकामी, सांप्रदायिक मुद्दे मोदी सरकार की नीतियों की नाकामियों से जुड़े हैं। ' यानि वह साफ संकेत दे रहे हैं कि वह ममता बनर्जी के साथ चुनावी गठबंधन तो नहीं करना चाहते, बल्कि भाजपा के खिलाफ दोस्ताना मुकाबले की जमीन तलाश रहे हैं।
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