काफी खास है असम का 'बोका चाउल', खाने के लिए पकाने की भी जरूरत नहीं
भारत में चावल बड़े चाव से खाया जाता है और देश में इसकी कई किस्में भी पाई जाती हैं। आपने बासमती-उसना से लेकर सेल्हा चावल तक के नाम के बारे में सुना होगा, लेकिन इस चावल के बारे में आपने नहीं सुना होगा जिसे खाने के लिए पकाने की भी जरूरत नहीं पड़ती।
नई दिल्ली। भारत में चावल बड़े चाव से खाया जाता है और देश में इसकी कई किस्में भी पाई जाती हैं। आपने बासमती-उसना से लेकर सेल्हा चावल तक के नाम के बारे में सुना होगा, लेकिन इस चावल के बारे में आपने नहीं सुना होगा जिसे खाने के लिए पकाने की भी जरूरत नहीं पड़ती। चावल का ये प्रकार खास असम में मिलता है, जिसे 'बोका चाउल' और ओरीजा सातिवा भी कहा जाता है। इस चावल को GI (जियोग्राफिकल इंडिकेशंस) का टैग भी मिल चुका है।
ये खास किस्म का चावल असम में उगाया जाता है। इसकी खेती असम के कोकराझर, बारपेटा, नलबारी, बक्सा, धुबरी, दररंग और कामरूप जैसे जिलों में की जाती है। इस चावल को जून के महीने में बोया जाता है। 'बोका चाउल' की सबसे खास बात ये है कि इसे खाने के लिए पकाने की जरूरत नहीं होती। इस चावल को खाने के लिए आम चावल की तरह आपको इसे चूल्हे पर नहीं पकाना होता है। इस चावल को केवल पानी में भिगो देने से ये खाने के लिए तैयार हो जाता है।
असम में ये चावल काफी पॉप्यूलर है और इसे दही, दूध और गुड़ के साथ खाया जाता है। इस चावल के इतिहास की बात करें तो ये 17वीं सदी तक जाता है। कहते हैं कि मुगल सेना से लड़ने के लिए अहोम सैनिक युद्ध के समय इसका इस्तेमाल किया गया था। इस चावल को युद्ध के दौरान राशन के तौर पर ले जाया गया था।
इस चावल को जियोग्राफिकल इंडिकेशंस (GI) टैग भी मिला हुआ है। ये टैग उस वस्तु को मिलता है, जो देश में विशिष्ट होती है। ये टैग इस वस्तु को कानूनी अधिकार देता है। कड़कनाथ मुर्गा, कोल्हापुरी चप्पल, बनारसी साड़ी जैसी चीजों को भी ये टैग मिला हुआ है।