क़िस्सा उस अंग्रेज़ ब्रिगेडियर का जिसे 1857 के गदर में गोली मारी गई थी
जॉन निकोल्सन की कब्र दिल्ली के सिविल लाइंस में आज भी शहर के इतिहास के कई पन्नों से रूबरू कराती है.
सन 1857 के सिपाही विद्रोह की तारीख (11 मई) नज़दीक आते ही उन भारतीय और ब्रिटिश लोगों का ध्यान आता है जिन्होंने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.
हालांकि उनमें से कई लोग दूसरे खेमे से जुड़े हुए थे. इनमें एक नाम ब्रिगेडियर जनरल जॉन निकोल्सन का भी था जिनकी भरी जवानी में तकलीफ़देह मौत हो गई थी.
लेकिन ईस्ट इंडिया कंपनी को चाहने वाले लोगों के बीच जॉन निकोल्सन का दर्जा एक हीरो की तरह था.
इस बात पर यक़ीन करना एक पल के लिए तो मुश्किल लगता है कि आयरलैंड के इस फ़ौजी अफसर का स्मारक दिल्ली में एक धरोहर स्थल बन सकता है.
पर पिछले 162 बरसों के दौरान दिल्ली में निकोल्सन के स्मारक की स्थिति कुछ ऐसी ही हो चुकी है.
हर साल 11 मई और 14 और 19 सितंबर को पर्यटक और ब्रिगेडियर जनरल जॉन निकोल्सन के ख़ानदान के लोग इसी स्थान पर उन्हें श्रद्धांजलि देने आते हैं.
भारतीय सैनिकों के बीच लोकप्रिय
निकोल्सन ने 1857 के सिपाही विद्रोह के दौरान दिल्ली पर क़ब्ज़ा करने वाले विद्रोहियों से उसे छुड़ाने में अहम भूमिका निभाई थी.
हालांकि इस अभियान में निकोल्सन को अपनी जान गंवानी पड़ी, लेकिन इस युद्ध में उन्होंने एक ऐसे हीरो का दर्जा प्राप्त कर लिया था.
वो अपने देशवासियों के बीच ही नहीं बल्कि 'मुल्तानी हॉर्स' (ब्रितानी फौज की एक इकाई) में शामिल भारतीय सैनिकों के बीच भी बहुत लोकप्रिय थे.
उनकी निष्ठुरता से लेकर उनके नेतृत्व कौशल के बारे में भी कई किस्से कहे सुने जाते रहे हैं.
निकोल्सन के बारे में तमाम साहित्य उपलब्ध हैं लेकिन हाल ही में प्रकाशित हुई एक किताब में उन पर अच्छी रोशनी डाली गई है.
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इतिहास की निशानियां
स्टुअर्ट फ्लिन्डर्स ने अपनी किताब 'कल्ट ऑफ़ ए डार्क हीरोः निकोल्सन ऑफ़ दिल्ली' के लिए उस रास्ते को खोजा जिसे निकोल्सन ने दिल्ली पर धावा बोलने के लिए चुना था.
इस किताब से ये पता चला कि भले ही अब तक दिल्ली का नक़्शा काफी कुछ बदल चुका है लेकिन इसमें उस दौर के कुछ महत्वपूर्ण ऐतिहासिक निशान अभी भी बचे हुए हैं.
स्टुअर्ट ने रिंग रोड की तरफ से पुरानी दिल्ली का चक्कर लगाया, इस दौरान नष्ट हो चुकी पुराने शहर की दीवार से होते हुए कश्मीरी गेट पहुंचे जिसका गुंबद अभी भी है जबकि बर्न बैस्टियन और लाहौरी गेट का अब वजूद नहीं है.
उन्हें संगमरमर के स्मारक की वह पट्टिका भी नहीं मिली जो निकोल्सन को गोली मारे जाने वाले स्थान की ओर संकेत देती थी.
हालांकि क़रीब 10 साल पहले मैंने 'विद्रोह' से जुड़े स्थानों और अंत में खारी बावली ले जाने के लिए ब्रिटिश नागरिकों के एक ग्रुप का नेतृत्व किया था.
काफ़ी खोजने के बाद हम एक संकरी गली में पहुंचे जहां कुछ लोग बर्फ़ और दूसरा सामान बेच रहे थे.
पहले तो वे समझ ही नहीं सके कि आख़िर हम क्या चाहते हैं लेकिन तमाम तरह की सफाई देने के बाद उन्होंने अपने पीछे की दीवार से एक टाट का टुकड़ा हटाया और वहां स्मारक पट्टिका नजर आई.
अतीत की किस्सागोई
ऐसा लगता है कि ये वो पट्टिका नहीं थी जो ब्रितानी दौर में लगाई गई थी लेकिन वो आज़ादी के बाद लगाई गई एक अनुकृति थी.
इसमें निकोल्सन का ज्यादा गुणगाान तो नहीं था लेकिन इसमें उस अचूक निशानेबाज की तारीफ की गई थी जिसने एक दोमंज़िले मकान की खिड़की से निकोल्सन को उस वक्त गोली मारी थी जब वह लाहौरी गेट पर धावा बोलने के दौरान अपने जवानों का नेतृत्व करते हुए हवा में तलवार लहरा रहा था.
निकोल्सन के नाम पर बनाए गए पार्क के अब अवशेष ही बचे हुए थे लेकिन जिस कब्रिस्तान में उन्हें दफनाया गया था, उसके आस-पास चुनिंदा रातों में निकोल्सन का सिरविहीन धड़ घूमते हुए नज़र आने की कहानियां सुनने को मिला करती थीं.
ये कहानियां कई सवाल पैदा करती थीं क्योंकि निकोल्सन का सिर कलम नहीं किया गया था, उन्हें पीछे से गोली मारी गई थी और उनका सिर धड़ से अलग नहीं हुआ था.
इसी से जुड़ी एक और कहानी एक गोरी महिला के बारे में है, जो कभी-कभी आधी रात के बाद कश्मीरी गेट पर नजर आती हैं जहां लगी एक पट्टिका सही-सलामत है.
'विद्रोह' के समय
इसमें ब्रिटिश सैनिकों द्वारा गेट पर धावा बोलने और इस हमले के दौरान मारे गए व्यक्तियों के बारे में जानकारी है.
निकोल्सन की प्रतिमा को साल 1952 में आयरलैंड भेजने का फैसला लिए जाने से पहले तक इस पट्टिका के ठीक सामने लगी हुई थी.
गोरी महिला सिगरेट पीते दिखाई पड़ती हैं, जिसका मतलब है कि वो 'विद्रोह' के समय की नहीं है.
वो संभवतः बाद के किसी समय की है जो कश्मीरी गेट पर किसी हताश प्रेमी या फिर रात में किसी चोर के हाथों मारी गई थीं.
इसमें कोई शक नहीं कि निकोल्सन यहाँ तस्वीर में फिट नहीं बैठते हैं. वैसे भी वो स्त्रियों के चहेते पुरुष नहीं थे.
निकोल्सन की ज़िंदगी में रोमांस कितना रहा होगा, इसके बारे में कोई पक्की जानकारी नहीं है लेकिन इसके बावजूद इसी तरह से कहानियां गढ़ी जाती रहीं.
इस तरह निकोल्सन के कथित प्रेत को अपने ही देश की एक महिला के साथ जोड़ने की कहानी शुरू हुई.
कश्मीरी गेट से बेलफास्ट
हालांकि स्टुअर्ट फ्लिन्डर्स ने अपनी किताब में इसका कोई जिक्र नहीं किया है और ये एक तरह से सही भी था.
जॉन निकोल्सन की इस जीवनी में दिल्ली वालों के बारे भी पढ़ना दिलचस्प है जो कभी-कभी उनके मकबरे पर जाते हैं.
एक आयरिश डॉक्टर के पांच बेटों में सबसे बड़े जॉन की प्रतिमा दिल्ली के कश्मीरी गेट से हटाकर बेलफास्ट भेज दी गई.
और अब वो मूर्ति उत्तरी आयरलैंड के डंगैनन शहर की शोभा बढ़ा रही है.
निकोल्सन अपने लोगों के 'डार्क हीरो' थे तो प्रसिद्ध मुल्तानी हॉर्स की टुकड़ी के के जवानों के बीच 'निकल सेन' नाम से मशहूर थे.
ये जवान उनके अंतिम संस्कार के अवसर पर फूट-फूट कर रोये थे और उसकी कब्र की घास अपने हाथों में लेकर उन्होंने लड़ाई में आगे हिस्सा लेने से इनकार कर दिया था.
निकोल्सन की प्रतिमा
इन सैनिकों ने मुल्तान से भी आगे अपने उन स्थानों पर वापस लौटना और 34 साल की आयु में ही प्राणों की आहूति देने वाले अपने दिवंगत कमांडर के सम्मान में शोक मनाना पसंद किया जहां से वे आए थे.
मुल्तान अब पाकिस्तान में है और यहां निकोल्सन की एक और प्रतिमा के स्थापित होने का इंतजार है.
साथी सैनिकों की इसी मोहब्बत ने अनजाने में ही रहस्यमयी पंथ 'निकल सेन' को जन्म दिया.
हालाकि इस बात पर हैरत होती है कि यदि निकोल्सन की ज़िंदगी लंबी होती तो क्या उन्हें इसी तरह की शोहरत हासिल होती और क्या उनके निष्ठुर तौर-तरीकों से उनकी लोकप्रियता पर ग्रहण नहीं लग जाता?
फ्लिन्डर्स कहते हैं कि इस घटना के करीब डेढ़ सदी बाद मुगलों का बसाया ये शहर काफी बदल चुका है.
वो लिखते हैं, "ब्रिटिश हुकूमत के वक़्त के शाहजहांनाबाद शहर और उनके द्वारा बसाई गई नई दिल्ली के बीच हमेशा की तरह ही कम से कम सरकारी इमारतों के इर्द-गिर्द के इलाकों के मामले में अंतर साफ नजर आता है."
निकोल्सन की किताब से...
"अंग्रेजों के 1947 में भारत छोड़ने के बाद दोनों ही शहरों के बेतरतीब विकास की वजह से दोनो ही बौने लगते हैं. यहां तक कि नदी ने भी अपना रास्ता बदल लिया है. लाल किले के साथ जहां कभी यमुना या जैसा ब्रिटिश बुलाते थे जमुना, बहती थी वहां अब एक व्यस्त राजमार्ग बन चुका है."
वो आगे लिखते हैं, "दिल्ली के रिज इलाके, जहां निकोल्सन ने हमले के लिए बड़े धीरज के साथ इंतजार किया था, ने शहरीकरण का उसी तरह विरोध किया है जिस तरह से उसने 1857 की गर्मियों में लंबे गतिरोध के दौरान डेरा डाले ब्रिटिश सैनिकों को बचाया था."
"जैसे ही मैंने रिज क्षेत्र में अपना रास्ता तय करना शुरू किया तो बंदरों के हमले का एकमात्र खतरा सामने आया जो रास्ते की झाड़ियों में छिपे थे. वहां से एक टैक्सी में सवार होकर मैं थोड़ी दूर स्थित अलीपुर रोड के उस मार्ग पर गया जिस पर 14 सितंबर की सुबह निकोल्सन ने अपने जवानों के साथ कूच किया था."
"कुदसिया बाग का हिस्सा, जहां धावा बोलने वाली टुकड़ियों के कॉलम बनाए गए थे, आज भी मौजूद हैं. लेफ्टिनेन्ट रिचर्ड बार्टर ने शहर की दीवार से दूर होते समय गुलाब की खुशबू के साथ बंदूकों से निकली सल्फर की गंध महसूस की थी."
"ये देखकर हैरत हुई कि 160 साल बाद आज भी वहां गुलाब के पौधे हैं, शायद इसी स्थान पर बेहद उत्तेजित जवानों ने हमला शुरू करने से पहले एक दूसरे के लिये अच्छे नसीब की दुआ की होगी."
"इस उद्यान के सामने शहर की दीवार और कश्मीर बैस्टियन के अवशेष, जिन पर निकोल्सन और उसके जवान चढ़े थे, अभी भी हैं. एक बार फिर बंदरों ने उस वक्त छीना झपटी शुरू कर दी और मैं शहर की नई मेट्रो रेलवे लाइन के शेड की छाया में खड़ा देखता रहा."
"इसके बाद, मैं कश्मीरी गेट आया. दुश्मन को दीवार के किनारे से खदेड़ने के लिए वापस लौटने से पहले निकोल्सन ने इसी जगह से शहर की ओर कूच किया था. हालांकि यहां परिवहन टर्मिनल के बढ़ते दबाव के बावजूद कश्मीरी गेट को अभी भी संरक्षित रखा गया है और हाल ही में इसके आसपास लैंडस्केपिंग की गई है."
इसके आगे दीवार गायब हो गई है, लेकिन लोथियन रोड के साथ कुछ दूरी तय करना इस बात का संकेत था कि मैं अभी भी निकोल्सन के पदचिन्हों पर ही हूं. वहां दाहिनी ओर निकोल्सन रोड थी जिस पर एक ओर दुकानें और मकान बन गये थे जबकि दूसरी ओर दीवार का एक दूसरा हिस्सा था."
"आधे मील से अधिक की दूरी पर इसमें इतना मामूली बदलाव आया है कि सहज ही ये महसूस होता है कि निकोल्सन खुद यहां हैं और मानो वो दीवार के साथ ही चल रहे हैं. लेकिन तभी आधुनिक दिल्ली सामने आने लगी."
"निकोल्सन के निधन के बाद के दशक में निर्मित पुरानी दिल्ली स्टेशन की ओर जाने वाली रेलवे लाइन पर अचानक ही निकोल्सन रोड खत्म हो गई. थोड़ा सा रास्ता बदलकर रेलवे के दूसरी ओर जाने पर मैं वहां पहुंच गया जहां कभी काबुल गेट था."
"इसके दक्षिण में दीवार के साथ साथ नया बाज़ार रोड चल रही है मगर निकोल्सन को कहां गोली मारी गई थी? बर्न बैस्टियन और लाहौरी गेट अब वजूद में नहीं थे. उनकी दिशा में चलने पर उस स्थान का पता लगाना असंभव था. नया बाजार की संकरी लेन में बैठे लोग निकोल्सन के नाम से अनजान थे और वे मदद करने में सक्षम नहीं थे."
"हमेशा से ही ये इतना मुश्किल नहीं था, लार्ड कर्जन ने 20वीं सदी में पहले वायसराय के रूप में अपने कार्यकाल के दौरान कश्मीरी गेट के पास से इसी तरह की यात्रा शुरू की थी. काबुल गेट से करीब 80 गज की दूरी पर उन्हें दीवार पर एक पट्टिका मिली थी."
"पट्टिका पर वो जगह चिन्हित थी जहां ब्रिगेडियर जनरल जॉन निकोल्सन 14 सितंबर, 1857 के हमले में बुरी तरह जख्मी हो गए थे."
दिल्ली में ये दीवार और पट्टिका 1940 के दौर में ली गई तस्वीरों में देखी जा सकती है परंतु अब दोनों को ही ध्वस्त कर दिया गया है. हालांकि यादें अभी भी बाकी हैं.