1984 सिख दंगों पर आए दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले की बड़ी बातें
नई दिल्ली। दिल्ली हाई कोर्ट ने सोमवार को कांग्रेस नेता सज्जन कुमार को 1984 के सिख दंगों में दोषी करार देते हुए आजीवन कारावास की सजा सुनाई है। सोमवार को दिल्ली हाईकोर्ट ने ना सिर्फ इंसाफ दिया बल्कि मानवता के खिलाफ हुए इस अपराध की कड़े शब्दों में निंदा की। कोर्ट के इस फैसले में दर्द का गहरा एहसास था। कोर्ट ने अपने फैसले में कांग्रेस के शासनकाल में पुलिस और एजेंसियों को भूमिकाओं पर सवाल खड़े किए। जस्टिस एस मुरलीधर और विनोद गोयल ने कानूनी प्रक्रिया को मजबूत करने की बात करते हुए कहा कि इस अपराध के दोषियों को सजा दी जाएगी। वहीं हाल ही सीबीआई की मीडिया में नकारात्मक छवि सामने आई थी। इस फैसले के बाद अब उसे प्रशंसा मिल रही है। दिल्ली हाईकोर्ट ने कहा, यह आज़ादी के बाद की सबसे बड़ी हिंसा थी। इस दौरान पूरा तंत्र फेल हो गया था। यह हिंसा राजनीतिक फायदे के लिये करवाई गई थी। सज्जन कुमार ने दंगा भड़काया था।
1984 में देश ने 1947 के बाद देखा दूसरा बड़ा दंगा
हाईकोर्ट ने 1984 में सिखों के सामूहिक हत्या का तुलना आजादी के बाद भारत में में भड़की हिंसा से की। जिसमें लाखों लोगों की मौत हुई थी। कोर्ट ने अपने नोट में कहा कि, 1947 के गर्मियों में विभाजन के समय देश इस तरह के नरसंहार का गवाह बना था। जिसने लाखों को संख्या में हिंदू , मुस्लिम और सिखों की मौत हुई थी। उसके 37 साल साल बाद देश फिर एक बार इस तरह की एक और विशाल मानव त्रासदी का गवाह बना। भारत में, नवंबर 1984 में हुए दंगों में दिल्ली 2733 और देश भर में 3350 सिखों का कल्तेआम हुआ। यह ना तो अपनी तरह का पहला कत्लेआम था और दुर्भाग्य से ना ही आखिरी।
पूरे देश में हजारों सिखों को मार दिया गया
अदालत ने याद किया कि, 31 अक्टूबर 1984 की सुबह तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के दो सिख अंगरक्षकों ने उनकी हत्या कर दी थी, जिसके बाद देश भर में एक सांप्रदायिक उन्माद शुरू हो गया था। कोर्ट ने कहा कि, चार दिनों, उस साल एक नवंबर से लेकर 4 नवंबर तक पूरी दिल्ली में 2733 सिखों को हत्या कर दी गई, उनके घरों को तबाह कर दिया गया। यहीं नहीं पूरे देश में हजारों सिखों को मार दिया गया।
हिंसा को राजनीतिक रूप से संरक्षित किया गया
हाईकोर्ट ने कहा कि दंगों को अंजाम देने वाले राजनीतिक संरक्षण के कारण बचते रहे और पुलिस ने उनकी मदद की। दस कमेटियों और आयोगों की जांच के बाद इसकी जिम्मेदारी 2005 में सीबीआई को सौंपी गई। सीबीआई ने दंगों के 21 साल बाद जांच शुरू की। इन खौफनाक जन अपराधों की साजिश रचने वालों को राजनीतिक शह प्राप्त थी और अलग-अलग कानून एजेंसियों से मदद मिलती रही। दो दशक से ज्यादा समय तक अपराधी मुकदमों और अभियोजन से बचते रहे।
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कोर्ट ने गवाहों की सराहना की
कोर्ट ने कहा कि यह मानवता के प्रति अपराध था और इसके दोषियों को अंजाम तक पहुंचाने में चश्मदीद गवाहों की बहादुरी व लगन की अहम भूमिका रही है। दंगों के दोषियों को अंजाम तक पहुंचाने में तीन दशक से ज्यादा समय लगा और इस दौरान न्यायिक प्रणाली की कई बार परीक्षा हुई लेकिन लोकतंत्र में अपराधियों को सजा दिलाना बेहद जरूरी है। दूसरी ओर पीड़ितों के मन में यह विश्वास पैदा करना जरूरी है कि सच्चाई जिंदा रहेगी और न्याय जरूर होता है। कोर्ट ने कहा कि 1993 के मुंबई, 2002 के गुजरात, 2008 के कंधमाल और 2013 के मुजफ्फरनगर दंगों में भी कत्लेआम का ऐसा ही पैटर्न मिलता है।
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