10% सर्वण आरक्षण: राजनीतिक बेचैनी का ये लक्षण ही लगता है- नज़रिया
आठ जनवरी को संसद के मौजूदा सत्र का आखिरी दिन है. आख़िरी दिन इस तरह के संविधान संशोधन जैसे बड़े फैसले संभव नहीं दिखते हैं.
देश में आरक्षण की राजनीति एक दिलचस्प दौर से गुजर रही है.
सरकारी नौकरियों में आरक्षण पर बात होती है जबकि सरकारी नौकरियों में रोजगार के अवसर लगातार घटे हैं.
नरेंद्र मोदी की सरकार का सामान्य वर्ग को सरकारी नौकरियों और शिक्षण संस्थानों में दस प्रतिशत आरक्षण देने का फैसला अगामी लोकसभा चुनाव में कामयाबी हासिल करने के इरादे से तो लिया गया है लेकिन इसके नतीजे उल्टे भी हो सकते हैं.
11 दिसंबर को मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव में हार के नतीजों ने भारतीय जनता पार्टी को लोकसभा में जीत हासिल करने के लिए वोट बैंक का नए सिरे से पुख्ता जुगाड़ करने के लिए बाध्य कर दिया है.
साल 2014 के लोकसभा चुनाव में भारतीय जनता पार्टी को देश की आबादी के लगभग 11.5 प्रतिशत सवर्ण तबके का एकजुट समर्थन मिला था.
लेकिन पिछले साढ़े चार वर्षों के दौरान विभिन्न वजहों से सवर्ण मतदाताओं का आधार भारतीय जनता पार्टी से छिटका है.
सुप्रीम कोर्ट के दलित एक्ट के खिलाफ फैसले ने भारतीय जनता पार्टी को बड़ी दुविधा में डाल दिया था.
क्योंकि सुप्रीम कोर्ट के फैसले के ख़िलाफ़ दो अप्रैल 2018 को जब बहुजन संगठनों ने अप्रत्याशित देशव्यापी आंदोलन किया तो नरेंद्र मोदी की सरकार को सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के ख़िलाफ़ संसद में संविधान संशोधन लाना पड़ा.
आरक्षण का सिद्धांत
दूसरी तरफ़, सवर्णों के जातिगत संगठनों ने नरेंद्र मोदी की सरकार के संविधान संशोधन का विरोध किया और मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान के विधानसभा चुनावों में भारतीय जनता पार्टी को हराने का ऐलान किया.
भारतीय जनता पार्टी आरक्षण के सिद्धांत के विरोध में रही है.
बिहार विधानसभा के पिछले चुनाव में राष्ट्रीय स्वंय सेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत ने जब बहुजनों के आरक्षण के संवैधानिक सिद्धांत की समीक्षा करने पर जोर दिया था तो नतीजे के तौर पर बिहार में भारतीय जनता पार्टी को बहुजन मतों से हाथ धोना पड़ा था.
तब से भारतीय जनता पार्टी बहुजनों के लिए आरक्षण का विरोध करने के बजाय बहुजनों के आरक्षण को कई हिस्सों में बांटने की कोशिश में लगी हुई है.
पिछड़े वर्ग के आरक्षण को कई हिस्सों में बांटने के लिए पूर्व न्यायाधीश जी रोहिणी की अध्यक्षता में एक आयोग अपनी रिपोर्ट को अंतिम रूप देने में लगा है.
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महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण
उत्तर प्रदेश में योगी आदित्यनाथ की सरकार भी पिछड़े वर्गों के आरक्षण को कई हिस्सों में बांटने के प्रयास में लगी है.
लेकिन दूसरी तरफ़, भारतीय जनता पार्टी उन जातियों को आरक्षण देने के धड़ाधड़ फैसले कर रही है जो संविघान के मुताबिक आरक्षण के हकदार नहीं हो सकते हैं.
इनमें महाराष्ट्र में मराठा आरक्षण का उदाहरण सबसे ताज़ा है. संविधान में शैक्षणिक और सामांजिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए सरकारी नौकरियों में विशेष अवसर देने का प्रावधान है.
लेकिन 1978 में देश के विभिन्न राज्यों में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने के विरोध में होने वाले आंदोलनों से निपटने के लिए आर्थक रूप से पिछड़ी जातियों को आरक्षण देने की मांग की जाती रही है.
उस दौरान जनसंघ ने, जिस नाम से भारतीय जनता पार्टी पहले जानी जाती थी, बिहार और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों में चुनी गई सरकारें गिराने में अहम भूमिका अदा की थी.
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मंडल आयोग
साल 1991 में विश्वनाथ प्रताप सिंह की सरकार ने मंडल आयोग की अनुंशंसाओं को लागू कर सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्ग को आरक्षण दैने का फैसला किया था तो उसके विरोध में उस समय भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष ने साम्प्रदायिक कार्ड खेलते हुए अयोध्या तक के लिए राम रथ यात्रा निकाली थी.
संवैधानिक रूप से सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के अलावा आर्थिक पिछड़ेपन को आधार बनाकर देश के कई राज्यों में आरक्षण देने की राजनीतिक पार्टियों ने कोशिश की है लेकिन उन्हें अदालतो में मुंह की खानी पड़ी है.
मुसलमानों को आर्थिक पिछड़ेपन के आधार पर ही आरक्षण देने की कोशिश भी विफल हुई है.
केंद्र में रोज़गार के अवसर पैदा करने में विफलता की आलोचना झेल रही नरेंद्र मोदी की सरकार ने गरीब सवर्णों यानी सामाजिक स्तर पर वर्चस्व रखने वाली लेकिन आर्थिक रूप से पिछड़े सदस्यों के लिए नौकरियों और शैक्षणिक संस्थानों में दस प्रतिशत का आरक्षण देने का फैसला कर रही है.
जबकि मंडल आयोग की अनुशंसाओं के लागू होने के बाद इंदिरा साहनी के मामले पर एक फैसले में सुप्रीम कोर्ट ने आरक्षण की सीमा 50 प्रतिशत से कम निर्धारित कर दी है.
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तमिलनाडु मॉडल
हालांकि तमिलनाडु में 67 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था है लेकिन वह संविधान के उन प्रावधानों के हवाले से है जिन्हें न्यायालयों में चुनौता नहीं दी जा सकती है.
नरेंद्र मोदी की सरकार सवर्णों को आर्थिक आधार पर फैसला देने के लिए चाहे जो कानूनी रास्ता अपनाए लेकिन किसी भी वर्ग के आरक्षण के लिए दो शर्ते अनिवार्य हैं.
पहला कि उसके लिए संविधान में प्रावधान होना चाहिए. दूसरा उसके लिए एक आधार दस्तावेज तैयार होना चाहिए.
संविधान की व्यवस्था के अनुसार पिछड़े वर्गों को आरक्षण देने के लिए पहले काला कालेलकर आयोग का गठन किया गया था और उसके बाद 1978 में बीपी मंडल आयोग का गठन किया गया था.
महाराष्ट्र में भी मराठों के आरक्षण देने के राजनीतिक फैसले से पहले एक आयोग का गठन किया गया.
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बहुजनों का आरक्षण
सवर्णों को आरक्षण देने के फैसले के पहले इस तरह का कोई आधार दस्तावेज तैयार नहीं किया गया है जिसके आधार पर भी केंद्र सरकार के इस फैसले को न्यायालय में चुनौती दी जा सकती है.
नरेंद्र मोदी की सरकार के इस फैसले का उलटबार भी हो सकता है.
सवर्ण मतदाताओं को अपने पक्ष में एकजुट करने का प्रयास और दूसरी तरफ बहुजनों के आरक्षण को कई हिस्सों में बांटकर उन्हें राजनीतिक तौर पर बिखेरने की योजना भारतीय जनता पार्टी के लिए एक नाकारात्मक चुनावी संदेश साबित हो सकता है.
नरेंद्र मोदी की सरकार के दौरान पदोन्नति में आरक्षण नहीं देने के विरोध में आंदोलनों का सिलसिला चला है. बहुजनों के लिए आरक्षित हजारों सीटें सालों से खाली पड़ी है और संसद में भी इस मुद्दे को उठाया जाता रहा है.
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शीतकालीन सत्र
नरेंद्र मोदी की सरकार के इस फैसले के बारे में एक गौरतलब तथ्य ये भी है कि संसद के शीतकालीन सत्र के आख़िरी दिन से एक दिन पहले ये फैसला किया गया है.
आठ जनवरी को संसद के मौजूदा सत्र का आखिरी दिन है. आख़िरी दिन इस तरह के संविधान संशोधन जैसे बड़े फैसले संभव नहीं दिखते हैं.
देश में आरक्षण की राजनीति एक दिलचस्प दौर से गुजर रही है.
सरकारी नौकरियों में आरक्षण पर बात होती है जबकि सरकारी नौकरियों में रोजगार के अवसर लगातार घटे हैं.
दूसरी तरफ़, संविधान में निजी कंपनियों में आरक्षण का प्रावधान नहीं है और सामाजिक न्याय की राजनीतिक करने वाले राजनेता 1991 से लगातार निजी कंपनियों में सामाजिक और शैक्षणिक स्तर पर पिछड़े वर्गों को आरक्षण दिलाने का प्रलोभन देते आ रहे हैं.