Hindi Diwas 2019: जब फिल्म 'शोले' ने तमिलनाडु में मनाई थी गोल्डन जुबली, लोग बोलने लगे थे गब्बर के डायलॉग
नई दिल्ली। हिंदी के प्रचार-प्रसार में फिल्मों का भी बहुत बड़ा योगदान है। फिल्मों की वजह से हिंदी का विरोध करने वालों लोगों ने इस भाषा को सीखा और समझा। दक्षिण के राज्यों में राजनीति कारणों से हिंदी के खिलाफ आंदोलन किया जाता रहा लेकिन फिल्मों की अपार लोकप्रियता ने इस आंदोलन को बेअसर कर दिया। तमिलनाडु में हिंदी के खिलाफ सबसे अधिक अभियान चलाया गया लेकिन भारत की कालजयी फिल्म 'शोले' ने इस राज्य के तीन शहरों में गोल्डन जुबली (लगातार 50 सप्ताह) मना कर तहलका मचा दिया था।
तमिलभाषी लोग बोलते थे 'शोले' के संवाद
तब इस फिल्म का कमाल ये था कि तमिलभाषी लोग अपनी टूटीफूटी हिंदी में इस फिल्म के मशहूर डायलॉग बोलने लगे थे। तमिल लोगों को न तो हिंदी सिखायी गई, न तो पढ़ाई गई लेकिन शोले के ठाकुर, वीरू, जय, गब्बर, सांभा, कालिया, सूरमा भोपाली, जेलर असरानी और बसंती जैसे पात्रों उन्हें इस भाषा को बोलने पर मजबूर कर दिया।
शोले देख कर 30 करोड़ लोगों ने हिंदी को जाना
हिंदी सिनेमा के इतिहास में फिल्म शोले एक स्वर्णीम अध्याय है। इस फिल्म को करीब 30 करोड़ लोगों ने देखा था। दुनिया के अधिकतर देशों की इतनी आबादी भी नहीं है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि इस फिल्म ने हिंदी को कितने लोगों तक पहुंचाया। यह फिल्म किसी साहित्यिक रचना पर आधारित नहीं थी, बल्कि विशुद्ध रूप से एक मारधाड़ वाली मसाला फिल्म थी। लेकिन इसके बावजूद इसने हिंदी को कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक फैलाया। विदेश तक शोहरत दिलायी। ‘शोले' 15 अगस्त 1975 को रिलीज हुई थी।
‘शोले' ने रचा था इतिहास
स्वतंत्रता दिवस के दिन रिलीज हुई इस फिल्म ने शुरू में साधारण प्रदर्शन किया। बाद में इसमें कुछ और रीलें जोड़ी गयीं। फिर तो इसने इतिहास रच दिया। इस फिल्म ने तमिलनाडु के चेन्नई (तब मद्रास), कोयम्बटूर और मदुरै में गोल्डन जुबली मनायी। पूरे भारत में इस फिल्म ने 60 से अधिक शहरों में गोल्डन जुबली का रिकॉर्ड बनाया। 125 से अधिक शहरों में लगातार 25 सप्ताह (सिल्वर जुबली) तक चली। बाद में फिल्म शोले को लेकर कुछ रिसर्च ही हुए। एक अनुमान के मुताबिक इस फिल्म को करीब 30 करोड़ लोगों ने देखा था।
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फिल्म 'शोले' का करिश्मा
ब्लॉगर सुधांशु अजारिया ने फिल्म शोले और हिंदी को लेकर एक दिलचस्प जानकारी दी है। इसके बारे में हिमांशु ने 15 अगस्त 2016 ने लिखा था। फिल्म शोले 15 अगस्त को ही रिलीज हुई थी और इस मौके पर उन्होंने अपना संस्मरण साझा किया था। 1993-94 के दौरान वे पौलैंड में पढ़ाई कर रहे थे। इस बीच उन्हें मालूम हुआ कि किसी अरेबियन सेटेलाइट चैनल पर फिल्म शोले का प्रसारण होने वाला है। सुधांशु और उनके अरेबियन साथी फिल्म देखने के लिए उत्साहित हो गये। 20 साल पुरानी हो चुकी इस फिल्म को लेकर दूसरी पीढ़ी में भी पहले जैसी ही उत्सुकता बरकार थी। शाम को पहले ही खाना कर सभी आठ-दस लोग ‘शोले' का आनंद लेने के लिए टीवी के सामने बैठ गये।
'शोले' ने ही हिंदी को दक्षिण भारत में स्थान दिलाया
यूरोप में भी शोले की दीवानगी हैरान करने वाली थी। इस फिल्म के एक्शन, संवाद, और अभिनय को कभी भुलाया नहीं जा सकता है। 2011-12 के दौरान सुधांशु चेन्नई में रहते थे। उन्हें जान कर बेहद आश्चर्य हुआ कि 41 साल बाद भी तमिलनाडु के लोग ‘शोले' की बात करते हैं। तमिलनाडु के पोलिटिशियन भले हिंदी का विरोध करें लेकिन वहां के लोगों को इसे स्वीकार करने में कोई परेशानी नहीं है। यह सब कुछ संभव हुआ हिंदी सिनेमा की वजह से। जो काम हिंदी के शैक्षणिक संस्थान नहीं कर सके उसे फिल्मों ने मुमकिन कर दिखाया। ऐसा नहीं कि केवल शोले ने ही हिंदी को दक्षिण भारत में स्थान दिलाया। फिल्म ‘हम आपके हैं कौन', ‘दिल वाले दुल्हिनिया ले जाएंगे', ‘बॉर्डर' , ‘लगान' भी साउथ में हिट ही थीं लेकिन वे ‘शोले' का करिश्मा नहीं दुहरा पायीं। राजनीति ने हिंदी के खिलाफ जो दीवार खड़ी की थी उसे सबसे पहले ‘शोले' ने ही गिराया था।
हिंदी का विरोध क्यों ?
भारत की शिक्षा नीति -2019 के ड्राफ्ट में त्रिभाषा फारमूले का प्रस्ताव दिया गया है। नयी शिक्षा नीति में गैर हिंदीभाषी राज्यों के लिए वहां की स्थानीय क्षेत्रीय भाषा, अंग्रेजी और हिंदी को शामिल करने की बात कही गयी है। तमिलनाडु के लिए तमिल, अंग्रेजी और हिंदी का प्रस्ताव है। लेकिन तमिलनाडु में इसका प्रस्ताव का विरोध किया जा रहा है। वहां के राजनीतिक दलों का आरोप है कि तमिलनाडु पर हिंदी थोपी जा रही है। दक्षिण में हिंदी का सबसे अधिक विरोध तमिलनाडु में ही हो रहा है। वहां केवल तमिल और अंग्रेजी को स्वीकार करने की बात कही जा रही है। ये कितनी अजीब बात है कि जिस राज्य की जनता हिंदी को प्रेम से स्वीकार कर रही है उसमें द्रमुक और अन्ना द्रमुक अड़ंगा डाल रहे हैं। अभिताभ बच्च्न और शशि कपूर की सुपर हिट फिल्म ‘दीवार' ने भी भाषायी नफरत की दीवार गिरायी थी। इस फिल्म का तमिल रिमेक बना था जिसमें रजनीकांत ने अमिताभ बच्चन वाली भूमिका निभायी थी। ये फिल्म भी बहुत कामयाब हुई थी।
हिंदी और तमिल का भेद खत्म हो गया था लेकिन..
तब तो हिंदी और तमिल का भेद खत्म हो गया था। मशहूर निर्देशक मणिरत्नम तमिल मूल के ही हैं जिन्होंने ‘रोजा' , ‘बॉम्बे' , ‘दिल से' जैसी सुरहिट फिल्म बनायीं। उनके लिए तो हिंदी स़ृजन का सबसे मजबूत आधार है। रजनीकांत और कमल हासन भी तमिल मूल के ही फिल्मकार हैं जो हिन्दी में सफल हुए। इसके अलावा वैजयंतीमाला, रेखा, हेमा मालिनी, श्रीदेवी जैसी तमिल मूल की अभिनेत्रियों ने हिंदी फिल्मों में बड़ा मुकाम बनाया। जब तमिलनाडु में हिंदी फिल्में मजे से स्वीकार की जा सकती हैं तो फिर हिंदी को अपनाने मैं क्या हर्ज है ? दरअसल तमिलनाडु में हिंदी विरोध ही वहां की राजनीति का आधार रहा है। इस राजनीति की वजह से हिंदी का बहुत नुकसान हुआ है। महात्मा गांधी कहते थे कि हिन्दी, देश की भाषा है लेकिन अब उनके विचारों से किसको मतलब है।
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