क्या हिमाचल चुनाव में कांग्रेस की नैया को पार लगा पाएंगे नए प्रभारी शिंदे?
कांग्रेस की ओर से हाल ही में नियुक्त किये गये महासचिव सुशील कुमार शिंदे की हिमाचल में पार्टी प्रभारी के तौर पर नियुक्ति के बाद उनके लिये पार्टी को दोबारा सत्ता में लाना किसी चुनौती से कम नहीं है।
शिमला। कांग्रेस की ओर से हाल ही में नियुक्त किये गये महासचिव सुशील कुमार शिंदे की हिमाचल में पार्टी प्रभारी के तौर पर नियुक्ति के बाद उनके लिये पार्टी को दोबारा सत्ता में लाना किसी चुनौती से कम नहीं है। शिंदे के लिये सबसे बड़ा पेचीदा काम तो यह रहेगा कि चुनाव की दहलीज पर बैठे हिमाचल प्रदेश में कांग्रेस पार्टी के सभी गुटों को एक मंच पर लाया जाये जो टेढ़ी खीर ही साबित होगा।
पहाड़ की राजनीति महाराष्ट्र से अलग
शिंदे
को
भले
ही
पार्टी
का
तजुर्बेकार
नेता
माना
जाता
रहा
हो
लेकिन
पहाड़
की
राजनीति
का
भेद
पाना
उनके
लिये
आसान
नहीं
है।
महाराष्ट्र
जैसे
राज्य
की
राजनीति
से
हटकर
पहाड़
की
राजनीति
कुछ
अलग
ही
है।
अपने
पहले
दौरे
के
दौरान
शिमला
में
आज
व
कल
जो
उन्होंने
देखा,
वह
पार्टी
की
सेहत
के
लिये
ठीक
नहीं
माना
जा
सकता
है।
हिमाचल
में
कांग्रेस
साफ
तौर
पर
वीरभद्र
सर्मथक
व
विरोधियों
के
तौर
पर
दो
खेमों
में
बंटी
हुई
है।
शिंदे
को
हाल
ही
में
अंबिका
सोनी
की
जगह
पार्टी
का
प्रभारी
बनाया
गया
है।
अंबिका
सोनी
ने
अपनी
बीमारी
का
हवाला
देकर
अपना
पदभार
छोड़ा
है।
लेकिन
पर्दे
के
पीछे
की
बात
कही
जा
रही
है
कि
अंबिका
सोनी
ने
मुख्यमंत्री
वीरभद्र
सिंह
के
अड़ियल
रवैये
के
चलते
ही
अपनी
जिम्मेवारी
से
मुक्ति
ली।
दरअसल
कांग्रेस
आलाकमान
खासकर
पार्टी
उपाध्यक्ष
राहुल
गांधी
वीरभद्र
सिंह
पर
चल
रहे
भ्रष्टाचार
के
मामलों
के
चलते
अगले
चुनावों
के
लिये
खुली
कमान
देने
के
हक
में
नहीं
हैं।
प्रदेश
के
राजनीतिक
हालात
ऐसे
नहीं
हैं
कि
वीरभद्र
को
आसानी
से
सक्रिय
राजनिति
से
हटाया
जा
सके।
न
तो
वीरभद्र
सिंह
आसानी
से
हथियार
डालने
को
तैयार
हैं।
यहां
सेंकेंड
लाइन
आफ
लीडरशिप
का
नितांत
अभाव
रहा
है।
पार्टी
अध्यक्ष
सुखविन्दर
सिंह
सुक्खू
भी
अपने
पैर
पूरी
तरह
जमा
नहीं
पाये
हैं।
वीरभद्र
सिंह
पूरी
कोशिश
में
लगे
हैं
कि
आने
वाले
चुनावों
से
पहले
सुक्खू
की
जगह
दूसरे
नेता
को
पार्टी
की
बागडोर
थमाई
जाये।
आलाकमान
के
वरदहस्त
के
बावजूद
सुक्खू
वीरभद्र
सिंह
के
असहयोग
अंदोलन
के
चलते
अपना
प्रभाव
छोड़ने
में
नाकाम
रहे
हैं।
यही
वजह
है
कि
शिंदे
के
लिये
दोनों
गुटों
को
एक
साथ
लाना
आसान
काम
नहीं
है।
इस
पहाड़ी
प्रदेश
में
कांग्रेस
व
भाजपा
बारी-बारी
से
सत्ता
में
आते
रहे
हैं।
कांग्रेस
की
सबसे
बड़ी
चिंता
यही
है
कि
इस
परिपाटी
को
बदला
कैसे
जाये।
यह
उसी
सूरत
में
हो
सकता
है
जब
कांग्रेस
पार्टी
एकजुट
हो
व
सत्ता
विरोधी
लहर
का
प्रभाव
चुनावों
पर
न
हो।
शिंदे के सामने ये हैं बड़ी चुनौतियां
अब
शिंदे
की
नियुक्ति
के
बाद
उनके
लिये
चुनौती
यही
है
कि
आखिर
कैसे
वीरभद्र
सिंह
व
सुक्खू
को
एक
साथ
एक
मंच
पर
लाया
जाये।
दोनों
नेता
किसी
भी
सूरत
में
पीछे
हटने
को
तैयार
नहीं
हैं
जिससे
गुटबाजी
सड़कों
पर
आ
गई
है।
हलांकि
पार्टी
आलाकमान
ने
दोनों
नेताओं
को
दिल्ली
बुलाया
था
ताकि
चल
रहे
शीतयुद्ध
को
विराम
लग
सके।
दोनों
नेताओं
को
एक
साथ
चलने
की
नसीहत
दी
गई
है
लेकिन
शिमला
लौटते
ही
मुख्यमंत्री
ने
अपने
तेवर
दिखाने
फिर
शुरू
कर
दिये
हैं।
शिमला
के
एक
राजनैतिक
विशलेषक
ने
कहा
कि
वीरभद्र
सिंह
आज
तुजर्बेकार
व
मजबूत
नेता
हैं।
उनका
प्रदेश
में
अपना
जनाधार
है।
लेकिन
सुक्खू
के
पार्टी
अध्यक्ष
बनने
के
बाद
संगठन
की
ओर
से
उन्हें
कमजोर
करने
के
प्रयास
तो
हुये
लेकिन
कामयाब
नहीं
हो
पाये।
वीरभद्र
सिंह
के
बिना
चुनाव
में
कांग्रेस
पार्टी
जा
पायेगी,
यह
एक
बड़ा
सवाल
है।
हलांकि
दोनों
नेता
अपने
अस्त्तिव
की
लड़ाई
को
अंजाम
तक
पहुंचाने
के
लिये
हस्ताक्षर
अभियान
चला
रहे
हैं
जिससे
वीरभद्र
सर्मथक
परेशान
हैं।
हिमाचल कांग्रेस में वीरभद्र-सुक्खू गुटबाजी
वीरभद्र सिंह सर्मथक दलील दे रहे हैं कि पार्टी में बेहतर सामंजस्य स्थापित करने के लिये चुनावों से पहले पार्टी अध्यक्ष पद से सुक्खू को हटाया जाये व कमान किसी दूसरे नेता को दी जाये। पार्टी में कशमकश का माहौल पिछले दिनों उस समय तैयार हुआ जब शिमला में राष्टरपति चुनाव के लिये मीरा कुमार आई थीं। उस दिन विधायक दल की बैठक के तुरंत बाद वीरभद्र सिंह ने तंज कसा कि प्रदेश में कांग्रेस पार्टी है कहां। उसके बाद पार्टी अध्यक्ष सुक्खू सामने आये तो उन्होंने जवाब दिया कि हिमाचल में पार्टी बूथ मंडल व जिलों में बसती है। उसके बाद पार्टी की पथ यात्रा में नहीं बुलाने की बात सीएम ने की तो सुक्खू ने कहा कि शायद भूल गये होंगे। सूक्खू ने यह बात उनकी उम्र को निशाना बनाकर ही की थी। लेकिन वीरभद्र सिंह भी कहां चुप रहने वालों में थे। उन्होंने भी तुरंत तीर दाग दिया कि उन्हें तो सुक्खू के पैदा होने की तारीख भी याद है। इससे पहले शिमला नगर निगम के चुनावों में भी पार्टी को इसी गुटबाजी की वजह से नुकसान उठाना पड़ा था। जब पार्टी चुनाव हार गई। उस दौरान भी सीएम ने सुक्खू पर हमला बोला था व कहा था कि पार्टी गंभीर होती तो शायद चुनाव नहीं हारते। उसके जवाब में सुक्खू ने कहा कि शिमला ग्रामीण जहां से सीएम विधायक चुन कर आते हैं वहां से पार्टी दो सीटें जीत जाती तो नगर निगम में कांग्रेस काबिज होती।
दोनों नेताओं में ताजा विवाद इसलिये उभरा है कि सुक्खू प्रदेश के हर हल्के में अपने तौर पर सर्वे करवा रहे हैं ताकि पता चल सके कि कौन लोकप्रिय उम्मीदवार है। इसके साथ ही मौजूदा विधायकों की लोकप्रियता का भी आकलन किया जा रहा है। बताया जा रहा है कि इसी सर्वे की रिर्पोट के आधार पर अगले चुनावों में पार्टी टिकट का वितरण करेगी। लेकिन सवाल यह भी है कि आखिर वीरभद्र सिंह नहीं तो और कौन है जो पार्टी को कमांड करेगा?
वीरभद्र को घेरने की कोशिश में भाजपा
दूसरी ओर भाजपा इस पहाड़ी प्रदेश में अपना चुनाव अभियान पहले ही शुरू कर चुकी है। प्रधानमंत्री व पार्टी अध्यक्ष दौरा कर चुके हैं। खुद प्रधानमंत्री नरेन्दर मोदी ने भी शिमला रैली के दौरान वीरभद्र सिंह पर तंज कसते हुये कहा था कि वह पहले ऐसे नेता हैं जो हमेशा वकीलों से घिरे रहते हैं। भाजपा वीरभद्र सिंह की इसी दुखती रग पर हाथ रखकर अपने अभियान को आगे बढ़ा रही है। यही नहीं कोटखाई गैंगरेप मर्डर केस में सीएम की ओर से की गई बयानबाजी का भी सीधा लाभ भाजपा को मिला है। लोगों में संदेश यही गया कि बढ़ती उम्र में वीरभद्र सिंह को पता ही नहीं चल रहा है कि उन्हें बोलना क्या है। शिंदे के सामने यह भी एक चुनौती रहेगी कि वह किस तरह लोगों में कांग्रेस के प्रति विश्वास की भावना को वापिस लौटायें। शिंदे के सामने अपनी सहयोगी प्रदेश मामलों की सह प्रभारी रंजीत रंजन को साथ लेकर चलने की भी चुनौती रहेगी। तेज तर्रार सांसद रंजीत रंजन अपनी आदत के मुताबिक शायद ही किसी की हां में हां बोलकर चलें।
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