महिला दिवस- 'स्वयंवर' से 'स्वयं का वर' तक
बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ का नारा लेकर हमारे प्रधान मंत्री जी ने लोगों के दिमाग में इस सोच का बीज जरुर डाला है की बेटियों को आगे बढ़ा कर ही भारत में तरक्की को सही आयाम या दिशा दी जा सकती है। हमारे यहाँ पुराणों में कहते हैं यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ति तत्र देवता यानी जिस जगह स्त्री की पूजा होती है उसका सम्मान होता है वहां देवता निवास करते हैं। स्त्री को हमारी सभ्यता में गृह लक्ष्मी की उपमा दी गयी है।
तो चलिये महिला दिवस सप्ताह में हम चर्चा करते हैं लड़कियों की शिक्षा पर-
प्राचीन काल में लड़कियों की शिक्षा
प्राचीन काल से ही स्त्री की शिक्षा पर विशेष बल दिया गया है। चाहे वो सीता हो या गार्गी सभी शास्त्रार्थ में माहिर थी। विद्योत्मा जैसी विदुषी नारी का उदाहरण आज भी दिया जाता है। उन्हें कई विशेषाधिकार भी प्राप्त थे। अपने लिए वर का चुनाव वे उसकी विद्वता और शौर्य व पराक्रम के बल पर स्वयं करती थीं, जिसे "स्वयंवर" कहते हैं।
मध्यकाल में लड़कियों की शिक्षा
मध्यकाल में भारत में स्त्रियों की दशा में काफी गिरावट आई। उसे पर्दे के पीछे रहने पर विवश किया गया। सती प्रथा और बाल विवाह जैसी कुप्रथाओं का चलन बढ़ने लगा।
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फिर धीरे-धीरे बच्चियों को बोझ समझा जाने लगा और कोख में ही उन्हें खत्म क्र देने का रिवाज़ हो गया। यही कारण है कि अंगेजी शासन आते-आते भारत की करोड़ों बेटियां पढ़ाई से महरूम रह गईं। लाखों लड़कियों का पूरा जीवन को चार दीवारी में सिमट गया, कई लाख जीवन पर्यंत चूल्हा फूंकती रह गईं। इसे सामाजिक पीड़ा ही कहेंगे कि जिस लड़की को जिसके साथ चाहा बांध दिया गया।
गुलाम भारत में महिलाओं की शिक्षा
- 1921 में भारत में महिला साक्षर दर मात्र 2 प्रतिशत थी। वो भी तब लड़कियां घर पर ही पढ़ती थीं।
- 1854 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने लड़कियों की पढ़ाई पर बल दिया, लेकिन केवल अमीर घरों की बेटियों के लिये।
- 1948 में ज्योतिबा फूले और उनकी पत्नी सवित्री बाई ने देश का पहला बालिका विद्यालय पुणे में खोला।
- 1878 में कलकत्ता विश्वविद्यालय देश की पहली यूनिवर्सिटी बनी, जिसने स्नातक कक्षाओं में महिलाओं को एडमीशन देना शुरू किया।
- 1879 के बाद से ब्रिटिशकाल के अन्य विश्वविद्यालयों ने भी लड़कियों के लिये दरवाजे खोल दिये।
- 1928 में दिल्ली में किसी महिला को दाखिला देने वाला पहला कॉलेज सेंट स्टीफेंस कॉलेज बना।
- 1947, जब अंग्रेजी शासन समाप्त हुआ, उस वक्त भारत में महिला साक्षर दर मात्र 6 प्रतिशत थी।
आज़ाद भारत में पढ़ने निकलीं बेटियां
भारत आजाद हुआ। सरकार और समाज सुधारकों ने महिला साक्षरता की दिशा में प्रयास तेज कर दिये। यहां तक कई ऐसे प्रावधान कर दिये गये, कि अगर किसी ने लड़की को पढ़ाई करने से रोका, तो उसे कड़ी सजा दी जायेगी, लेकिन लड़कियों को आगे न बढ़ने देने की सोच ने देश की विकास में बहुत हानि पहुंचाई। शायद इसीलिये आज भी भारत की 100 प्रतिशत महिलाएं साक्षर नहीं हैं।
लेकिन हां कुछ तथ्य हैं, जिन्हें जानकर अच्छा लगता है-
- भारत की आजादी के 10 वर्ष बाद तक महिला साक्षरता दर 8.9% थी।
- 1958 में पहली बार नेशनल कमेटी ऑन विमेन एजूकेशन की स्थापना की गई।
- 1950-51 में 54 लाख लड़कियों का प्राइमरी एजूकेशन में एडमीशन हुआ।
- 2004-05 में 6.11 करोड़ लड़कियों का प्राइमरी एजूकेशन में एडमीशन हुआ।
- 2001-2011 के बीच महिला साक्षरता दर (11.8%) में बढ़ोत्तरी पुरुष साक्षरता दर (6.9%) से ज्यादा रही।
- 2011 की जनगणना में भारत की महिला साक्षरता दर 65.46% रही।
क्या कर रही है वर्तमान सरकार
आज सरकार बेटी को बचाने और बेटी को पढ़ाने की अनोखी मुहीम पर है। कई वजहें हैं जिन कारणों से लडकियाँ अपनी शिक्षा को आगे नहीं बढ़ा पातीं। इनमें से स्वास्थ्य और शौचालय बड़ी वजहें हैं। भारत सरकार ने गाँवों और दूर दराज के इलाकों में शौचालय का उत्तम प्रबंध करने पर बल दिया है, जिससे इन्हें मासिक धर्म के कारण शिक्षा में आने वाली रुकावटों से छुट्टी मिलेगी।
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मुफ्त शिक्षा‚ स्कालरशिप और कन्या विद्या धन जैसी कई नयी स्कीम हैं, जो केंद्र व राज्य सरकारें बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ की मुहीम को सफल बना रही हैं।
कहते हैं स्त्री-पुरुष जीवन-रूपी रथ के दो पहिये हैं, इसलिए पुरुष के साथ-साथ स्त्री का भी शिक्षित होना उतना ही जरुरी है। यदि माता सुशिक्षित होगी तो उसकी संतान भी सुशील और शिक्षित होगी। शिक्षित गृहणी पति के कार्यों में हाथ बंटा सकती है, परिवार को सुचारु रूप से चला सकती है।
महिला-शिक्षा प्रसार होने से नारी आर्थिक दृष्टि से आत्मनिर्भर बनी है, बल्कि अपने अधिकारों और कर्त्तव्यों के प्रति ज्यादा सचेत हुई है, और तो और यह शिक्षा ही है, जो स्त्री को "स्वयं का वर" चुनने की आज़ादी फिर से दे रही है।
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