कब आयेगा वो दिन जब सही मायने में होंगी महिलाएं आजाद?
आँचल प्रवीण
लखनऊ। महिलाओं के सशक्तिकरण का दौर है, हर ओर कोलाहलल मचा है, कहीं कोई मंत्री या नेता महिलाओं को पुरुस्कृत कर रहा है तो कहीं प्रतियोगिताएँ हो रही अपने अपने क्षेत्र में महिलाओं की भागीदारी दिखाने के लिए, वर्तमान में हर कोई बस वीमेन एम्पावरमेंट के मुद्दे को अपनी अपनी तरीके से भुनाने में लगा है | एक ओर टीवी के दर्शकों को एक ऐसी महिला के रोज़ दर्शन होते हैं जो किसी भी मामले में झाँसी की रानी से कम नहीं।
दिन भर कांजीवरम की साडी पहने एंटीक जेवर पहने महंगे मोबाइल लिए महंगी गाड़ियों में बे रोक टोक आती जाती है,घर में किसी काम से उनका कोई सरोकार नहीं क्योंकि एक रामू काका हर दम तैनात रहते हैं, हां घर के मसले वो तुरंत हल कर लेती हैं अगर उसके पति को किसी डायन ने पकड़ लिया हो या किसी को साज़िशे करते हुए रंगे हांथो पकड़ना हो | वो सजावट की मूर्ती तुरंत वीरान सुनसान इलाकों में जाकर पुलिस से पहले सारी गुत्थी सुलझा लेती है।
हर रिश्ते की पहली कड़ी हो तुम मेरे दोस्त!
अब इस कथन से दो बातें स्पष्ट होती है की या तो देश की पुलिस और सुरक्षा इतनी कमजोर है की एक घरेलु औरत उसे पहले सुलझा लेती है परन्तु इस बिंदु पर मैं कोई भी टिप्पणी नही करुँगी | दूसरी बात यह की क्या यही सशक्त औरत की परिभाषा है जो हमारे टीवी चैनल हमे दिखाते हैं ? मेरे विचार से तो नहीं| शायद आप भी कुच्छ हद तक यही सोचते होंगे |
यदि अपने इर्द गिर्द नजर घुमाएँ तो क्या हम ऐसी एक भी महिला को पातें हैं? नहीं ! हमारी माँ दादी चाची बुआ बहन मामी दोस्त आदि आदि ; इनमे से कोई भी ऐसी तो नहीं दिखती | ना ही वो दिन भर कांजीवरम की साडी पहन कर एंटीक ज्वेलरी पहन कर घुमती हैं न ही वो आराम से बैठ कर साजिशों की गुत्थी सुलझाती हैं क्योंकि उन्हें पता है की यहाँ कोई रामू काका उनकी मदद को नही है | मध्यम वर्ग की औरतें टीवी की मध्यम वर्गीय औरतों की तरह फेशियल ब्लीच करायी हुई दिन भर घूमने वाली औरतों से एकदम अलग हैं|
वो बहुत ही साधारण है | आपकी और हमारी माओं की तरह जो पिता जी की मर्ज़ी के बिना अमूमन एक भी कदम नही लेती | जो 50 वर्ष की आयु में भी ससुराल की बेड़ियों में जकड़ी है | जो अगर बाहर काम करने भी निकलती है तब भी घर आकर नख से शिख तक सब कुछ संभालती है क्योंकि बचपन से उसे यह सिखाया गया है की कुछ भी हो घर का काम तो औरतों को ही करना है और उन्हें ही शोभा देता है | ये वो औरत है जो कपड़ों में ज़रा सी गंदगी रह जाने पर घर वालों की डांट सुनती है खाने में नमक कम या ज्यादा होने पर उलाहना सुनती है | बे फ़िज़ूल के रीती रिवाज़ जो उसे व्यावहारिक नहीं लगते उन्हें करने के लिए बाधित रहती है | चूड़ी बिंदी बिछिया पायल जैसी खूबसूरत बेड़ियों में जकड़ी रहती है | जो भले ही दफ्तर में एक बेहतरीन एम्प्लोई हो लेकिन घर में वो सिर्फ एक काम करने की मशीन बन कर रह जाती है | हां ये वही महिला है जो हमारे आसपास पाई जाती है | आप सोच रहे होंगे की आज के ज़माने में ऐसा कहाँ होता है | पर जनाब नज़र घुमाइए ज़रा गौर से देखिये आज भी आपको ऐसी औरतें मिलेंगी और बहुतायत में मिलेंगी |
सवाल ये है की इनका सशक्तिकरण कब होगा, क्या पढ़ लिख जाने से या नौकरी करने की आज़ादी मिलने से वो सशक्त हो गयी है | पर विचारों की स्वतंत्रता तो अब तक नहीं है उसके पास | कोल्हू के बैल की तरह जुटी तो वो आज भी रहती है | इस परिश्रम को नापने का यदि कोई यंत्र हो तो मालूम हो जाए की घर के किसी भी और सदस्य से ज्यादा श्रम उसके हिस्से में आता है जिसका कोई मोल नही है | क्या इस सशक्ति करण के पीछे भी पुरुष सत्तात्मक सोच नहीं दिखती आपको।
हमारे समाज में आज भी विधवा को चटख रंग पहनने की छूट नहीं है, वो चूड़ी नही पहनती बिंदी नही लगाती बिछिये नही पहनती क्योंकि ये सब उसके पति के साथ खत्म हो गयी, वहीँ अगर एक सुहागन औरत चूड़ी बिंदी बिछिया न पहनना चाहे अलता न लगाना चाहे तो वो कुलक्षिणी है | मतलब की सब कुछ जाकर पुरुष पर ही रुक जाता है ; औरत की अपनी कोई सोच नहीं कोई इच्छा नहीं, क्या यह पुरुष सत्तात्मक सोच नहीं? क्या यह सशक्तिकरण है ? आपको नहीं लगता की यह सब बातें स्वतः होनी चाहिए थोपी हुई नहीं | थोपी हुई सोच बेड़ियों में जकड़ने के समान होती है और सबसे दुखदायी बात तो यह है की इस पुरुष सत्तात्मक सोच को आगे बढ़ाने का ठेका खुद महिलाओं ने उठा रखा है |
व्यर्थ के रीती रिवाजों में जिनमे वे जकड़ी थी उसने आज अपनी अगली पीढ़ी को बाँध रखा है | माएं अपनी बेटियों को हमेशा त्याग की मूर्ति बनने की शिक्षा देती है | बदलाव तब होगा जब वो अपनी बेटी को गलत बात न सहने की सीख देगी| कोई सरकार कोई मंत्री कोई नेता कोई व्यापारी कोई भी रोल मॉडल क्या ये बता सकता है की इन औरतों का सशक्ति करण कब होगा? इनका सशक्तिकरण देश बदलेगा | इस विषय में युवाओं को ही कदम उठाना होगा चाहे इसके लिए उन्हें बागी क्यों न बनना पड़े?