Never Say Die: वायुसेना से रिटायर उत्तराखंड के नरेश, कैसे कुछ 'खास' लोगों सपनों को देते हैं पंखों की उड़ान
नई दिल्ली। भारतीय वायुसेना (आईएएफ) दुनिया की ताकतवर सेनाओं में से एक है और इसके सैनिक भी सर्वश्रेष्ठ हैं। आईएएफ के सैनिक फौज में रहते हुए देश की सेवा में अपना बेस्ट दे रहे हैं तो ऐसे लोग भी हैं जो फौज तो छोड़ चुके हैं, लेकिन आज भी अपनी पहचान अपने बेस्ट कामों से बनाए हुए हैं। ऐसे ही एक फौजी हैं नरेश नयाल जो 15 साल की सर्विस के बाद आईएएफ से रिटायर हो गए हैं। रिटायरमेंट के बाद भी नरेश उन सिद्धांतों और उस प्रोफेशनलिज्म को आगे बढ़ा रहे हैं जो आईएएफ की ड्यूटी ने उन्हें सिखाए हैं। उत्तराखंड के नरेश उन लोगों की जिंदगी संवार रहे हैं जो देख नहीं सकते लेकिन उनकी आंखों में सपने बेशुमार हैं।
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जिंदगी का मिशन अब हुआ खास
वेटरन मेजर (रिटायर्ड) डीपी सिंह के साथ खास बातचीत में नरेश ने अपने इस खास 'मिशन' के बारे में खुलकर बताया तो अब उनकी जिंदगी बन चुका है। नरेश, उत्तराखंड की राजधानी देहरादून स्थित नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर एम्पावरमेंट ऑफ पर्संस विद विजुअल डिस्एबिलिटीज (NIEPVD) में बतौर फिजिकल एजुकेशन इंस्ट्रक्टर तैनात हैं। 15 साल इंडियन एयरफोर्स में बिताने के बाद अब वह उन लोगों को ट्रेंनिंग देते हैं जो देख नहीं सकते। नरेश जिन लोगों को प्रशिक्षित करते हैं, वह ब्लाइंट फुटबॉल टीम के सदस्य हैं। वह सिर्फ एक इंस्ट्रक्टर नहीं हैं बल्कि उन लड़कों और लड़कियों के लिए पिता की तरह बन गए हैं जो नरेश के अंडर ट्रेनिंग ले रहे हैं। टीम का हर सदस्य उनसे अपनी तकलीफ जरूर बताता है। अगर आप नरेश की जिंदगी देखेंगे तो आपको उनमें एक सच्चा सैनिक रिटायरमेंट आज भी नजर आएगा।
बचपन से घर में फौज का माहौल
नरेश, उत्तराखंड के एक छोटे से गांव में पले-बढ़े और बचपन से ही घर में फौज का माहौल था। उनके चाचा असम राइफल्स में थे और पिता सेंट्रल रिजर्व पुलिस फोर्स (सीआरपीएफ) के साथ थे। स्कूल की पढ़ाई गांव से पूरी करने के बाद नरेश चाचा के साथ असम चले गए। उन्हें हिंदी नहीं आती थी मगर वह अपने क्षेत्र की भाषा कुमाऊंनी काफी अच्छी बोल लेते थे। नरेश की मानें तो असम में रहने के दौरान कभी-कभी जब लोग हिंदी भाषा में उनसे उनका नाम पूछते तो इसका जवाब भी उनके पास नहीं होता था। हिंदी न आने के बाद भी हमेशा टॉपर रहे और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लेते। गेम्स और स्पोर्ट्स में भी वह हमेशा आगे रहते थे। वह एक बेहतरीन लेखक भी हैं।
वायुसेना ने दी जिंदगी को नई दिशा
उनके पापा अक्सर उन्हें वायुसेना में जाने के लिए प्रेरित करते थे। पिता जी अखबार में निकलने वाले उन विज्ञापनों की कटिंग बेटे को दिखाते जो आईएएफ में भर्ती से जुड़ी होती थी। वह अपने बेटे नरेश से कुछ नहीं कहते थे कि उन्हें एयरफोर्स में जाना है या नहीं। मगर बेटा अपने पिता के दिल की बात समझ गया। एक दिन भर्ती रैली हुई और बेटा सन् 1998 में एयरफोर्स के लिए चुन लिया गया। ट्रेनिंग पूरी हुई और नरेश दिन पर दिन सफलता की सीढ़ियां चढ़ते गए। वायुसेना में सर्विस के तीन साल बाद उनकी पोस्टिंग बेंगलुरु हुई और उन्होंने फिर से अपनी पढ़ाई पर ध्यान देना शुरू किया। उन्हें यह बात महसूस होने लगी कि अब उन्हें कोच बनकर लोगों को गेम्स और स्पोर्ट्स की ट्रेनिंग देनी चाहिए। उन्होंने कोलकाता स्थित NIS इंस्टीट्यूट से कोच की ट्रेनिंग पूरी की।
हर चुनौती को पूरा करते नरेश
एयरफोर्स से रिटायर होने के बाद वह एक प्रतिष्ठित स्कूल में बच्चों को ट्रेनिंग देने लगे। उनकी पत्नी के भाई के आंखों की रोशनी बहुत कम है। यहां से उन्होंने अपने जीवन को बदलने के बारे में सोचा। उन्हें इंस्टीट्यूट के लिए मौका मिला और नरेश जब देहरादून स्थित इंस्टीट्यूट पहुंचे तो पहली बार उन्होंने उन लोगों को देखा जिनकी आंखों की रोशनी पूरी तरह से जा चुकी थी। इंस्टीट्यूट में इन लोगों को देखकर, जिनकी जिंदगी में कोई रंग नहीं लेकिन फिर भी उन्हें इस बात का अफसोस नहीं होता, नरेश ने भी कुछ अलग करने की ठानी। नरेश की मानें तो वही अलग करने की सोच उन्हें यहां तक लेकर आई है। नरेश की मानें तो कभी-कभी जब ये लोग निराश हो जाते हैं तो उनका मनोबल बढ़ाना उनके लिए चुनौतीपूर्ण होता है। इस मुश्किल को जब वह पार कर लेते हैं तो बेहतरीन नतीजे अपने आप मिलने लगते हैं। नरेश आज कई ऐसे लोगों को ट्रेनिंग दे चुके हैं तो राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर देश का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं या कर रहे हैं।