जब कद-काठी में 'कमजोर' लाल बहादुर शास्त्री के एक 'मजबूत' फैसले से पीछे हटने को मजबूर हुआ पाकिस्तान
नई दिल्ली। आज पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की 115वीं जयंती है। देश उन्हें नमन कर रहा है। वह देश के एक ऐसे राजनेता के तौर पर जाने जाते थे जिन्होंने अपनी सादगी से लोगों का दिल जीता। बहुत कम लोग जानते हैं कि उन्हें 'मैन ऑफ पीस' निकनेम दिया गया था। शास्त्री का अंदाज भले ही सादा था मगर उनके काम करने और कुछ फैसलों ने उन्हें एक आक्रामक नेता की छवि भी दी थी। साल 1965 में जब भारत और पाकिस्तान एक और जंग में आमने-सामने थे तो शास्त्री ने एक फैसला लिया जिसने उन्हें एक नई छवि दी थी। हाल ही में 65 की जंग अपने 55 वर्ष में और ऐसे में आज उस एक किस्से को जानना जरूरी है जो शास्त्री से जुड़ा है। इस जंग के समय शास्त्री देश के प्रधानमंत्री थे।
कश्मीर के सपने को पूरा करने चला था पाकिस्तान
जम्मू कश्मीर हमेशा से पाकिस्तान के लिए एक ऐसे सपने के लिए रहा है जिसे वह किसी भी तरह से बस पूरा करना चाहता है। सन् 1947 में बंटवारे के बाद एक बार फिर 1965 में पाक इसी सपने को पूरा करने निकला था। पाकिस्तान की सेना ने ऑपरेशन जिब्रॉल्टर लॉन्च कर दिया था। लेकिन यह ऑपरेशन फेल हो गया और इसके बाद पाक युद्ध की तरफ बढ़ गया।अमेरिकी लेखक स्टेनले वोलनोर्ट ने अपनी एक किताब में लिखा था, 'पाकिस्तान सेना के जनरल, जनरल अयूब खान लंबे-चौड़े व्यक्ति थे तो शास्त्री का कद छोटा और शारीरिक तौर पर भी थोड़े कमजोर थे। लेकिन भारत की सेना, पाक की तुलना में चार गुना ज्यादा बड़ी थी। वोलनोर्ट के मुताबिक भारत इस स्थिति में था कि वह पाकिस्तान के पंजाब की राजधानी लाहौर पर अगर कब्जा न भी करते तो उसे बड़ा नुकसान पहुंचा सकता था। पाक की सेनाएं जम्मू के कुछ हिस्सों तक आ गई थीं।
शास्त्री के इस फैसले से हैरान रह गए जनरल अयूब
भारत के पूर्व एनएसए जेएन दीक्षित ने लिखा था, 'शास्त्री ने आश्चर्यजनक तौर पर भारती की सेनाओं को जम्मू कश्मीर के अंतरराष्ट्रीय बॉर्डर से आगे जाकर युद्ध लड़ने के लिए अधिकृत कर दिया था।' उन्होंने आगे बताया था कि सेना लाहौर और सियालकोट पर हमले के लिए तैयार भी थी। तभी हैरान पाकिस्तान ने अपनी सेनाओं को जम्मू के छांब और अखनूर सेक्टर से वापस बुला लिया ताकि लाहौर और सियालकोट बचाया जा सके। इस कदम ने उस पाकिस्तान को भी झुकने पर मजबूर कर दिया जो कश्मीर को हासिल करने के लिए किसी भी सूरत तक जाने को तैयार रहता है। विशेषज्ञों की मानें तो इस फैसले के बाद युद्ध में भारत का पलड़ा रणनीतिक तौर पर बहुत भारी हो गया था। इसके बाद यूनाइटेड नेशंस (यूएन) की तरफ से दोनों देशों से युद्धविराम की अपील की गई थी।
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शास्त्री ने कहा, 'जय जवान जय किसान'
ताशकंद समझौते के युद्धविराम की सारी औपचारिकताओं को पूरा किया गया था। 65 की जंग चीन के साथ 1962 में हुए युद्ध के बाद हुई थी। पाकिस्तान को लगता था कि भारत 62 में हुई हार के बाद से हताश होगा और उसे एक और झटका देकर उसका पूरा मनोबल तोड़ा जा सकता है। लेकिन इसके बाद भी शास्त्री ने वह फैसला लिया जो मुश्किल था और वह जरा भी नहीं डिगे। इसी युद्ध के दौरान उन्होंने सैनिकों का मनोबल ऊंचा रखने के लिए नारा 'जय जवान जय किसान' भी दिया। इस नारे के साथ शास्त्री ने न सिर्फ सैनिकों का उत्साह बढ़ाया था बल्कि किसानों को भी प्रोत्साहित किया। जवान देश के लिए लड़कर और उसे सुरक्षित करके खुश थे तो किसान खाद्यान्न उत्पादन बढ़ाकर उत्साहित थे।