जनसंघ की फिलॉसिफी ने दिलायी भाजपा को अभूतपूर्व जीत
125 करोड़ भारतीय- मतलब ज़ात-पात, मज़हब, धर्म से उपर सम्पूर्ण मानव जाति को एक दृष्टि से देखना। या यूं कहे कि दीनदयाल उपाध्याय के बहुचर्चित दर्शन (फिलॉसिफी) "एकात्म-मानववाद" के द्वारा सम्पूर्ण विजय को देखना। "एकात्म-मानववाद" ही वह बहुचर्चित राजनैतिक जीवन दर्शन है जिस पर भारतीय जनता पार्टी और जनसंघ कि राजनैतिक विचारधारा कि नींव टिकी हैं। यह दर्शन बहुआयामी, बहुभाषी, बहुसांस्कृतिक संस्कृति को एक धागे में बांध कर रखने की बात करता हैं।
जनसंघ, भाजपा या फिर संघ और अनेकों संगठनो ने वर्षो इसी दर्शन के पीछे हजारों कार्यकर्ताओं को खपाया। कभी यह दर्शन इंदिरा के तानाशाही के ख़िलाफ आ खड़ा हुआ तो कभी विश्वनाथ प्रताप सिंह के विभाजानकारी नीति के ख़िलाफ। फ़िर भी आप कभी भी यह दावा नहीं कर सकते कि "एकात्म-मानववाद" रूपी दर्शन ने पूरे भारत को अपने मे समा लिया।
नेहरू के समाजवादी मॉडल, इंदिरा के नित्य नये प्रयोग और फिर अलग अलग खिचड़ी सरकारों के अभिनव प्रयोग इस देश के लिये नाकाफ़ी रहे। क़भी चंद्रबाबू नायडु का "विकास" लोगों ने ठुकरा दिया तो कभी मायावती के ज़ात-पात वाले मॉडल को उठा कर फ़ेक दिया। यूं लगा यह देश एक एक प्रयोगों को आज़मा रहा हैं।
इन नये प्रयोगों के बीच समाज के प्रतिमान बड़ी तेज़ी से बदले, टुकड़ों-टुकड़ों में बंटी जातियां और धर्म, क़भी अचानक से बलवती हो उठती तो क़भी उसके चिन्ह गायब हो जाते।
नई पीढ़ी आई, नई दृष्टि आई, इंटरनेट और टेलिकॉम क्रांति ने तो मानो लोगों के देखने के नज़रिये को ही बदल दिया। 1950 से 2000 के बीच दुनिया जितनी ना बदली उस से तेज़ बदलाव 2000 के बाद हुआ। पीढ़ी दर पीढ़ी से चली आ रही परम्परायें किनारे लग गयी।
चाचा नेहरू के जगह ब्रांड मोदी आ गये, यह पूरे के पूरे युग के परिवर्तन के बदलाव का परिचायक है। देखते ही देखते समाज बोलने लगा, वह सड़कों पर दिखने लगा, दिल्ली आंदोलनों से पट गयी। देश मोदी-मोदी के ज्वर में जकड़ गया और देखते ही देखते करोड़ो नये मतदाता भारत का भाग्यविधाता बन बैठे। चुनाव परिणाम के पश्चात पुरानी परम्परायें, ढीले पड़ चुकी साम्यवादी और समाजवादी दर्शन लुढ़क गये। नये युग का आगमन हुआ। वर्षों की साधना का उच्चतम परिणाम आया। अपेक्षाओं के बोझ तले मोदी ने बहुत ही सहज भाव से अपने विजय को 125 करोड़ भारतीयों और 1952 से पार्टी के लिये अपना सर्वस्व न्योच्छावर करने वाले कार्यकर्ताओं और परिवारों को समर्पित कर दिया।
और आखिर नरेंद्र मोदी ऐसा क्यूं ना करें, क्यूं कि वह खुद भी उस एतिहासिक परंपरा और दर्शन के मात्रा एक कड़ी भर है, जिसकी शुरुआत वर्षों पहले दीनदयाल उपाध्याय और श्यामा प्रसाद मूखर्जी ने की और समय दर समय अटल-अडवाणी ने उसको आगे बढ़ाया।
लेखक परिचय- कुनाल किशोर दि न्यू डैल्ही पोस्ट डॉट कॉम संपादक हैं। Twitter contact- https://twitter.com/kunalkishore