हिन्दी दिवस विशेष: हिन्दी क्यों सिमट रही है शरमा के अपनी बाहों में?
नई दिल्ली। हिन्दी दुनिया की अनूठी भाषा है। इकलौती भाषा है जिसके लिए समर्पित रचनाकार तो हैं, पाठक भी हैं लेकिन उस हिन्दी को बोलने वाले नहीं हैं। जो साहित्य, जो भाषा, जो ज़ुबान देवनागरी लिपि में हिन्दी कहलाती हुई लिखी जाती है उसे बोलने वाली आबादी कम से कमतर होती चली जा रही है।
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जब हिन्दी बोलने वाले नहीं होंगे, उनकी संख्या बढ़ने के बजाए घटती चली जाएगी तो हिन्दी के प्रचार-प्रसार का रोना ही तो समारोह कहलाएगा? हिन्दी दिवस ऐसे ही परंपरागत समारोह में बदलता जा रहा है जब हिन्दी के कथित शुभचिन्तक इकट्ठा होकर हिन्दी की दुर्दशा पर रोते हैं।
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बोली और लिखी जाने वाली हिन्दी में बढ़ा है फासला
यह बात थोड़ी गहराई में जाकर समझने वाली है कि क्या वाकई हिन्दी बोलने वाले कम होते चले जा रहे हैं? दरअसल देवनागरी लिपि में हिन्दी के नाम पर जो कुछ लिखा जा रहा है उसमें, और हिन्दी के रूप में जो बोलचाल की भाषा बनी हुई है उसमें- फासला बढ़ता चला जा रहा है। हिन्दी अच्छी और कामचलाऊ के तौर पर बंट गयी है। अच्छी का भ्रम लिखित हिन्दी में पल रहा है और कामचलाऊ हिन्दी का विकास हिन्दी की साहित्यिक पुस्तकों से अलग हो रहा है। कहने का अर्थ ये है कि ऐसा नहीं है कि हिन्दी बोलने वाले लोगों की संख्या कम हुई है, कि नये भौगोलिक क्षेत्रों में हिन्दी का प्रसार नहीं हो रहा है, कि हिन्दी समझने वालों की संख्या नहीं बढ़ रही है। अगर ऐसा नहीं होता, तो हिन्दी दिवस के नाम पर समारोह की औपचारिकता भी ख़त्म हो चुकी होती।
हिन्दी को कूपमंडूपता छोड़नी होगी
हिन्दी भाषा के विकास में जो सबसे बड़ी बाधा है, वो ये है कि जिस रूप में हिन्दी बोली, समझी और विकसित होती चली जा रही है उस रूप को साहित्यिक हिन्दी या अकादमिक हिन्दी स्वीकार नहीं कर रही है। ऐसा करके एक कूपमंडूपता की स्थिति बनायी गयी है जहां कथित उच्चस्तरीय हिन्दी कथित विद्वानों तक सिमटती चली जा रही है। बहुत कुछ संस्कृत जैसा हश्र हिन्दी का होता चला जा रहा है। ऐसा नहीं है कि संस्कृत समाज से विलुप्त हो गया। संस्कृत के लगभग सारे शब्द देश की विभिन्न भाषाओं में आपको मिल जाएंगे। लेकिन, संस्कृत का व्याकरण कहीं खो गया है। अब उसी तर्ज पर हिन्दी का व्याकरण खोता चला जा रहा है। संस्कृत के विद्वानों ने अपने व्याकरण के विकास पर ध्यान नहीं दिया और यह दंभ पाले बैठे रहे कि वे व्याकरण के स्तर से समझौता नहीं करेंगे। नतीजा ये हुआ कि संस्कृत के व्याकरण का स्तर चंद किताबों का हिस्सा बन कर रह गया और संस्कृत एक भाषा के तौर पर आम जन-जीवन से गायब हो गया। हिन्दी भी उसी ख़तरनाक रास्ते पर है।
सिनेमा से सबक लें हिन्दी के विद्वान
हिन्दी भाषा को हिन्दी सिनेमा से सबक लेना चाहिए, जहां क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दों, मुहावरों, भावों, प्रतीकों और समग्रता में उनकी अभिव्यक्ति को जगह मिल रही है और वह लोकप्रिय भी हो रहा है। ऐसी फिल्में हिट हो रही हैं। सिनेमा दरअसल हिन्दी को क्षेत्रीय भाषाओं में घुसपैठ करा रही है। मगर, यह काम क्षेत्रीय भाषाओं के साथ शत्रुता या स्पर्धा के जरिए नहीं हो रहा है। बल्कि, हिन्दी सिनेमा ने क्षेत्रीय भाषा को अपने में शुमार कर उन्हें सम्मानित करने का काम किया है। इससे हिन्दी भाषी सिनेमाप्रेमी की भाषा भी समृद्ध हो रही है और हिन्दी फ़िल्मों की ओर क्षेत्रीय रुझान भी बढ़ रहा है।
हिन्दी को पसारना होगा अपना आंचल
हिन्दी के व्याकरण को बनाए रखते हुए हिन्दी के जानकार उस भाषा को आत्मसात कर सकते हैं जो हिन्दी पट्टी कहलाने वाले इलाकों में अलग-अलग तरीकों से बोली जाती है। अगर इन सभी तरीकों को हिन्दी की रचनाओं में जगह मिलेगी, तो हिन्दी भी एकरूप होगी और भाषा के तौर पर यह समृद्ध होगी। बात सिर्फ हिन्दी पट्टी की नहीं है। जो गैर हिन्दी इलाकों में हिन्दी सीखते हुए लोग नयी भाषा इजाद कर रहे हैं, उसे भी अपनाने के लिए हिन्दी को ही आगे आना होगा। कोई संकोच नहीं हो। अंग्रेजी भाषा से सबक लें, जिसमें पूरी दुनिया की संस्कृति की झलक मिलती है।
संकोच छोड़ना होगा, बोलना होगा सबकी है हिन्दी
भाषा समाज का दर्पण होती है। समाज की संस्कृति, सभ्यता, परंपरा, रहन-सहन, प्रतीक, मान्यताएं सब कुछ भाषा में दिखती है। भारत की सहिष्णुता, विभिन्नता में एकता, उत्तर से दक्षिण तक नदियों और पठारों के रास्ते, मौसम, बाढ़, भूकम्प, सुनामी सब कुछ भाषा में दिखना चाहिए। हिन्दी को इसी सोच के साथ आगे बढ़ने-बढ़ाने की जरूरत है। कोई अतिरिक्त प्रयास की जरूरत नहीं। बस जो हिन्दी है, जो बोली जा रही है उसे स्वीकार करने में संकोच को खत्म कीजिए। हिन्दी भाषा के तौर पर सबको स्वीकार्य दिखेगी।
विरोध से घबराने की जरूरत नहीं
हिन्दी के विरोध से घबराने की जरूरत नहीं है। जब हम अंग्रेज को भगा देने के बाद अंग्रेजी नहीं भगा सके, तो इसका संदेश यही है कि भाषा किसी जाति, धर्म, रेस की नहीं होती। भाषा सबकी होती है जो उसे स्वीकार कर ले। भाषा अपनी स्वीकार्यता दूसरों को अपनाकर कराती है। हिन्दी अगर तमिलनाडु के विरोध को अपनी भाषा में जगह देने लगेगी, तमिल भाषा और तमिल के लोगों को अपने में जगह देने लगेगी, तो इसे तमिलों से कौन अलग कर सकता है। विरोध खुद ब खुद अप्रासंगिक हो जाएगा।
कहीं संस्कृत जैसा हश्र ना हो?
हिन्दी के कथित प्रेमी अगर भाषा के कथित स्तर और व्याकरण में बदलाव नहीं होने देने की जिद पर अड़े रहेंगे, नयी शब्दावलियों, शैली, प्रतीक और अभिव्यक्ति के दूसरे नये तरीकों को स्वीकार नहीं करेंगे तो यह भी तय मानिए कि हिन्दी भी खुद ब खुद अप्रासंगिक हो जाएगी। हिन्दी की आत्मा कहीं खो जाएगी। जब आत्मा खो जाएगी, तो हिन्दी के चीथड़े इकट्ठा करने वाले भी नहीं रह जाएंगे जैसा कि संस्कृत के साथ हुआ है।