भोपाल गैस त्रासदी : सत्पथी ने किए 15 हजार पोस्टमार्टम
भोपाल।
मध्य
प्रदेश
की
राजधानी
में
वर्ष
1984
में
हुई
गैस
त्रासदी
ने
एक
बड़ी
आबादी
को
अपनी
जद
में
ले
लिया
था।
उस
दौरान
हजारों
लोगों
की
मौत
हुई
थी,
मौतों
का
सिलसिला
अब
भी
जारी
है।
मेडिको
लीगल
इंस्टीट्यूट
के
संचालक
(निदेशक)
पद
से
सेवानिवृत्त
हुए
डॉ.
डी.के.
सत्पथी
ने
लगभग
25
वर्षो
के
दौरान
15
हजार
से
ज्यादा
शवों
का
पोस्टमार्टम
किया
है।
ये
शव
गैस
पीड़ितों
के
थे।
सरकारी
डॉक्टर
हैं
सत्पथी
डॉ.
सत्पथी
उन
सरकारी
चिकित्सकों
में
से
एक
हैं
जो
भोपाल
में
यूनियन
कार्बाइड
संयंत्र
हादसे
के
समय
सेवारत
थे।
उन्होंने
लगातार
कई
दिनों
तक
हमीदिया
अस्पताल
में
रहकर
मृतकों
का
पोस्टमार्टम
किया
था।
भोपाल में दो-तीन दिसंबर 1984 की दरम्यानी रात को यूनियन कार्बाइड संयंत्र से जहरीली गैस रिसी। उसके बाद कुछ लोगों को हमीदिया अस्पताल लाया गया। डॉ. सत्पथी ने बताया, "रात की ड्यूटी पर तैनात चिकित्सक डॉ. दीपक गंधे ने यूनियन कार्बाइड के चिकित्सक डॉ. एल.डी. लोथा से संपर्क कर पूछा कि आखिर क्या हुआ है, इस पर लोथा का कहना था कि आंसूगैस छोड़ा गया, उसी का असर है। आंखों में पानी डालने से सभी ठीक हो जाएंगे।"
पहले
दिन
850
पोस्टमार्टम
डॉ.
सत्पथी
बताते
हैं,
"कुछ
ही
देर
में
अस्पताल
परिसर
में
लोगों
का
हुजूम
उमड़
पड़ा
और
कई
शव
भी
आने
लगे।
देखते
ही
देखते
अस्पताल
परिसर
में
शवों
का
ढेर
लग
गया।
उसके
बाद
वह
अपने
अन्य
तीन
सहयोगियों
के
साथ
शवों
के
पोस्टमार्टम
में
जुट
गए।
पहले
दिन
यानी
तीन
दिसंबर
को
साढ़े
आठ
सौ
शवों
का
पोस्टमार्टम
किया
गया
और
सात
दिन
में
लगभग
1500
शवों
के
पोस्टमार्टम
हुए।"
डॉ. सत्पथी ने कहा, "जो भी गैस की जद में आया उसे नुकसान जरूर हुआ। वे बच्चे भी गैस के असर से नहीं बच पाए जो मां के गर्भ में थे। यही वजह है कि जहरीली गैस पीड़ित महिलाओं के बच्चे विकृत अंग लेकर पैदा हुए।"
डॉ. सत्पथी अपने अनुभव के आधार पर बताते हैं कि मार्च 1985 तक जितने भी गैस पीड़ितों के शवों का उन्होंने पोस्टमार्टम किया है, उनके अंगों में जहर पाया गया था। उसके बाद के शवों में जहर के असर के चलते अंग विकृत पाए गए, मसलन फेफड़े, लिवर आदि का सड़ जाना।
उन्होंने कहा, "सेवा में रहते हुए 1984 से 2009 तक मैंने 15 हजार से ज्यादा गैस पीड़ितों के शवों का पोस्टमार्टम किया।"
अभी तक पूरी नहीं हुईं कई रिसर्च
भोपाल में संयंत्र से रिसी गैस को मिथाइल आइसो साइनाइड (मिक) बताया जाता है, मगर डॉ. सत्पथी इससे सहमत नहीं हैं। उनका कहना है कि जिस गैस ने लोगों की जान ली या नुकसान पहुंचाया, उसमें सिर्फ मिक नहीं थी कुछ और भी थी। जहरीली गैस का लोगों पर किस तरह का असर हुआ, इस पर शोध तो हुए, मगर कोई शोध पूरा नहीं हुआ।
उन्होंने कहा, "वर्ष 1985 से 94 तक 25 शोध हुए मगर कोई भी शोध पूरा नहीं हो पाया है।"
गैस पीड़ितों के बीच लंबे समय तक काम करने वाले डॉ. सत्पथी बताते हैं कि हादसे की वजह सुरक्षा में चूक रही है। उन्होंने कहा, "दरआसल, यूनियन कार्बाइड कंपनी को उतना मुनाफा नहीं हो रहा था जितना वह चाहती थी। लिहाजा, 1980 में उसने इसे बंद करने का मन बना लिया था। प्रबंधन ने कर्मचारियों की छंटनी शुरू कर दी और सुरक्षा पर ध्यान देना भी बंद कर दिया और एक रात इसका खामियाजा हजारों बेकसूरों को भुगतना पड़ा।"
हर वर्ग ने अागे आकर की थी लोगों की मदद
डॉ. सत्पथी बताते हैं कि हादसे के बाद सात दिन तक भोपाल के हर वर्ग से जुड़े लोगों ने पीड़ितों की मदद में कोई कसर नहीं छोड़ी। होटलों और ढाबा मालिकों ने खाना मुफ्त में बांटना शुरू किया। दवा दुकानदार गैस पीड़ितों को मुफ्त दवाइयां दे रहे थे और कई लोग तो मृतकों के तन को ढकने के लिए कफन का इंतजाम तक कर रहे थे।
हादसे की वजह और गैस के दुष्प्रभावों को जनने के लिए डॉ. सत्पथी ने सरकार को बहुत छोटे रूप में डेमो यानी घटना को दोहराना की सलाह दी थी। उनका कहना है कि अगर डेमो किया जाता तो स्थिति साफ हो जाती। पता चलता कि मिक के रिसने के बाद किस तरह के तत्वों में प्रतिक्रिया (रिएक्शन) हुई, उससे कौन-कौन से यौगिक तैयार हुए और उस यौगिक का लोगों के शरीर पर किस तरह का असर हुआ होगा।
उन्होंने कहा कि ऐसा करने से प्रभावितों को सही इलाज मिल सकता था और वास्तविकता सामने आ सकती थी, मगर ऐसा हुआ नहीं।
गैस
पीड़ितों
के
अस्पताल
में
डॉक्टर
नहीं
गैस
पीड़ितों
के
लिए
उपलब्ध
चिकित्सा
सुविधा
को
डॉ.
सत्पथी
भी
नाकाफी
मानते
हैं।
उनका
कहना
है
कि
गैस
पीड़ितों
के
लिए
अस्पताल
है,
मगर
वहां
अनुभवी
चिकित्सकों
का
अभाव
है।
उन्होंने कहा, "विडंबना यह है कि जो लोग निजी क्लीनिक खोलकर उपचार कर रहे हैं, उन्हें इस बात की समझ नहीं है कि गैस पीड़ितों को क्या दवा देनी चाहिए। उनका धंधा इसलिए चल रहा है, क्योंकि ज्यादातर गैस पीड़ित गरीब तबके के और ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं हैं।"
इंडो-एशियन न्यूज सर्विस।