क्यों सरकारी प्रोजेक्ट से आईटी कंपनियों को फायदा नहीं मिलता?
बैंगलुरू। हाल ही में देश की नामी आईटी इंडस्ट्री इंफोसिस के सह-संस्थापक एन नारायण मूर्ति ने कहा कि इन्फोसिस को आज तक एक भी ऐसा सरकारी प्रोजेक्ट नहीं मिला जिसमें कंपनी को फायदा हुआ हो। सरकार के साथ काम करने की यही सच्चाई है।
यह सिर्फ इन्फोसिस की समस्या नहीं है। सरकारी प्रोजेक्ट पर काम करने वाली सभी आईटी कंपनियों को लाल-फीताशाही, कम कीमत, पैसे मिलने में देरी, समय पर सॉफ्टवेयर की डिलीवरी लेना और प्रोजेक्ट में बदलाव के साथ भ्रष्टाचार जैसी समस्याओं से जूझना पड़ता है। मूर्ति की इन बातों पर देश के दो आईटी दिग्गजों अभिषेक भट्ट और राकेश मलिक ने प्रतिक्रिया व्यक्त की है।
आईये जानते हैं उन्होंने क्या कहा?
बीते 15 सालों से भारत और ओवरसीज आईटी मार्केट में नजर रखने वाले आईआईटी खडगरपुर के पढ़े हुए इंजीनियर अभिषेक भट्ट का कहना है कि सरकारी प्रोजेक्ट के दर्द को समझने से पहले हमें पहले दो चीजों को समझना होगा। अभिषेक भट्ट और उनके वरिष्ठ सहयोगी राकेश मलिक के मुताबिक उन दो बातों में से पहली है implementer( लागू कर्ता) और दूसरी है customer ( ग्राहक या उपभोक्ता)। यहां चीजें कागज पर तो लागू होती है लेकिन उन्हें अमल में आते-आते काफी टाइम लग जाता है जिसके लिए सरकार को दोषी नहीं बल्कि प्राईवेट वर्ल्ड में फैले अराजक चीजों को दूर करना होगा।
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हमारे देश में आईटी कंपनियों में इंफोसिस एक बेंचमार्क की तरह है और हम सबके लिए यह गर्व की बात है। लेकिन मूर्ति जी को देश की मौजूदा आर्ईटी कंपनी की हालत को समझना होगा अब बात नंबे के दशक की नहीं रही जब नये-नये इंजीनियर को कहीं भी नौकरी मिल जाती थी आज हालात काफी बदल चुके हैं, उन्होंने कहा कि भारतीय कंपनियां अपनी 90-98 फीसदी कमाई बहुराष्ट्रीय कंपनियों से करती हैं। भारत से बाहर उन्हें काम की अच्छी कीमत मिलती है। तो भला वो यहां लो प्राइस पर काम क्यों करेंगे लेकिन इसके लिए सरकारी तंत्र जिम्मेदार नहीं है।
आईये डालते हैं एक नजर इस कड़वे सच की सच्चाई पर
कम मूल्य: आज भारत में टीसीएस और इंफोसिस जैसी कंपनियों का बोल-बाला है जिनका ध्यान केवल प्रोडक्ट के रीसोर्सेज पर होता है जिन्हें वो कम कीमत में खरीदना चाहते हैं जिसके कारण सरकारी प्रोजेक्ट के काम में देरी होती है, मोटी भाषा में पैसा कम और काम ज्यादा, बाहर काम ज्यादा तो पैसे भी ज्यादा, तो जाहिर है लोग बाहर वाला विकल्प चुनते हैं।
समय पर काम: अक्सर सरकारी काम समय पर पूरे नहीं होते जबकि प्राईवेट सेक्टर में वो काम जल्द और टाइम पर पूरा होता है। सरकार को कांट्रैक्ट की शर्तें ऐसी रखनी चाहिए जो सरकार के साथ-साथ कंपनियों के लिए भी फायदेमंद हों। यह सुनिश्चित करना होगा कि प्रोजेक्ट समय पर पूरे हों। सरकारी अधिकारी समस्याओं को समझने में पर्याप्त समय लगाएं लेकिन कंपनियों को भी अपना हित नहीं बल्कि कर्मचारियों के हित के बारे में भी सोचना होगा। अक्सर प्रोजेक्ट में देरी अनुबंध कारणों के वजह से लेट होते हैं क्योंकि उनमें पारदर्शिता नहीं होती।
दोनों को समझनी होगी बात: आईटी कंपनियों और सरकार दोनों को यह बातें समझने होंगी कि अगर मेक इन इंडिया जैसे डिजिटल प्रोग्राम को सफल बनाना है तो दोनों ही ओर से कदम उठाने होंगे, दोनों को एक-दूसर पर आरोप मढ़ने से बचना होगा और ई-गर्वनेस प्रोजेक्ट की सक्सेस रेट को बढ़ाना होगा। कंपनियों को अपने निजी हित के बारे में सोचना बंद और सरकारी तंत्र को कोसने के बजाय सरकारी काम की आकर्षक और प्रतिस्पर्धी बातों पर ध्यान देना र तभी ही दोनों को फायदा होगा।तब तक मुझे नहीं लगता कि बड़ी कंपनियां सरकार के साथ काम करने में रुचि लेंगी।
वक्त की दरकार: हमेशा दोषारोपण से काम नहीं चलता है अक्सर प्रोजेक्ट से ऐसे लोगों को जोड़ा जाना चाहिए जिन्हें प्रोजेक्ट की जानकारी हो और उन्हें काम का अनुभव हो लेकिन कंपनियों और सरकार के बीच में व्यपार जगत के डिलीवर सर्विस मुसीबत खड़ा कर देते हैं जिसकी वजह से काम में देरी होती है और पैसों का नुकसान होता है।