रिवाल्वर वाली बिजनेस वुमेन... दो रुपये रोज की दिहाड़ी से 2000 करोड़ तक का सफर
नई दिल्ली। मार खाया। गालियां सहीं। हाड़ तोड़ मेहनती की। जब कुछ पैसा कमाया तो गुंडे पीछे पड़ गये। वह डरी नहीं। पुलिस का बॉडीगार्ड लेने से इंकार कर दिया। उसने लाइसेंस लेकर रिवाल्वर खरीदा। फिर गुंडों को ललकारा, रिवाल्वर में छह गोलियां हैं, छह को मार कर ही मरूंगी। मरना मंजूर है लेकिन हफ्ता देना नहीं। गुंडे भाग खड़े हुए। उसकी जिंदगी में दो टर्निंग प्वाईंट थे- एक रिवाल्वर दूसरा बैंक का लोन। बैंक से कर्ज लेकर दुकान शुरू की तो रिवाल्वर लहरा कर अपने बिजनेस की हिफाजत की। कभी दो रुपये रोज कमाने वाली यह लड़की अब बन चुकी है दो हजार करोड़ रुपये की मालकिन। सात कंपनियों की इस स्वामिनी को कारोबार के क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन के लिए पद्मश्री पुरस्कार (2013) भी मिल चुका है। यह हैरतअंगेज कहानी है भारत की सफल महिला उद्यमी कल्पना सरोज की।
एक लड़की की गुंडों से भिड़ंत
साल 1999 और मुकाम मुम्बई का कल्याण इलाका। कल्पना सरोज ने हाल ही में बुटिक और फर्नीचर की दुकान शुरू की थी। बहुत मुश्किलों से पैसा कमा रही था। आस-पड़ोस के लोगों की मदद भी करती। कल्पना का कुछ नाम होने लगा। कल्याण में ही एक बुजुर्ग को अपनी बेटी की शादी करनी थी। उनके पास एक जमीन थी लेकिन कानूनी लफड़ों की वजह से बिक नहीं रही थी। बुजुर्ग ने कल्पना से यह जमीन खरीदने की मिन्नतें की। बुजुर्ग ने कल्पना को यह जमीन ढाई लाख रुपये में जमीन बेच दी। मुसीबतों से लड़ लड़ कर कल्पना फौलाद बन चुकी थी। उसने भाग-दौड़ कर जमीन के कागज ठीक किये। जैसे ही ये जमीन लेटिगेशन से मुक्त हुई उसकी कीमत 50 लाख रुपये हो गयी। जमीन के सोना बनते ही आसपास के गुंडे वहां मंडराने लगे। लेकिन कल्पना डरी नहीं।
रिवाल्वर वाली लड़की बनी बिजनेस वुमेन
कल्पना ने एक बिल्डर से एग्रीमेंट कर जमीन पर बहुमंजिली इमारत बनाने का प्रोजेक्ट शुरू किया। स्थानीय गुंडे भड़क गये। उन्होंने कल्पना का काम तमाम करने के लिए शूटरों को पांच लाख की सुपारी दे दी। वे इस कीमती जमीन को हथियाना चाहते थे। लेकिन गुंडों में एक शख्स ऐसा भी था जिसके परिवार ने कभी कल्पना से मदद ली थी। उसका जमीर जाग गया। उसने कल्पना को सारी बात बता दी। कल्पना सीधे पुलिस कमिश्नर के पास चली गयीं। पूरी बात बतायी। पुलिस ने गुंडों को गिरफ्तार कर लिया। सुरक्षा के लिहाज से पुलिस कमिश्नर ने कल्पना को बॉडीगार्ड देने का प्रस्ताव दिया। लेकिन उन्होंने इंकार कर दिया। उन्होंने कहा, अगर आप मेरी हिफाजत करना ही चाहते हैं तो रिवाल्वर का लाइसेंस दे दीजिए। उसने एक वह रिवाल्वर खरीदा। उसका आत्मविश्वास बढ़ चुका था। वह रिवाल्वर लेकर जब अपने बिल्डिंग प्रोजेक्ट के साइट पर जाती तो गुंडे गदहे के सिंग की तरह गायब हो जाते।
कष्टमय बचपन, 12 साल में हो गई शादी
महाराष्ट्र के अकोला जिले के रोपरखेड़ा गांव के एक दलित परिवार में पैदा हुईं कल्पना सरोज की शादी 12 साल की उम्र में हो गयी थी। उनकी शादी मुम्बई के झोपड़पट्टी में रहने वाले एक लड़के से हुई थी। छह महीना तक कल्पना ने ससुराल में तरह-तरह के अत्याचार सहे। एक दिन उनके पिता मिलने गये तो बेटी की हलत देख कर आवाक रहे गये। वे कल्पना को लेकर अपने घर लौट आये। घर आने के बाद उनकी परेशानियां और बढ़ गयी। सगे-संबंधी उनमें ही खोट निकालने लगे। कोई कहता लड़की ही ढीठ है जो ससुराल में नहीं टिकी। कोई कहता कि सबको ससुराल में कुछ सहना पड़ता, तुम क्या अलग हो। तरह-तरह की बातों से कल्पना हताशा में चली गयी। एक दिन उसने खटमल मारने वाली दवा पी कर आत्महत्या की कोशिश की। बहुत मुश्किल से उसे बचाया जा सका। ये 1973-74 की बात है। कल्पना तो बच गयी लेकिन लोग उसे और हिकारत से देखने लगे। एक दिन उसने अपने घरवालों को कहा कि वह मुम्बई जाएगी। उसकी जिद से अब लोग डरने लगे थे। माता-पिता ने तुरंत इजाजत दे दी।
मुम्बई में कल्पना- न डिग्री थी न उम्र
मुम्बई में कल्पना के एक चाचा रहते थे जो पापड़ बेच कर किसी तरह गुजर बसर करते थे। कल्पना अपने चाचा के पास पहुंची। शादी और घऱेलू लफड़ों की वजह से कल्पना मैट्रिक की परीक्षा नहीं दे पायी थी। उस समय उसकी उम्र 16 थी। न डिग्री थी न उम्र। काम मिलना मुश्किल था। एक दिन एक होजरी कंपनी में उसे सिलाई का काम मिला। उसने गांव में कुछ-कुछ सिलाई सीखी थी। लेकिन जब मुम्बई के बड़े होजरी हाउस की मशीन पर वह बैठी तो डर से हांथ-पांव फूल गये। मशीन चली ही नहीं। उसे तुरंत काम से निकाल दिया गया। बहुत आरजू मिन्नत के बाद वहीं उसे दो रुपये रोज पर काम मिला। वह धागा सीधा करने और कतरन जमा करने का काम करने लगी। दो रुपये रोज में पेट भरना कठिन था। एक महीने बाद वह दूसरी जगह सिलाई का काम करने लगी। चाचा का घर छोड़ दिया। एक गुजराती परिवार ने उसे सहारा दिया। रहने के लिए एक छोटा सा कमरा भी मिल गया। गुजराती परिवार इतना दयालु था कि वह कल्पना से खाने के लिए कोई पैसा नहीं लेता। कल्पना तब तक सिलाई से करीब ढाई सौ रुपये महीना कमाने लगी थी। वह जो भी कमाती गुजराती परिवार उसके पैसे को एक बक्से में डाल देता।
टर्निंग प्वाईंट- पिता की सरकारी नौकरी चली गई
धीरे-धीरे कल्पना के पास कुछ पैसा आने लगा। इसी बीच उसके पिता की सरकारी नौकरी चली गयी। तब कल्पना ने अपने माता-पिता, भाई बहन को मुम्बई में बुला लिया। इतने लोगों के साथ मुम्बई में किराया देना संभव नहीं था। वह कल्याण के एक चाल में चली आयी। सभी लोग यहां रहने लगे। इसी दौरान कल्पना की एक बहन बीमार पड़ गयी। पैसे की कमी से समुचित इलाज नहीं हो पाया। उसकी मौत हो गयी। कल्पना के लिए यह बहुत बड़ा सदमा था। उसने फैसला किया कि अब सिलाई-विलाई से कुछ नहीं होने वाला। उन्होंने बिजनेस शुरू करने के लिए बैंक से लोन लेने की सोची। लोन के लिए आवेदन दिया तो बैंक के अफसर कागजों के लिए दौड़ाने लगे। करीब डेढ़ साल तक उन्होंने धीरज रखा। कागजी औपचारिकता पूरी होते ही 50 हजार रुपये का कर्ज मिल गया। इन पैसों से उन्होंने बुटिक शुरू की। कुछ पैसा आया तो एक फर्निचर की दुकान खोल ली। बैंक लोन के लिए कल्पना ने इतनी भाग दौड़ की थी उनका कई नेताओं और अफसरों से परिचय हो गया था। इसका फायदा उन्होंने अपने आसपास के बेरोजगार नौजनावों के दिलाया। कल्पना की वजह से आसपास के कई लड़के बैंक से लोन लेकर रोजगार करने लगे।
वह जमीन जिसने बदल दी जिदंगी
परोपकार से कल्पना का अपने इलाके में नाम होने लगा। जो भी परेशान होता वह मदद के लिए कल्पना के पास आ जाता। इसी दरम्यान कल्पना को कल्याण में वह जमीन मिली जिसने उनकी किस्मत पलट दी। इस जमीन पर बहुमंजिली इमारत बनी। 35 फीसदी फ्लैट कल्पना को मिले। पैसों की बरसात होने लगी। फिर तो कल्पना रियल एस्टेट बिजनेस में आगे ही बढ़ती गयीं। उन्होंने अपनी कंस्ट्रक्शन कंपनी शुरू कर दी। फिर 2001 में उन्होंने कर्ज में डूबी कमानी ट्यूब कंपनी की जिम्मवारी ले ली। इस कंपनी पर 116 करोड़ रुपये की देनदारी थी। अपनी मेहनत और समझदारी से उन्होंने इस कंपनी को उबार कर एक नया अध्याय लिखा। उजड़ चुकी यह कंपनी मुनाफे में गयी। देखते देखते कमानी ट्यूब का सालान टर्न ओवर 500 करोड़ रुपये का हो गया। 2006 में कल्पना कमानी ट्यूब कंपनी की मालकिन बन गयीं। आज वह सात बड़ी कंपनियों की मालकिन हैं।