ये 'राधा' पूरे भारत ही नहीं विश्व के लिए है ख़ास
'राधा' यूटेरस ट्रांसप्लांट से पैदा होने वाली पहली बच्ची है. भ्रूण बनाने के लिए मां के अंडाणु और पिता के शुक्राणु का इस्तेमाल किया जाता है. मीनाक्षी के मामले में भी ऐसा ही किया गया. इस साल अप्रैल के पहले सप्ताह में लैब में तैयार किए गए भ्रूण को डॉ. शैलेश और उनकी टीम ने उनकी बच्चेदानी में स्थापित किया.
"मेरी आंखों से आंसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे. इसलिए नहीं की बिटिया हुई है. ये खुशी के आंसू हैं, जिसमें पिछले पांच बच्चों को खोने का दर्द शामिल था. आप सिर्फ सुन कर ये अंदाजा नहीं लगा सकते हैं कि मैं कितनी खुश हूं. इसके लिए मेरे जैसा दर्द सहना होगा, तभी मेरी खुशी को सही- सही माप सकते हैं."
17 महीने से पुणे के गैलेक्सी अस्पताल में इलाज करा रही मीनाक्षी वलाण्ड को 18 अक्टूबर को सीजेरियन सेक्शन से बिटिया पैदा हुई. लेकिन एक ही दिन में उनकी बिटिया देश भर में सेलिब्रिटी हो गई है.
वजह है वो भारत ही नहीं पूरे एशिया- प्रशांत में पहली बच्ची है जो गर्भाशय ट्रांसप्लांट से पैदा हुई है.
गुजरात के भरूच की रहने वाली मीनाक्षी वलाण्ड देश की पहली महिला है जो गर्भाशय ट्रांसप्लांट से मां बनी है.
17 महीने पहले जब मीनाक्षी पुणे के गैलेक्सी अस्पताल में डॉ. शैलेश पुटंबेकर से मिली तो वो बेहद निराश थी. डॉ. शैलेश पुटंबेकर देश भर में यूटेरस (गर्भाशय) ट्रांसप्लांट के लिए जाने जाते हैं और पुणे के गैलेक्सी अस्पताल में कार्यरत हैं.
"मैं केवल 28 साल की हूं. इस उम्र में मेरे तीन अबॉर्शन हो चुके हैं. दो बच्चा मरा हुआ पैदा हुआ. डॉक्टर कहते हैं कि अब मेरा खुद का बच्चा नहीं हो सकता. लेकिन मुझे मेरा अपना बच्चा चाहिए. मैं सरोगेसी से बच्चा नहीं चाहती हूं. और न ही बच्चा गोद लेना चाहती हूं."
पहली बार डॉ. शैलेश पुटंबेकर से मिलने पर मीनाक्षी ने यही बात कही थी. लेकिन 17 महीने बाद उनकी ये निराशा पूरी तरह ग़ायब है.
"भगवान को हमने नहीं देखा, लेकिन अगर वो हैं तो ज़रूर डॉक्टर साहब जैसे ही दिखते होंगे. इसलिए हमने डॉक्टर साहब को ही बिटिया का नाम रखने को कहा है." आंखों से निकलते खुशी के आंसू को पोंछते हुए एक हल्की सी मुस्कुराहट के साथ मीनाक्षी इसका एलान करती है.
मीनाक्षी की बात खत्म ही नहीं हुई की डॉ. शैलेश कहते हैं, "मीनाक्षी गुजरात से हैं. वहां भगवान कृष्ण को इतना माना जाता है तो हमारी तो बिटिया राधा ही हुई न?"
मेरी समझ में तो बिटिया का नाम राधा होना चाहिए.
डॉक्टर साहब का इतना कहना था कि अस्पताल में हर तरफ एक बार फिर जलेबी और मिठाइयां बंटने लगी.
कैसा है राधा का स्वास्थ्य ?
राधा 32 हफ्तों ही मां के गर्भ में रही. जन्म के समय उसका वजन 1 किलो 450 ग्राम था.
तो क्या राधा प्रीमैच्योर है और उसका ख़ास ख्याल रखने की जरूरत है?
इस पर डॉ. शैलेश कहते हैं, राधा प्रीमैच्योर तो है, लेकिन फिलहाल आईसीयू में नहीं है. पहले 21 अक्टूबर डिलिवरी की तारीख हमने तय की थी. लेकिन 17 तारीख की रात को मीनाक्षी वलाण्ड से उनका बल्ड प्रेशर बहुत बढ़ गया था. इसलिए 18 तारीख को ही हमें मीनाक्षी का सी- सेक्शन करना पड़ा.
फिलहाल मां और बेटी दोनों स्वस्थ हैं और मां बच्चे को अपना दूध भी पिला पा रही है.
राधा तब तक अस्पताल में ही रहेगी जब तक उसका वजन 2 किलोग्राम नहीं हो जाता. मीनाक्षी को भी कोई दिक्कत नहीं है, उन्होंने खाना पीना भी शुरू कर दिया है.
सीजेरियन ही क्यों?
लेकिन क्या 32 हफ्ते में बच्चे के पैदा होने पर बच्ची और बेटी को जान का ख़तरा नहीं है?
इस पर डॉक्टर शैलेश पुटंबेकर कहते हैं, मीनाक्षी को जो गर्भाशय ट्रांसप्लांट कराया गया था, वो उनकी मां का था. मीनाक्षी की मां की उम्र 48 साल हैं. उस लिहाज से गर्भाशय की भी उम्र 48 साल ही हुई. इतना साल पुराना गर्भाशय को बच्चा रखने की आदत नहीं होती. मीनाक्षी की मां 20 साल पहले प्रग्नेंट हुई थी. इसलिए सीजेरियन के आलावा कोई और तरीका हमारे पास नहीं थी.
डॉ. शैलेश विस्तार से इस पूरी प्रक्रिया को समझाते हैं. यूटेरस ट्रांसप्लाट के समय केवल यूटेरस ट्रांसप्लांट होता है, साथ के नसों को ट्रांसप्लांट नहीं किया जा सकता. इसलिए इस तरह की प्रेग्नेंसी में 'लेबर पेन' नहीं होता.
आम तौर पर इस तरह के ट्रांसप्लांट में डोनर की उम्र 40 से 60 साल के बीच की होनी चाहिए.
'अशर्मान सिंड्रोम'
मीनाक्षी के गर्भ में बच्चा ठहर नहीं पा रहा था, क्योंकि उनको 'अशर्मान सिंड्रोम' नाम की बीमारी थी. इस बीमारी में महिलाओं को मासिक धर्म न आने की समस्या होती है और यूटेरस (गर्भाशय) सालों तक काम नहीं करता है. अक़सर एक के बाद एक कई मिसकैरेज होने की वजह से यह बीमारी होती है, इसके अलावा पहली डिलिवरी के बाद, यूटेरस में 'स्कार' या खरोंच होने की वजह से भी यह बीमारी होती है.
अंतरराष्ट्रीय जरनल ऑफ अप्लाइड रिसर्च में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक़ दुनिया में 15 फ़ीसदी महिलाएं अलग- अलग वजहों से मां नहीं बन सकती हैं. जिनमें से 3 से 5 फ़ीसदी महिलाओं में यूटेरस की दिक्कत इसके पीछे की वज़ह होती है.
मीनाक्षी आख़िरी बार दो साल पहले गर्भवती हुई थी.
यूटेरस ट्रांस्प्लांट - आंकड़े क्या कहते हैं
दुनिया में यूटेरस ट्रांसप्लांट न के बराबर होते हैं. डॉ. शैलेश के मुताबिक़ पूरी दुनिया में अब तक केवल 26 महिलाओं का ही यूटेरस ट्रांसप्लांट किया गया है, जिनमें से केवल 14 ही सफल हुए हैं.
जबकि कुछ मीडिया रिपोर्ट्स के मुताबिक पूरी दुनिया में 42 यूटेरस ट्रांसप्लांट के मामले सामने आए हैं. हालांकि केवल 8 मामलों में महिला ने ट्रांसप्लांट के बाद गर्भ धारण किया है.
आठ मामलों में से सात स्वीडन के हैं और एक अमरीका का है. मीनाक्षी का मामला एशिया- प्रशांत का पहला है जहां यूटेरस ट्रांसप्लांट के बाद बच्चा पैदा हुआ है.
डॉ. शैलेश के मुताबिक यूटेरस ट्रांसप्लांट की पहली शर्त ही होती है कि डोनर महिला मां, बहन या मौसी हो.
देश में इस पर फ़िलहाल कोई क़ानून नहीं बना है क्योंकि सांइस की इस विधा में अभी ज़्यादा सफलता नहीं मिली है.
डॉ. शैलेश के मुताबिक एक बार डोनर मिल जाए तो, फिर लैप्रस्कोपी से यूटेरस निकाला जाता है. यूटेरस ट्रांसप्लाट का मामला लिविंग ट्रांसप्लांट का मामला होता है. इसमें ज़िंदा महिला का ही यूटेरस लिया जा सकता है. पूरी प्रक्रिया में दस से बारह घंटे का वक्त लगता है.
दूसरे ऑर्गन डोनेशन की तरह किसी महिला के मरने के बाद यूटेरस डोनेट नहीं किया जा सकता.
हाई रिस्क प्रेग्नेंसी
डॉ. शैलेश के मुताबिक एक बार यूटेरस ट्रांसप्लाट हो जाए तो तकरीबन एक साल बाद ही महिला का गर्भ बच्चा रखने के लिए तैयार हो पाता है, लेकिन वो भी सामान्य प्रकिया से नहीं.
डॉक्टरों के मुताबिक, यूटेरस ट्रांसप्लांट के बाद अक़्सर 'रिजेक्शन' का ख़तरा रहता है. यानी ज्यादातर मामलों में शरीर बाहर के ऑर्गन को स्वीकार नहीं करता. इसलिए एक साल तक मॉनिटर करने की जरूरत पड़ती है.
यूटेरस ट्रांसप्लाट के बाद अगर महिला को बच्चा चाहिए तो एम्ब्रायो यानी भ्रूण को लैब में बनाया जाता है, और फिर महिला के बच्चेदानी में स्थापित किया जाता है.
भ्रूण बनाने के लिए मां के अंडाणु और पिता के शुक्राणु का इस्तेमाल किया जाता है. मीनाक्षी के मामले में भी ऐसा ही किया गया. इस साल अप्रैल के पहले सप्ताह में लैब में तैयार किए गए भ्रूण को डॉ. शैलेश और उनकी टीम ने उनकी बच्चेदानी में स्थापित किया.
अंतरराष्ट्रीय जरनल ऑफ अप्लाइड रिसर्च के मुताबिक़ यूटेरस ट्रांसप्लांट में सात से दस लाख रुपये का ख़र्च आता है. लेकिन मीनाक्षी का मामला देश का पहला है, इसलिए अस्पताल ने उनका ये ट्रांसप्लांट मुफ्त में किया है.
डॉ. शैलेश इस तरह की प्रेग्नेंसी को हाई रिस्क प्रेग्नेंसी क़रार देते हैं. उनके मुताबिक मीनाक्षी का परिवार किसी भी तरह का रिस्क लेना नहीं चाहते और न ही डॉक्टरों की टीम भी.
इस तरह के हाई रिस्क प्रेग्नेंसी की जटिलता के बारे में चर्चा करते हुए डॉ. शैलेश कहते हैं, "मीनाक्षी कई तरह की इम्यून- सप्रेसेंट दवाइयों पर है. ऐसे में प्रेग्नेंसी के दौरान डायबिटीज़ का ख़तरा बढ़ जाता है. उसे मैनेज करना जरूरी होता है. साथ ही ब्लड प्रेशर भी ज़्यादा बढ़ने-घटने की गुंजाइश नहीं होती. इसलिए पेशेंट को निगरानी में रखना ज़रूरी होता है."
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