मेटावर्स में फ़ेसबुक की इतनी दिलचस्पी क्यों, क्या ये हमारी ज़िंदगी को कंट्रोल कर सकता है - दुनिया जहान
फ़ेसबुक ने कहा है कि वो आने वाले वक्त में यूज़र्स के लिए मेटावर्स बनाएगा. ये है क्या और फ़ेसबुक इसमें अरबों डॉलर का निवेश क्यों करना चाहता है?
28 अक्तूबर को मार्क ज़करबर्ग ने फ़ेसबुक का नाम बदल कर मेटा कर दिया और घोषणा की कि कंपनी एक अलग तरह की दुनिया बनाने पर काम करेगी. ये नई दुनिया भविष्य की उनकी एक परिकल्पना है जिसे उन्होंने मेटावर्स कहा है.
ज़करबर्ग ने बताया कि मेटावर्स बनाने में कंपनी अरबों डॉलर का निवेश करेगी. उन्होंने एक वीडियो प्रेज़ेन्टेशन दिखाया जिसमें एक व्यक्ति अपने डिजिटल अवतार में मेटावर्स में जाता है. वो अपने दोस्तों से मिलता है जो असल में अलग-अलग जगहों पर हैं. वो अपनी कलाई पर क्लिक कर दूसरों से संपर्क करता है और फ़ोन पर भेजी गई तस्वीर को थ्रीडी आकार में देखता है.
इस बार दुनिया जहान में पड़ताल इस बात की कि मेटावर्स क्या है, फ़ेसबुक इसे लेकर इतना उत्साहित क्यों है और ये हमें कैसे प्रभावित कर सकता है.
पार्ट वन - एक नई तरह की दुनिया
एफ़ी बार ज़ीव वर्चुअल अवतारों की दुनिया सेकंड लाइफ़ की तकनीक बनाने वाले में से एक हैं. ये सॉफ्टवेयर 18 साल पहले रिलीज़ हुआ था. वो अर्थव्यूअर बनाने वाली कंपनी कीहोल के भी को-फाउंडर हैं, जिसे आज हम गूगल अर्थ के नाम से जानते हैं.
एफ़ी बार ज़ीव जिस साइंस फिक्शन नोवल स्नो क्रैश का ज़िक्र करते हैं वो वर्ल्ड वाइड वेब के सभी के लिए उपलब्ध होने के एक साल पहले 1992 में छपी थी. इसमें नील स्टिफ़ेन्सन भविष्य की कल्पना करते हैं.
इसमें लोग मोबाइल डिवाइसों के ज़रिए ऐसी ऑनलाइन दुनिया को ऐक्सेस करते हैं जो असल दुनिया, वर्चुअल दुनिया और ऑग्मेन्टेड रिएलिटी के मिश्रण से बनी है. इसे मेटावर्स कहा गया है.
एफ़ी बार ज़ीव कहते हैं, "लोग मेटावर्स में अपना नाम इस्तेमाल नहीं करना चाहते थे. किताब में अगर मेटावर्स में आपकी असल पहचान खुली तो जान जाने का जोखिम है. इसलिए व्यक्ति अपनी दूसरी पहचान के साथ यहां आता है."
साइंस फिक्शन की किताबों में इस तरह की डरावनी कहानियां आम हैं. फिर कंपनियां इस कल्पना पर काम क्यों करना चाहती हैं?
एफ़ी बार ज़ीव का कहना है "मुझे लगता है कि कई लोग इन किताबों को पढ़ते तो हैं लेकिन इस पर ध्यान नहीं देते कि ये केवल कहानियां हैं. वो इन्हें भविष्य की तकनीक की झलक देने वाले दस्तावेज़ मानते हैं. अलग-अलग लोग इसे अलग-अलग तरीके से समझते हैं. लेकिन मोटे तौर पर आप मेटावर्स को इंटरनेट का अगला चरण कह सकते हैं."
- मेटावर्स दुनिया के कारोबार और अर्थव्यवस्था को कैसे बदलने जा रहा है?
- #Meta :फ़ेसबुक का नया नाम, जानिए इंटरनेट का भविष्य बताए जाने वाला 'मेटावर्स' आख़िर है क्या?
स्नोक्रैश और मेटावर्स
अमेरिकी लेखक नील स्टीफ़ेन्सन ने पहली बार अपनी किताब 'स्नो क्रैश' में मेटावर्स शब्द का इस्तेमाल वर्चुअल रियलिटी की दुनिया के लिए किया था.
इस कहानी में अपने वर्चुअल रूप में मेटावर्स तक पहुंचने के लिए लोग या तो चश्मा जैसी चीज़ें पहनते हैं जिसमें हाई-क्वालिटी वर्चुअल रियलिटी डिस्प्ले होता या फिर पब्लिक बूथ में जाते हैं जहां उन्हें लो-क्वालिटी वर्चुअल रियलिटी डिस्प्ले मिलता है. ऐसे चश्मे को 'गार्गोयल्स' कहा गया है.
मेटावर्स असल दुनिया के समांतर एक अलग दुनिया है जिसकी अपनी अलग मुद्रा और अलग अर्थव्यवस्था है.
तकनीकी दुनिया के लोगों पर इस किताब का खासा असर रहा है.
मार्क ज़करबर्ग ने कभी मेटावर्स का ज़िक्र नहीं किया लेकिन 2014 में ऑकुलस वीआर खरीदने की घोषणा करते वक्त उन्होंने वर्चुअल रियलिटी की दुनिया का ज़िक्र किया था और कहा था 'इसके ज़रिए हम लोगों के लिए एक नई दुनिया के दरवाज़े खोलेंगे.'
2020 में एक इंटरव्यू में गूगल के को-फाउंडर सर्गेई ब्रिन ने कहा था कि जिन दो किताबों का उन पर खासा प्रभाव है उनमें से एक स्नो क्रैश है.
2012 ने पहली बार एक कार्यक्रम में स्मार्ट गूगल ग्लास पहनकर बताया कि कंपनी इस तकनीक पर काम कर रही है. माइक्रोसॉफ्ट ने 2016 में होलोलेंस ऑग्मेन्टेड रियलिटी हैडसेट लॉन्च किया था.
हालांकि स्मार्ट गूगल ग्लास के लॉन्च होने के बाद इस तकनीक के असर को लेकर सोशल मीडिया पर मज़ाक उड़ाया गया और कई मीम्स पोस्ट किए गए थे.
https://twitter.com/danialruslan/status/335048394307420160
मेटावर्स में क्या होगा और कैसे होगा इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है, इसमें काम आने वाली कुछ तकनीक पहले ही तैयार हो चुकी है.
एफ़ी बार ज़ीव कहते हैं, "ये फिल्मों में दिखाई जाने वाली दुनिया की तरह नहीं होगी जिसमें आप कुछ ख़ास चीज़ पहनकर मेटावर्स में पहुंचेंगे. हो सकता है कि आप जहां हैं वहां आपको दिखने वाली कुछ चीज़ें वर्चुअल हों और आप उनके साथ डिजिटली काम कर सकें. आप वर्चुअल दुनिया में कहीं भी घूमने जा सकते हैं. ऐसे में आपके आसपास का नज़ारा बदलेगा लेकिन ये टेलीपोर्ट नहीं होगा. मतलब ये कि आप असल दुनिया में रहेंगे लेकिन इस ऑनलाइन दुनिया में भी आ सकेंगे."
- रिलायंस जियो ग्लास में इस्तेमाल होने वाली मिक्स्ड रिएलिटी तकनीक क्या है?
- क्या आपका फ़ोन कर सकता है आपकी जासूसी?
2021 की शुरूआत में इंटरनेट पर ऐक्टिव लोगों की संख्या 4.5 अरब से अधिक थी, जो दुनिया की क़रीब 60 फीसदी आबादी है. इनमें से अधिकांश सोशल मीडिया यूज़र्स हैं. और मेटावर्स सोशल मीडिया को एक कदम और आगे ले जाने की कोशिश है.
एफ़ी बार ज़ीव कहते हैं, "फ़ेसबुक पर असल में कोई नहीं है, बस लोगों की तस्वीरें और वीडियोज़ हैं. मेटावर्स का आइडिया ये है कि लोग अपने वर्चुअल अवतार में ख़ुद फेसबुक पर आएं और यहां वक्त बिताएं. कंपनियां इसके ज़रिए होने वाले कमाई देख रही हैं. आने वाले वक्त में ये बड़ा बिज़नेस हो सकता है."
मतलब ये कि लोग स्क्रीन देखने की बजाय उसके भीतर की दुनिया का हिस्सा बनेंगे, दोस्ती करेंगे, गेम खेलें और खरीदारी भी करेंगे. और जैसा कि स्नो क्रैश में कहा गया है इसके लिए उन्हें किसी ख़ास चीज़ का इस्तेमाल करना होगा.
वो कहते हैं, "मैंने लंबे वक्त से हैडसेट्स पर काम किया है और मैं इनका फैन नहीं. फिर भी मैं कह सकता हूं कि ये भारी होते हैं, बोझ की तरह होते हैं और लोगों संपर्क करने के मामले में सीमित क्षमता वाले होते हैं. इनके साथ कई तरह की समस्याएं हैं."
- इंटरनेट पर अपने बच्चों को यौन उत्पीड़न से ऐसे बचाएं
- इसराइल में फ़ेसबुक के नए नाम 'मेटा' का क्यों उड़ाया जा रहा है मज़ाक
https://www.youtube.com/watch?v=azDU2SXBlSM
पार्ट टू - कैसा होगा मेटावर्स
मैक्स वैन क्लीक ऑक्सफर्ड यूनिवर्सिटी के कंप्यूटर साइंस विभाग में एसोसिएट प्रोफ़ेसर हैं. वो कहते हैं कि गेमिंग की दुनिया में अपना अवतार बनाना, आधुनिक कारें चलाना या बंदूक चलाना इस बात का इशारा है कि मेटावर्स कैसा हो सकता है.
वो कहते हैं, "शुरूआती दौर में थ्रीडी गेम्स के लिए आपको ख़ास मशीनों की ज़रूरत होती थी. लेकिन आज के गेम्स खुली दुनिया की तरह हैं जिनमें आप कई तरह के काम कर सकते हैं. हालांकि असल जीवन में ऐसा नहीं होता. वर्चुअल रियलिटी की अलग दुनिया बनाने में वीडियो गेमिंग इंडस्ट्री सफल रही है."
गेम्स के ज़रिए अब कंपनियां फैशन शो और म्यूज़िक कार्यक्रम भी आयोजित करने लगी हैं.
मैक्स कहते हैं, "फोर्टनाइट ने जिस तरह एक वक्त में पूरी दुनिया में फैशन शो का आयोजन किया वो अनूठा था. इसमें लोगों को ठीक वैसे ही लॉग-इन कर शामिल होने का मौक़ा दिया गया जैसा वो गेम के लिए करते हैं. लोग गेम खेलने बैठे तो उसमें माहौल कंसर्ट का दिखा."
इस साल अगस्त में फोर्टनाइट पर जानीमानी गायक एरियाना ग्रांड के वर्चुअल म्यूज़िक शो का आयोजन हुआ. इसमें एरियाना के वर्चुअल अवतार की तरह के कपड़े और दूसरी चीज़ें खरीदने का विकल्प भी था.
फोर्टनाइट जैसे मल्टीप्लेयर-मल्टीडिवाइस गेम्स इस बात का उदाहरण हैं कि अलग-अलग तरह के डिवाइस से लोग एक साथ एक अलग दुनिया में जा सकते हैं. तकनीक के जानकार कहते हैं कि मेटावर्स में भी ऐसा ही कुछ होगा.
मैक्स कहते हैं, "जिन इंजीनियरों और अकादमिक जगत के लोगों ने इंटरनेट बनाया उनका मानना था कि न तो इस पर किसी एक का नियंत्रण होना चाहिए और न ही इसे लेकर कोई पाबंदी होनी चाहिए. इसे एक विकेंद्रित सिस्टम के रूप में बनाया गया, जिसमें इससे जुड़े हिस्सों का नियमन स्वतंत्र संस्थाएं पारदर्शी तरीके से करती हैं."
मैक्स वैन क्लीक मानते हैं कि यही विकेंद्रित स्वरूप हमारे डिजिटल भविष्य का आधार हो सकता है. इंटरनेट की संरचना ऐसी होने की वजह से ऐसे नए मेटावर्स बनाए जा रहे हैं जिनमें डेटा पर कंट्रोल यूज़र्स का है न कि कंपनी का. लेकिन ऐसा न हो तो ये बड़ी चुनौती हो सकता है.
वो कहते हैं, "वर्ल्ड वाइड वेब बनाने वाले प्रोफ़ेसर टिम बर्नेस ली द सॉलिड प्रोजेक्ट नाम के एक प्रोग्राम पर काम कर रहे हैं. ये प्रोजेक्ट निजी डेटा कंट्रोल को लेकर है. लेकिन मेटावर्स से जुड़े कुछ प्रोजेक्ट्स पर काम करने वाले डेवेलपर्स डेटा कंट्रोल को प्राथमिकता नहीं देते."
लेकिन दुर्भाग्य की बात ये है कि मेटावर्स पर काम करने वाले अलग-अलग लोगों का न तो नज़रिया एक जैसा है और न ही प्राथमिकताएं. लेकिन फ़ेसबुक का डर इन्हें एक साथ ला रहा है जो मेटावर्स को लेकर अपना भविष्य दांव पर लगा रहा है. कंपनी एक साल में 10 अरब डॉलर का निवेश करने वाली है.
वर्चुअल रियलिटी | ऑग्मेन्टेड रियलिटी |
|
|
|
|
|
|
|
|
पार्ट थ्री - भविष्य बनाने का मौक़ा या डेटा की खान
जैनेट मरे अटलांटा के जॉर्जिया टेक में प्रोफ़ेसर हैं और डिजिटल मीडिया के बारे में पढ़ाती हैं. वो कहती हैं कि फ़ेसबुक को उम्मीद है कि लोग उसके प्लेटफॉर्म पर सबसे पहले आएंगे और ये उनकी ज़रूरत बन जाएगा. हालांकि वो मानती हैं कि ये करोड़ों लोगों के बारे में अधिक डेटा इकट्ठा करने का नायाब मौक़ा भी है.
वो कहती हैं, "ये सोने का ख़ज़ाना हाथ लगने जैसा है. जब अपने घर के आधार पर लोग वर्चुअल स्पेस में घर बनाएंगे तो आपको उनके बारे में कहीं अधिक डेटा मिलेगा. वो डिवाइस पहन कर कहीं भी जाएंगे तो आपको उनकी पसंद-नापसंद के बारे में पता चलेगा. अभी आप केवल उनके लाइक्स या शेयर्स जान पाते हैं. आप जान पाएंगे कि वो क्या इस्तेमाल करते हैं और फिर उनके मेटावर्स में आप विज्ञापन दे सकेंगे. असल दुनिया में भी वो आपके विज्ञापन देख पाएंगे."
अपना नाम बदल कर मेटा करने से पहले फ़ेसबुक परेशानियों से जूझ रहा था. यूके कंपीटिशन नियामक ने एक कंपनी के अधिग्रहण के मामले में फ़ेसबुक पर नियमों का उल्लंघन करने का आरोप लगाया और उस पर 7 करोड़ डॉलर का जुर्माना लगाया.
इसके बाद कंपनी के हज़ारों दस्तावेज़ लीक हुए और आरोप लगा कि भ्रामक जानकारी और हेटस्पीच कंटेंट को वो रोक नहीं पा रहा है. इस पर फैलने वाली भ्रामक जानकारियों को देखते हुए एक एक्टिविस्ट ग्रूप ने इसे 'सार्वजनिक स्वास्थ्य के लिए ख़तरा' तक करार दिया था.
कुछ जानकार मानते हैं कि मेटावर्स का विज़न इस पूरी स्थिति को बदलने की कोशिश है.
जैनेट कहती हैं, "शेयर बाज़ार में कंपनी के शेयरों की क़ीमतें बढ़ गईं. ये ऐसा है जैसे कंपनी कह रही हो कि वो इसमें लीडर बन सकती है. सोशल मीडिया पर नियमन को लेकर हुए विवाद ने निवेशकों को हतोत्साहित किया था. लेकिन मेटा जो बना रहा है वो नई चीज़ है और लोगों को आकर्षित करती है. हो सकता है कि इसके ज़रिए लोग और बेहतर तरीके से कम्यूनिकेट कर सकें."
मेटावर्स को हकीकत बनाने वाली कुछ तकनीक बन चुकी है, लेकिन अभी भी काफी कुछ किया जाना बाक़ी है. ऐसे में मेटावर्स अगले 10-15 सालों तक बनेगा, ये कहना मुश्किल है. और इस बीच काफी कुछ हो सकता है.
वो कहती हैं, "लोग नई चीज़ों से बोर हो जाते हैं. मेटावर्स की नई दुनिया के ज़करबर्ग के दावे से लोगों की उमीदें बढ़ेंगी. और जब लोगों को लगेगा कि आपका जो अवतार मेटावर्स में उड़ रहा है या घूम रहा है वो असल में आप नहीं हैं तो वो निराश हो सकते हैं."
लेकिन सवाल ये है कि फ़ेसबुक ने किसी और प्रोजेक्ट की बजाय मेटावर्स को अपने नए प्रोजेक्ट के रूप में क्यों चुना?
जैनेट कहती हैं, "मुझे लगता है कि ये इस बात से ध्यान भटकाने की कोशिश है कि कंपनी को असल में किस मुद्दे पर काम करना चाहिए. उसे सोशल मीडिया के मानकों को लेकर काम करना चाहिए ताकि यूज़र डेटा यूज़ और भ्रामक जानकारी रोकने को लेकर उसकी प्रतिबद्धता पर भरोसा कर सके."
वैरिटी मैकिन्टोश यूनिवर्सिटी ऑफ़ वेस्ट इंग्लैंड में सीनियर लेक्चरर हैं. वो वर्चुअल और एक्सटेन्डेट रियलिटी के बारे में पढ़ाती हैं.
वो कहती हैं कि कंपनी का नाम बदलकर ज़करबर्ग ने खुद को मेटावर्स के खिलाड़ी के रूप में पेश किया है और हो सकता है कि कल वो इस क्षेत्र में अपना प्रभुत्व कायम करें.
वो कहती हैं, "हमारे लिए आश्वस्त होना मुश्किल है कि वो इस नए स्पेस को लेकर कड़े नियम लागू करेंगे या फिर यूज़र्स की निजता के अधिकार का सम्मान करेंगे. चिंता इस बात की है कि ऐसी तकनीक बनाने वाले इसमें फायदा देख रहे हैं. लेकिन जिस तेज़ी से तकनीक बदल रही है, उस तेज़ी से नियम बनाना नियामकों के लिए भी आसान नहीं."
वैरिटी मानती हैं कि मेटावर्स आम हो उससे पहले इस तकनीक को लेकर कड़े नियम बनाए जाने की ज़रूरत है.
वो कहती हैं, "ऐसे वर्चुअल स्पेस को लेकर हमारे पास अभी कम जानकारी है. यहां क्या करना चाहिए क्या नहीं करना चाहिए हमें नहीं पता. लेकिन अगर कंपनी जान पाती है कि हम कहां जाते हैं, कैसी हरकतें करते हैं और कैसे चलते हैं तो ये ख़तरनाक हो सकता है.
वैरिटी मानती हैं कि हो सकता है कि अभी ये तकनीक बेहद जटिल है, लेकिन नियामक इस पर काम कर सकते हैं क्योंकि इंटरनेट किसी एक के कंट्रोल में न हो इसके लिए मैकनिज़्म पहले ही मौजूद है.
वो कहती हैं, "जनरल डेटा प्रोटेक्शन रेगुलेशन यानी जीडीपीआर ये सुनिश्चित करता है कि कंपनियां यूरोपीय संघ में रहने वालों के डेटा और निजता के अधिकार का उल्लंघन न करें. इसके तहत इकट्ठा किए जा रहे डेटा का इस्तेमाल कैसे होगा इस बारे में यूज़र की सहमति लेना कंपनी के लिए ज़रूरी है. हालांकि कुछ कंपनियां इसे रुकावट मानती हैं."
मेटावर्स काफी हद तक कंपनियों की आपसी समझदारी पर भी निर्भर करता है. ओपनईएक्सआर ऐसा मानक है जो डेवलपर्स के लिए वर्चुअल और ऑग्मेन्डेट रियलिटी प्लेटफॉर्म के लिए बने एप्स शेयर करना आसान बनाता है. कई कंपनियां इसका समर्थन करती हैं लेकिन इसमें मतभेद भी हैं.
वो कहती हैं, "अगर सभी कंपनियां एक ही विज़न पर काम करें तो ये अभूतपूर्व होगा. लेकिन ओपनईएक्सआर में भी लोगों के बीच वैचारिक मतभेद दिख रहे हैं. हमें ऐसे नियम बनाने चाहिए जिससे दुनिया के सभी देश इसका हिस्सा बनें और ये केवल वैज्ञानिकों या सिलिकॉन वैली के लोगों की ज़िम्मेदारी न रहे."
मेटावर्स के क्षेत्र में होने वाली तरक्की से उन्हें उम्मीद तो है लेकिन डर भी है.
वो कहती हैं, "हम इसे एक ऐसी दुनिया के रूप में देख सकते हैं जो लोगों के बीच दूरियों को कम करेगा और अलग-अलग मुल्कों के लोगों को पास लाएगा. लेकिन मुझे चिंता है कि कंपनियां इसे निजी डेटा की ख़ान समझ सकती हैं. ऐसे में अगर शुरूआती दौर में ही इसे लेकर कड़े नियम बनाए जा सकें तो बेहतर होगा."
लौटते हैं अपने पहले सवाल पर- मेटावर्स क्या है और फ़ेसबुक इसे लेकर इतना उत्साहित क्यों है?
ये इंटरनेट का अगला पड़ाव है जहां असली दुनिया और वर्चुअल दुनिया एक होंगे. यहां घर भी होंगे और बाज़ार भी. ये बात भी सच है कि इसे बनाने में अभी लंबा वक्त लगेगा. लेकिन इंटरनेट के भविष्य को आकार दे पाना ऐसा मौक़ा है जिसे फ़ेसबुक नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहेगा.
इस नए भविष्य को बनाने के लिए डेवलपर्स और तकनीकी कंपनियां तो ज़रूरी हैं ही, नियमन भी बेहद ज़रूरी है.
इसके लिए कंपनियों और सरकारों को एक नई सोच के साथ, साथ आना होगा. लेकिन मुश्किल ये है कि कुछ लोग अभी भी इसे कोरी कल्पना मान सकते हैं.
प्रोड्यूसर - मानसी दाश
(बीबीसी हिन्दी के एंड्रॉएड ऐप के लिए आप यहां क्लिक कर सकते हैं. आप हमें फ़ेसबुक, ट्विटर, इंस्टाग्राम और यूट्यूब पर फ़ॉलो भी कर सकते हैं.)