SECTION 375 फ़िल्म: जिनसे क़ानून बन जाता है अंधा
क़ानून से कभी प्यार मत करो क्योंकि क़ानून वो जलनखोर रखैल है जो हमेशा हताश करती है.'
'सेक्शन 375' फ़िल्म में जब बचाव पक्ष का वक़ील तरुण सलूजा (अक्षय ख़न्ना) ये कहता है तो इसके दो अर्थ समझ में आते हैं. पहला- क़ानून की समझ समाज की समझ के साथ बढ़ती है. दूसरा- रखैल बदल दी जाती है इसलिए उससे प्यार मत करो. लेकिन अगर लड़ाई क़ानून बनाम इंसाफ़ की हो जाए, तब आप किस तरफ़ होंगे?
'क़ानून से कभी प्यार मत करो क्योंकि क़ानून वो जलनखोर रखैल है जो हमेशा हताश करती है.'
'सेक्शन 375' फ़िल्म में जब बचाव पक्ष का वक़ील तरुण सलूजा (अक्षय ख़न्ना) ये कहता है तो इसके दो अर्थ समझ में आते हैं.
पहला- क़ानून की समझ समाज की समझ के साथ बढ़ती है. दूसरा- रखैल बदल दी जाती है इसलिए उससे प्यार मत करो. लेकिन अगर लड़ाई क़ानून बनाम इंसाफ़ की हो जाए, तब आप किस तरफ़ होंगे?
उस क़ानून की तरफ़ जो ये कहता है कि एक लड़की की इच्छा और सहमति सबसे ज़्यादा ज़रूरी है, एक बार के लिए नहीं बल्कि हर बार के लिए ज़रूरी है. क्या आप उस न्याय की तरफ़ होंगे, जहां सिर्फ़ सच मायने रखता है. इस सवाल का कई लोग शायद ये जवाब दें कि वो ऐसे फ़ैसले का समर्थन करेंगे, जहां क़ानून की मदद से न्याय मिला हो.
मगर हक़ीक़त तो ये है कि फ़ैसले के रास्ते में सिस्टम की ऐसी धूल भरी फाइलें पड़ी हैं, जिन्हें पार करने में ही सालों-साल लग जाते हैं. फ़िल्म सेक्शन 375 भी ऐसी ही धूल पर सिनेमाई झाड़ू मारने की कोशिश करती दिखती है.
375 से 376 तक
रेप की परिभाषा बताने वाली धारा 375.
हर 14वें मिनट में होते एक रेप वाले देश में ये धारा 375 बलात्कार की परिभाषा बताती है. लेकिन सज़ा जानने के लिए क़ानून का पन्ना पलटकर 376 तक आना पड़ता है.
यहां तक पहुंचने की लड़ाई लड़ने वाली पीड़िताओं को झेलने होते हैं भोगे हुए सच का दर्द और उसे साबित करने की लड़ाई. वो भी इस दौर में जहां आए दिन ऐसी पीड़िताओं को कुचलने के लिए सामने से तेज़ रफ़्तार ट्रक दौड़े चले आ रहे होते हैं.
सेक्शन 375 फ़िल्म के केंद्र में एक सवाल रहता है- कानून बड़ा या न्याय? इस सवाल का साथ देती है- बलात्कार के दृश्य की ओर संकेत करती हुई कहानी.
फ़िल्म में डायरेक्टर का किरदार अदा कर रहे रोहित खुराना (राहुल भट्ट) पर अपनी कॉस्ट्यूम डिजाइनर अंजली दांगले ( मीरा चोपड़ा) का बलात्कार करने का आरोप है. सेशन कोर्ट फ़ैसला सुनाता है- दोषी क़रार.
केस हाई कोर्ट पहुंचता है. बचाव पक्ष से हीरल गांधी (ऋचा चड्ढा) जिरह करने आती हैं,
'एक लाख औरतों में से क़रीब दो औरतों को अपनी ज़िंदगी में कभी रेप का सामना करना पड़ सकता है.'
'इंडिया में 75 फ़ीसदी मामलों में रेप के अभियुक्तों को सज़ा होती ही नहीं है. वो बस आज़ाद होकर निकल जाते हैं.'
'जज साहेब, क्या रेप का अभियुक्त रहा कोई भी मर्द कभी आज़ाद होकर निकल सकता है?'
फ़िल्म में ऐसी दलीलों में ब्रिटेन से तुलना और दूसरे पहलुओं के मद्देनज़र कहानी में रेप के आँकड़े कम जान पड़ते हैं जबकि 'मासूम दर्शकों' को ये पूरे ज़ोर-शोर से बताने की ज़रूरत थी कि विकसित देशों में रिपोर्टिंग की दर भारत जैसे तीसरी दुनिया और रूढ़िवादी देशों से कहीं ज़्यादा है.
वहाँ की महिलाओं में अपराधबोध की भावना हमारे देश की औरतों से कम है. इस देश में मर्यादा की नींव ही औरत के घूँघट की लंबाई से मापी जाती है. जहाँ स्कूल-ट्यूशन जाती लड़कियां छेड़छाड़ होने पर घर में शिकायत की जगह रास्ता या टीचर बदल लेना ज़्यादा बेहतर समझती हैं. उस देश में नारी रक्षा के नाम पर ब्रिटेन जैसे देश से तुलना करना क़ानून को टोपी पहनाने से ज़्यादा कुछ नहीं समझा जाएगा.
फ़िल्म में अभियुक्त का डिफेंस करते हुए अक्षय खन्ना रेप की दर्ज की गई शिकायतों में 25 फ़ीसदी कन्विक्शन रेट का मतलब 75 फ़ीसदी झूठे दावों से जोड़ते दिखते हैं.
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कोर्ट पहुंचने से पहले दम तोड़ते केस
फ़िल्म विक्टिम के बचाव में प्रॉसिक्युटर को बेतुकी और अधूरी लाइनें देकर ये बताने से कतराती है कि भारत में कम कनविक्शन रेट के कितने सारे कारण हैं.
इसी की वजह से कई केस कोर्ट पहुंचने से पहले दम तोड़ देते हैं. ऐसे केसों को फ़र्ज़ी आरोपों की श्रेणी में डालने से पहले हमें उन्नाव रेप पीड़िता को याद करना पड़ेगा.
हमें याद करना पड़ेगा कि अलवर में कैसे सामूहिक बलात्कार के बाद वीडियो वायरल करने की धमकी दी गई थी. कन्विक्शन रेट से पहले हमें ये पूछना होगा कि मानसिक और शारीरिक उत्पीड़न झेलने वाली दिल्ली की एक लड़की को पुलिस की लापरवाही से फाँसी क्यों लगानी पड़ी थी.
एक कोर्ट रूम ड्रामा पेश कर रही फ़़िल्म अगर दोनों पक्षों में से एक के तर्क में कंजूसी करती हुई दिखती है तो कहानी किस तरफ़ टिल्टेड है, इस पर राय बनाना बहुत मुश्किल नहीं होता है.
मगर फ़िल्म दबे क़दमों से ही सही, सिस्टम में चले आ रहे कुछ बेजा हरकतों पर हमारा ध्यान ले जाती है. इसमें सबसे पहले आता है किसी भी रेप पीड़िता के साथ की गई पुलिस का व्यवहार और मेडिकल चेकअप. पीड़िता के साथ दिखाई जाने वाली विशेष संवेदनशीलता की ज़रूरत पर बार-बार बात की गई है.
'एग्जामिनेशन और स्टेटमेंट में फ़र्क़ हुआ तो कोर्ट में फ़ैसला तुम्हारे ही ख़िलाफ़ जाएगा'
रेप के चंद घंटों बाद ही पीड़िता से ये कहना ज़ाहिर करता है कि हमारा प्रशासन अब भी पीड़िता के ट्रॉमा को पूरी तरह समझ नहीं पाया है.
चंद घंटे पहले बलात्कार झेल चुकी औरत से सारी घटना 'टू द पॉइंट' बतलाने की उम्मीद रखना या न बतला पाने पर झूठा समझ लेना समाज में औरतों को लेकर आम राय का पर्दाफाश करता है.
पुलित्ज़र प्राइज़ से सम्मानित लेख पर आधारित नेटफ्लिक्स की सिरीज़ 'अनबिलिवेबल' में मेरी एडलर की कहानी इसी नज़रिए को बड़ी ख़ूबसूरती और दर्दनाक तरीक़े से दिखाती है.
कहानी के छिपे ट्विस्ट एंड टर्न्स को ज़्यादा बताए बगैर अगर स्क्रिप्ट की बात की जाए तो मनीष गुप्ता की स्क्रिप्ट बहुत हद तक बांधे रखती है.
ऐसे तो प्रॉसिक्युटर को ढीला और कन्फ्यूज्ड दिखाना निराशाजनक और छला हुआ लगता है लेकिन डिफेंस वकील की इन्वेस्टिगेशन का तरीक़ा बेहतर लगता है.
निदेशक अजय बहल बलात्कारी साबित हो जाने तक अभियुक्त के लिए कम्प्लीट जूडिशल प्रोसेस से बिना अपमानित हुए गुजरने के हक़ और सोशल मीडिया के हाफ-इंफॉर्मड ट्रायल को सफलतापूर्वक सामने लाने में सफल रहे हैं.
कम सुनने और ज्यादा राय बनाने के दौर में फ़िल्म में उठाए छोटे-छोटे सवाल हमें सोचने पर मजबूर करते हैं कि सिक्के के दोनों पहलू को बिना सुने फ़ैसले पर पहुँच जाना कितना घातक हो सकता है.
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दो परतों में सिमटी फ़िल्म
पहले घंटे में फ़िल्म दो परतों में चलती हुई दिखती है.
सेक्शन 375, जो ये कहता है कि किसी भी महिला से किया गया संभोग-- उसकी इच्छा और मर्जी के विरुद्ध/जबरन ली गई मर्जी/ धोखे से ली गई मर्जी/नशे की हालत/झूठा नैरेटिव बताकर ली गई मर्जी/दिमाग़ी रूप से असमर्थ होना-- बलात्कार के अंदर आता है.
जैसे ही कहानी प्रत्यक्ष रूप से सही दिखने वाले सबूत और साथ ही साथ फैक्ट्स के छेड़छाड़ पर आती है. कहानी की दूसरी परत अधखुले आकार में ही सही लेकिन बलात्कार जैसे गंभीर क्राइम में पुलिस के हाथों हुए अस्वीकार्य और संगीन गलतियों की लड़ी हमारे सामने लाकर बिछा देती है.
कोर्ट की कार्यवाही के दौरान जज का ' ब्रोकेन चेन ऑफ कस्टडी.....' पर दंग होकर त्योरियां चढ़ा लेना हमें ये बताने के लिए काफ़ी होता है कि पुलिस प्रशासन की घोर लापरवाही और अफसरों के अंदर बैठी पितृसत्ता किस तरह से किसी भी केस को पलट सकती है.
'त्रिया चरित्र' से नवाज़ी जाने वाली औरत जात पर भरोसा न करना हमारे संस्कारों में है. पुलिसकर्मियों का ढीला रवैया न सिर्फ़ एक दोषी को निर्दोष बना सकता है बल्कि एक मासूम के हाथों में हथकड़ियां भी डाल सकता है.
दूसरे घंटे में थोड़ा चौंकाते हुए फ़िल्म सेक्शन 375 से 376 पर घिसक जाती है. ये हैरान इसलिए भी करता है क्योंकि सिक्के के दूसरे पहलू को सुनने की अपील लिए हुए ये फ़िल्म अपनी राय जस्टिफाई करने के लिए अंत में ओवर सिम्प्लीफाई होती दिखती है. 'हेन्स प्रूव्ड' की जल्दी में कहानी से तर्क कई जगहों पर ग़ायब हुआ, जिससे सच के क़रीब दिखने वाली कहानी पर भरोसा कम होता है.
हालाँकि अपने मक़सद में लेखक कुछ जगहों पर काफ़ी हद तक सफल भी होते हैं.
'एक ही लाठी से सबको मारने' का विमर्श, मीडिया और पब्लिक ट्रायल के दौर में अभियुक्त के हिस्से में आई हुई जलालत और उसके गुनाह की गम्भीरता के बीच में आ चुके असंतुलन की तरफ लेखक सही इशारा भी करते हैं. लेकिन वर्कप्लेस में पावर एब्यूज़ जैसे भयानक और महामारी की तरह फैले हुए यौन उत्पीड़न पर साफ तौर से फिसलते हुए दिखते हैं.
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बिलीव बनाम नेवर बिलीव
वो ये तो कहते हैं कि क़ानून महज इंसाफ़ तक पहुंचने का ज़रिया है...यह कोई आदर्श नहीं है.
लेकिन औरतों के ख़िलाफ़ एक साल में लगभग सवा तीन लाख के क़रीब होने वाले अपराध का कलंक अपने ललाट पर पोते हुए घूम रहे देश में 'क़ानून के मिसयूज़' जैसे साइड इफ़ेक्ट को दवाई से ज्यादा महत्व देते हुए दिखते हैं.
इसमें कोई शक ही नहीं है कि 'सच' को हरदम सर उठाने का मौक़ा मिलना ही चाहिए. एकतरफ़ा नहीं, दोनों का, वरना जिस तेजी से 'बिलीव' का हैशटैग 'मी टू' जैसे ज़रूरी आंदोलन को चाबी देता है, उतनी ही स्पीड से 'नेवर बिलीव' का हैशटैग भी ट्रेंड कर सकता है.
विश्वास का यह अभाव किसी भी समाज के लिए उसका अंत साबित होगा क्योंकि दुनिया की आधी आबादी हर दिन हो रहे लाखों अपराधों की फाइलिंग करता खाता कभी नहीं भरेगा.
वह हमेशा सर्दी में फैलने वाले स्मॉग की तरह हमारी आँखों में जलेगा. फ़िल्म को स्त्री विमर्श के फलने फ़ूलने के लिए मददगार कहा जा सकता है क्योंकि इसने न सिर्फ दूसरा पक्ष सामने रखने की कोशिश की है बल्कि हमारा ध्यान देश की क्रिमिनल और क़ानून व्यवस्था की ओर भी खींचा है. अपने अपने पक्ष के सच को जिताने के लिए कैसे न्याय कहीं पीछे रह जाता है, फ़िल्म ने इस पर भी बढ़िया नज़रिया अपनाया है.
कहानी से काफ़ी असहमतियों के बावजूद इस फ़िल्म में उठायी गईं दो ज़रूरी बातें सोचने लायक हैं. पहला कि क्या क़ानून समाज को 'न्याय' की ओर ले जाने वाला एक माध्यम है या फिर क़ानून कभी-कभी न्याय के रास्ते में ख़ुद सबसे बड़ा रोड़ा बन खड़ा हो जाता है?
अगर हां तो क्या क़ानूनी रोड़े को उखाड़ कर फेंकना ही एकमात्र उपाय है? या फिर यौन उत्पीड़न की हर नई घटना पर चाट मसाला डाल कर पेश करते ही उस पर ओपिनियन की पिचकारी मारने में थोड़ा संयम बरत कर न्याय पाने के रास्ते को चिकना किया जा सकता है?
ताकि कभी कोई वकील फिर ये न कह सके कि " जिस क़ानून को औरतों की हिफ़ाजत के लिए बनाया गया, उसी क़ानून को हथियार की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है".
अंधी राय, अधूरा ज्ञान और थैला भर के जजमेंट्स सच को मैला कर देते हैं. यह प्रकिया न सिर्फ़ किसी एक जेंडर के नुक़सान तक सीमित रहती है बल्कि क़ानून के साथ साथ समाज को भी अपाहिज़ बनाती है.
जल्दी से कुछ कह देने की बेचैनी में दोनों पक्ष अपने कानों से उतने ही साउंड वेव पास होने की इजाज़त देते हैं जितना हमारे प्रीकुक्ड नैरेटिव को लिखने के लिए काफ़ी होता है. लिहाज़ा, 'जब आप लिखते हैं, आप सुनना बंद कर देते हैं.'