महाराजा रणजीत सिंह की ज़िंदगी में आने वाली अहम औरतें
महाराजा रणजीत सिंह के बेटे दिलीप सिंह ने एक इंटरव्यू में कहा था कि वो अपने पिता की 46 पत्नियों में से एक की संतान हैं.
भारत में मुग़लों का शासन तेज़ी से सिमट रहा था. अफ़ग़ानिस्तान और ईरान से आक्रमण बढ़ता जा रहा था जिसका विरोध स्थानीय सिख करते थे.
इसी 18वीं सदी में सरबत ख़ालसा संसद की तरह सिखों का अकाल तख़्त, हरमिंदर साहिब, अमृतसर में हर दो साल बाद होने वाला एक अकठ था जहां सिखों को आने वाली किसी भी परेशानी का हल ढूंढा जाता था. सरबत ख़ालसा ही के प्रबंधन के तहत पंजाब में सिखों के बारह क्षेत्र या मिस्ल थे. उनमे से पांच ज़्यादा शक्तिशाली थे.
सकरचकया रावी और चिनाब के बीच फैला हुआ था, गुजरां वाला इसके केंद्र में था. इसी क्षेत्र से अफ़ग़ान हमला करते थे. लाहौर और अमृतसर ज़्यादा शक्तिशाली भंगी मिस्ल के पास थे.
पूर्व में माझा (फ़तेह गढ़ कोरियां, बटाला और गुरदासपुर) कन्हैया मिस्ल का क्षेत्र था. नकई क़ुसूर के आम क्षेत्र पर शासक थे.
राम गढ़िया, अहलूवालिया और सिंहपुरिया मिस्लें ज़्यादातर दोआब के क्षेत्र में थीं.
दस साल की उम्र में पहली जंग
सकरचकया मिस्ल के मुखिया महान सिंह और राज कौर का बेटा 1780 में पैदा हुआ तो बुद्ध सिंह नाम मिला.
बचपन ही में चेचक ने बाई आँख की रोशनी छीनी और चेहरे पर निशान डाल दिए. छोटा क़द, गुरमुखी अक्षरों के अलावा न कुछ पढ़ सकते थे न कुछ लिख सकते थे. हां, घुड़सवारी और लड़ाई का ज्ञान खूब सीखा.
पहली लड़ाई दस साल की उम्र में अपने पिता के कंधे से कंधा मिला कर लड़ी. मैदान-ए-जंग में लड़कपन ही में जीत हासिल की तो इस वजह से पिता ने रणजीत नाम रख दिया.
महाल सिंह के कन्हैया मिस्ल के मुखिया जय सिंह से अच्छे संबंध थे लेकिन जम्मू से जीत के माल के मामले पर मतभेद हो गया.
उन्होंने उनके विरुद्ध राम गढ़िया मिस्ल से गठबंधन कर लिया. साल 1785 में बटाला की लड़ाई में कन्हैया मिस्ल के होने वाले मुखिया गुरबख़्श सिंह मारे गए.
गुरबख़्श की पत्नी सदा कौर ने कन्हैया मिस्ल के मुखिया और अपने ससुर पर समझौता करने के लिए दबाव डाला और वो उनकी बात मान भी गए.
सदा कौर ने दुश्मनी के बजाये मिल कर आगे बढ़ने और ताक़त बढ़ाने का फैसला किया. वो रणजीत सिंह की माता राज कौर से 1786 में मिलीं और दोनों महिलाओं ने दुश्मनी ख़त्म करने के लिए अपने बच्चों रणजीत सिंह और मेहताब कौर की शादी का फैसला किया.
रणजीत सिंह की निजी ज़िंदगी
रणजीत सिंह बारह साल के थे कि पिता की मौत हो गई. तब से ही उनके जीवन में महिलाओं की अहम भूमिका की शुरुआत होती है.
पिता की जगह सकरचकया मिस्ल के शासक हुए तो माता राज कौर का संरक्षण मिला जो अपने सहायक दीवान लखपत राय से मिल कर सम्पत्ति का बंदोबस्त करती थीं.
तेरह साल की उम्र में जानलेवा हमला हुआ लेकिन रणजीत सिंह ने हमला करने वाले को काबू में कर लिया और उसे मार दिया.
पंद्रह या सोलह साल के होंगे जब कन्हैया मिस्ल के संस्थापक जय सिंह कन्हैया की पोती और गुरबख़्श सिंह और सदा कौर की इकलौती बेटी मेहताब कौर से शादी हुई.
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मेहताब कौर रणजीत सिंह से दो साल छोटी थीं. हालांकि शादी नाकाम ही रही क्योंकि मेहताब कौर कभी ये नहीं भूलीं कि उनके पिता की रणजीत सिंह के पिता ने जान ली थी और वो ज़्यादा समय तक अपने मायके में ही रहीं.
इतिहासकारों के अनुसार महारानी की उपाधि सिर्फ उन्हें ही मिली बाक़ी सब रानियां थीं. उनकी मौत के बाद आख़िरी रानी चंद कौर को ये उपाधि मिली.
रणजीत सिंह की उम्र 18 साल थी जब उनकी माँ की मौत हुई. दीवान लखपत राय की भी हत्या हो गई. तब उनकी पहली पत्नी मेहताब कौर की माता सदा कौर उनकी मदद के लिए मौजूद थीं.
सदा कौर ने रणजीत सिंह के राज की बुनियाद रखने में अहम भूमिका निभाई. अफ़ग़ान शासक शाह ज़मान ने तीस हज़ार सिपाहियों के साथ चढ़ाई की और पंजाब में लूट मार की.
सारे सिख मुखिया अफ़ग़ानों से लड़ने से डरते थे. सदा कौर ने रणजीत सिंह की तरफ से अमृतसर में सरबत ख़ालसा को इकठ्ठा किया और सिख मिस्ल दारों से कहा "ख़ालसा जी अगर आप में लड़ने की हिम्मत नहीं है तो मैं पंजाब की आन के लिए लड़ते लड़ते जान दे दूंगी."
रणजीत सिंह की बुलंदी में सदा कौर का योगदान
सदा कौर रणजीत सिंह के लिए शुभ ही नहीं बल्कि उनकी क़िस्मत की देवी भी थीं. सदा कौर ने, जो अपने ससुर की 1789 में मौत के बाद कन्हैया मिस्ल की मुखिया बनी थीं, उन्होंने महाराजा बनने में रणजीत सिंह की मदद की.
सदा कौर ही के कहने पर रणजीत सिंह का 19 साल की उम्र में फ़ौज की कमान संभालने के लिए चुनाव हुआ.
रणजीत सिंह ने 1797 और 1798 में शाह ज़मान को हराया और कन्हैया मिस्ल के साथ मिलकर भंगी शासकों को 1799 में लाहौर से निकाल कर बाहर कर दिया. बाद के सालों में मध्य पंजाब का सतलुज से झेलम तक का क्षेत्र उनके प्रभुत्व में आ गया और सिख साम्राज्य की नींव डाली गई.
दतार कौर नकई मिस्ल के मुखिया की बहन और सरदार रण सिंह नकई की सबसे छोटी बेटी थीं. उनका असली नाम राज कौर था जो रणजीत सिंह की माता का भी था. इसीलिए पंजाबी परंपरा को निभाते हुए ये नाम बदल दिया गया. 1801 में उन्होंने खड़क सिंह को जन्म दिया जो रणजीत सिंह के उत्तराधिकारी बने.
रणजीत सिंह का शासन
खड़क सिंह के जन्म के बाद रणजीत सिंह ने महाराजा की उपाधि अपना तो ली लेकिन खुद को सिंह साहब कहलवाना ज़्यादा पसंद करते थे.
रणजीत सिंह ने अपने नाम के सिक्के भी जारी नहीं किये बल्कि सिक्कों पर बाबा गुरु नानक का नाम था.
लेखक जे. बंस के अनुसार रणजीत सिंह ने अनपढ़ होने के बावजूद ज़बानी आदेश के बजाये लिखित आदेश जारी करने का चलन शुरू किया जिसके लिए पढ़े लिखे लोग नियुक्त किए.
हरदेव वर्क लाहौर के फ़क़ीर घराने के संस्मरणों पर आधारित रणजीत सिंह पर लिखी अपनी किताब में कहते हैं, "रणजीत सिंह तख़्त पर बिराजमान नहीं होते थे बल्कि वो अपनी कुर्सी पर पालथी मार कर दरबार लगाते थे. उन्होंने अपनी पगड़ी या पोशाक में कोई असाधारण चीज़ नहीं लगाई."
वो अपने दरबारियों से कहते थे, "मैं एक किसान और एक सिपाही हूँ, मुझे किसी दिखावे की ज़रूरत नहीं. मेरी तलवार ही मुझमे वो फ़र्क पैदा कर देती है जिसकी मुझे ज़रूरत है."
रणजीत सिंह अपने ऊपर तो कुछ खर्च नहीं करते थे लेकिन उनके आस-पास खूबसूरती, रंग और ख़ुशी मौजूद रहे इसकी इच्छा रखते थे.
फ़क़ीर अज़ीज़ुद्दीन कहते हैं कि रणजीत सिंह खुदा की तरफ से (चेचक के बाद) आने वाली कमी पर खुश थे.
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उन्हीं के अनुसार एक बार महाराजा हाथी पर सवार फला सिंह की बालकनी के नीचे से गुज़र रहे थे.
उस निहंग सरदार और अकाल तख़्त के जत्थेदार ने चिढ़ाते हुए कहा "ओ काने, तेनु इये झोट्टा किन्ने दित्ता सवारी लाई (ओ एक आँख वाले, तुम्हे ये भैंसा किसने दी सवारी को)."
रणजीत सिंह ने नज़र ऊपर की और विनम्रता से कहा, "सरकार ए तुआड्डा ई तोहफा ए (सरकार, ये आप ही का दिया तोहफा है)."
नौजवानी में शराब पीने की लत पड़ गई जो दरबार के इतिहासकारों और यूरोपीय मेहमानों के अनुसार बाद के दशकों में और भी ज़्यादा होती चली गई.
हालांकि उन्होंने धूम्रपान न खुद किया न दरबार में इसकी इजाज़त दी बल्कि नौकरी पर भी इसकी मनाही थी जो कॉन्ट्रैक्ट में भी लिखा होता था.
दूसरी पत्नी दतार कौर
दतार कौर राजनितिक मामलों में दिलचस्पी लेती थीं और कहा जाता है कि 1838 में अपनी मौत के समय तक वो महत्वपूर्ण कार्यों में अपने पति की मदद करती रहीं.
उत्तराधिकारी की माँ होने के नाते महाराजा पर दतार कौर की खूब चलती रही.
1818 में जब रणजीत सिंह ने लाड़ले बेटे खड़क सिंह को एक मुहीम पर मुल्तान भेजा तो वो उनके साथ गईं. पूरी ज़िन्दगी रणजीत सिंह की पसंदीदा रहीं.
वो उन्हें प्यार से माय निकाईन कहते थे. पहली शादी की तरह ये शादी भी फौजी गठबंधन की वजह बनी.
रणजीत सिंह की शादियां
रणजीत सिंह ने विभिन्न मौक़ों पर कई शादियां कीं और उनकी 20 पत्नियां थीं.
कुछ इतिहासकारों के अनुसार महाराजा की शादियों से संबंधित जानकारी साफ़ नहीं हैं और ये बात तय है कि उनके कई रिश्ते थे.
खुशवंत सिंह का कहना है कि फ़्रांसिसी पत्रिका को 1889 में दिए गए एक इंटरव्यू में महाराजा के बेटे दिलीप सिंह ने बताया था कि "मैं अपने पिता कि 46 पत्नियों में से एक की संतान हूँ."
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पतवंत सिंह ने रणजीत सिंह पर लिखी अपनी किताब में कहा है, "सिख धर्म के दस गुरुओं की शिक्षा से प्रभावित, वो अपने संपर्क में आने वाले सभी लोगों के अधिकारों का ख्याल रखते मगर अपने अधिकारों पर भी आंच न आने देते. जीवन का पूरा आनंद लिया और उनके दरबार की शान भी निराली थी. बीस पत्नियां थीं और दासियों का एक लश्कर."
फुर्सत के समय में दरबार में नाच गानों की महफ़िलें सजतीं. रणजीत सिंह ऐसी महफ़िलों में पिसे हुए मोतियों मिली किशमिश से बनी शराब पीते. इस महफ़िल में महाराजा के राज्य से चुनी हुई एक सौ पच्चीस खूबसूरत लड़कियां पेश की जातीं. ये लड़कियां पच्चीस साल से कम उम्र की होतीं. इनमें से एक बड़ी कलाकार बशीरा थीं. उनकी आँखें भूरे रंग की होने की वजह से महाराजा उन्हें ब्लू कहते थे.
फ़क़ीर वहीदुद्दीन और अमरिंदर सिंह ने भी इस बात की पुष्टि की है कि उनके हरम में 46 महिलाएं थीं. नौ से सिख धर्म के तहत शादी की, नौ जो गवर्नरों की विधवाएं थीं, चादर अंदाज़ी (सिर पर चादर डालने की रस्म) के ज़रिये उनके रिश्ते में आईं, सात मुस्लिम नर्तकियां थीं, जिनसे शादी की बाकी सब कनीज़ थीं.
राजनैतिक शादियों के बाद प्यार की शादियां
मेहताब कौर और दतार कौर राजनैतिक पत्नियां थीं, यानी उनके साथ रिश्ते से पंजाब के शासक के तौर पर उनका गठबंधन मज़बूत हुआ. दो शादियां दिल के हाथों मजबूर होकर कीं. ये दोनों पत्नियां अमृतसर से थीं.
अमृतसर की मुसलमान नृतकी मोरा से 1802 में शादी की. निहंगों समेत जिनके नेता अकाली फला सिंह अकाली तख़्त के जत्थेदार थे, कट्टर सिखों को उनका ये क़दम पसंद नहीं आया.
मोरा रणजीत सिंह की पसंदीदा रानी थी. उनसे रणजीत सिंह को 22 साल की उम्र में पहली नजर में प्यार हो गया था.
फ़कीर वाहिदुद्दीन के अनुसार, उनसे शादी के लिए रणजीत सिंह ने मोरा के पिता की सभी शर्तों को स्वीकार कर लिया. एक शर्त मोरन के घर में फूंक से आग जलाने की थी. महाराजा ने ये भी कर दिया.
मोरा से शादी के तीन दशक बाद उन्होंने गुल बहार बेगम से शादी की. अमृतसर में शादी समारोह आयोजित किया गया था.
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सोहन लाल सूरी लिखते हैं कि शादी के समारोह के लिए, रणजीत सिंह ने अपने बेटे खड़क सिंह को लाहौर भेजा था ताकि वे वहां से ब्रोकेड के पूल टेंट लाएं. पैसा खूब खर्च किया गया था. शादी से दो दिन पहले रणजीत सिंह ने हाथों पर मेहंदी लगवाई. सिख धर्मगुरुओं को खुश किया और फिर शादी में आमंत्रित मेहमानों की ओर रुख किया. अमृतसर और लाहौर की नर्तकियों को बुलाया गया और उन्हें सात-सात हज़ार रुपये इनाम में दिए.
फ़कीर वहीदउददीन के अनुसार, महाराजा गुल बहार बेगम से जटिल मुद्दों पर सलाह लिया करते थे.
सोहन लाल जो दरबार का रोज़नामा लिखते थे, कहते हैं कि 14 सितंबर, 1832 को अमृतसर में दरबार लगाते समय, रणजीत सिंह ने गुल बहार बेगम की सिफारिश पर, उन कुछ लोगों को माफ कर दिया, जिन्हें एक दिन पहले किसी अपराध पर सज़ा सुना चुके थे.
गुजरात के साहिब सिंह भंगी की मृत्यु के बाद, उनकी पत्नियों रतन कौर और दिया कौर पर रणजीत सिंह ने चादर अंदाज़ी से 1811 में शादी की.
रतन कौर ने 1819 में मुल्ताना सिंह को और दीया कौर ने 1821 में कश्मीरा सिंह और पेशावर सिंह को जन्म दिया. लेकिन ऐसा कहा जाता है कि ये बच्चे रणजीत सिंह के बजाय नौकरों के थे, जिन्हें रानियों ने लिया और अपने बच्चों के तौर पर पेश किया.
उन्होंने चांद कौर से 1815 में, लक्ष्मी से 1820 में और समन कौर से 1832 में शादी की.
रणजीत सिंह ने एक मुहीम के दौरान कांगड़ा में गोरखाओं को हराने के बाद, राजा संसार चंद के साथ गठबंधन करते हुए उनकी दो बेटियों, मेहताब देवी (गुड्डां) और राज बंसू से जिनकी खूबसूरती के चर्चे थे, उनसे शादी की.
करतार सिंह दुग्गल के अनुसार संसार चंद कांगड़ा कला के संरक्षक थे. गुड्डां में भी यह विशेषण कुछ हद तक मौजूद था. उनके पास मिनिएचर पेंटिंग्स का कलेक्शन मौजूद था. 1830 और 1832 के बीच तीन शादी की. इन तीन पत्नियों में से एक की रणजीत सिंह के जीवनकाल में ही मृत्यु हो गई.
चंद कौर को महारानी की अंतिम उपाधि मिली
महाराजा रणजीत सिंह की अंतिम शादी 1835 में चंद कौर से हुई थी. चंद कौर के पिता मान सिंह ओलख ने रणजीत सिंह के सामने तब अपनी बेटी की खूबियों को बयान किया जब वह अपने उत्तराधिकारी खड़क सिंह के खराब स्वास्थ्य के बारे में चिंतित थे.
महाराजा ने 1835 में चंदकौर के गांव "अपनी कमान और तलवार भेज कर" शादी की. 1835 में, चंद कौर ने दिलीप सिंह को जन्म दिया, जो सिख साम्राज्य के अंतिम महाराजा बने. चंद कौर को महारानी की उपाधि मिली. उनसे पहले ये उपाधि केवल उनकी पहली पत्नी मेहताब कौर को दी गई थी.
लेखक आरवी स्मिथ का कहना है कि महाराजा रणजीत सिंह अंतिम वर्षों में बढ़ती उम्र और हरम में मौजूद 17 पत्नियों के बीच झगड़ों जैसी समस्याओं का सामना करते हुए अफीम के आदि हो गए थे. 1839 में, लकवा और ज़्यादा शराब पीना घातक साबित हुआ. रणजीत सिंह की चार हिंदू पत्नियां और सात हिंदू दासियां उनके साथ ही सती हो गईं.