सावन में यहां भगवान शिव नहीं मां काली की होती है पूजा
हैदराबाद। सावन का महीना शुरू हो चुका है और इसके साथ ही भारत के विभिन्न हिस्सों में भक्तजन भगवान शिव की भक्ति में लीन हो गए हैं।
लेकिन क्या आपको पता है, इस सबके बीच भारत में एक ऐसी जगह भी है जहां सावन के महीने में भोलेनाथ की नहीं मां काली की पूजा की जाती है।
हम बात कर रहे हैं, हैदराबाद और तेलंगाना के कुछ भागों में मनायी जाने वाले त्यौहार बोनालु की। यह वार्षिक उत्सव आषाढ़ माह में मनाया जाता है जिसमें मां काली की पूजा अर्चना की जाती है। साथ ही उत्सव के दौरान शहर में यात्रा निकाली जाती है, जिसमें विभिन्न पौराणिक भूमिकाओं में तैयार होकर लोग शामिल होते हैं और लोक गीतों के साथ अनूठी शैली में नृत्य प्रस्तुत करते हैं।
यह शहर के विभिन्न भागों में मनाया जाता है। पहले रविवार उत्सव गोलकोंडा फोर्ट में मनाया जाता है तो दूसरे रविवार उज्जैन महाकाली मंदिर में । इसी तरह तीसरी रविवार को पोच्चमा कट्टा मैसम्मा मंदिर और चौथे रविवार को हैदराबाद के माथेश्वरी मंदिर में यह उत्सव धूम-धाम से मनाया जाता है।
तो चलिए देखते हैं हर स्लाइड्स पर बोनालु उत्सव से जुड़ी कुछ और जानकारियों को।
महाकाली की पूजा
सावन में जहां पूरा देश भगवान शंकर की आराधना करता है। हैदराबाद और तेलंगाना के कुछ भागों में लोग भगवती के रूप महाकाली की पूजा अर्चना करते हैं।
मां काली की आराधना
इस त्यौहार में लोग मां काली को अपनी मान्यताओं और प्रतिज्ञा की पूर्ति के लिए धन्यवाद देते हैं।
धूमधाम से मनता है उत्सव
यह उत्सव हैदराबाद और सिंकदराबाद के विभिन्न भागों में धूमधाम से मनाया जाता है। महीने के चार रविवारों में से हर रविवार शहर के अलग अलग मंदिरों में मां की भव्यता के साथ आराधना की जाती है।
महाकाली का विकराल स्वरूप
इस उत्सव में मां काली के विभिन्न रूपों को पूजा जाता है। साथ ही पूजा के दौरान महिलाएं गुड़ और दूध के साथ पके चावल प्रसाद के रूप में भगवती को चढ़ाकर पूजती हैं।
लाखों की उमड़ती है भीड़
बोकालु के दौरान हर वर्ष लाखों की संख्या में भक्तजन महाकाली की भक्ति में रम जाते हैं।
वर्ष 1813 से मनाया जाता है
माना जाता है कि एक बार हैदराबाद में प्लेग रोग ने हजारों लोगों की जान ले ली थी। लिहाजा, इस महामारी से निपटने के लिए लोगों ने मां काली की मूर्ति की स्थापना की और इस विपत्ति से उबरने की प्रर्थाना की।
बेटियों को मिलता है ज्यादा प्यार
इस त्यौहार के पीछे यह भी मान्यता है कि इस महीने में भगवती अपने पैतृक घर में वापस आती है। लिहाजा, इस दौरान घरों में लोग अपनी बेटियों से खासा लाड़ करते हैं।
पारंपरिक वेशभूषा
इस उत्सव के दौरान महिलाएं गहनों के साथ साथ पारंपरिक वेशभूषा में रहती हैंं।
ढ़ोल से होता है स्वागत
इस त्यौहार में देवी के सम्मान में ढ़ोल बजाया जाता है। साथ ही महिलाएं सिर के ऊपर घड़े रखकर विशेष प्रकार का नृत्य करती हैं।
पोथुराजू हैं देवी मां के भाई
वहीं, पोथुराजू को देवी मां के भाई के रूप में माना जाता है। उत्सव के दौरान पोथुराजू बना एक आदमी जूलूस का प्रतिनिधित्व करता है। यह पूरे शरीर में हल्दी का लेप लगाकर ढ़ोल की धमक पर जम कर नृत्य करता है।
देववाणी का प्रर्दशन
उत्सव की अगली सुबह एक महिला देववाणी का प्रर्दशन करती है। वह मि़ट्टी से बने घड़े के ऊपर खड़े होकर खुद में देवी मां को समाहित कर लोगों के लिए अगले वर्ष का भविष्यवाणी करती है।
घातम होता है तैयार
वहीं, इस मौके पर तांबे के एक बर्तन को देवी मां के रूप में सजाया जाता है। जिसे घातम कहते हैं। इसे एक पुजारी लेकर चलते हैं, जो पारंपरिक वेशभूषा में सजे होते हैं।
कार्निवाल जैसा वातावरण
यह पूरा नजारा एक कार्निवाल जैसा प्रतीत होता है। जो शहर के सड़कों से होकर गुजरता है। हजारों की संख्या में लोग सड़कों पर जमा होकर इस यात्रा के गुजरने की प्रतीक्षा करते हैं।
विभिन्न पौराणिक भूमिकाओं का जमघट
विभिन्न पौराणिक भूमिकाओं में तैयार होकर लोग इस यात्रा में शामिल होते हैं। और लोक गीतों के साथ अनूठी शैली में नृत्य प्रस्तुत करते हैं।
बलि प्रथा
इस त्यौहार के दौरान लोग देवी मां को प्रसन्न करने के लिए बकरे और मुर्गों की बलि भी देते हैं। पहले लोग भैंसे की बलि भी देते थे।
घातम विसर्जन
घातम विसर्जन के साथ ही यह उत्सव समाप्त हो जाता है।