नज़रिया: रहस्य है बदनामी के बावजूद लालू की लोकप्रियता
पटना में आरजेडी की रविवार की रैली में बड़ी संख्या में लोग जुटे. रैली की कामयाबी बताती है कि बिहार में करप्शन बड़ा मुद्दा नहीं है.
पटना में आरजेडी की रविवार की रैली जन-हिस्सेदारी के स्तर पर बेहद कामयाब रही.
बिहार वैसे भी बड़ी-बड़ी रैलियों के लिए मशहूर है, लेकिन इस बार कयास लगाए जा रहे थे कि सत्ता से बेदखली, सीबीआई छापों और नए-नए मुकदमों में घिरे लालू यादव परिवार के लिए पहले की तरह भीड़ जुटाना मुश्किल होगा.
बिहार के 21 ज़िलों में भारी बाढ़ की स्थिति भी इस वक्त बड़ी रैली के आयोजन के रास्ते में बड़ी बाधा थी. पर सभी विघ्न-बाधाओं को पार करते हुए आरजेडी नेतृत्व ने पटना के गांधी मैदान में बड़ी भीड़ जुटा ली.
बीजेपी-विरोधी महागठबंधन कायम है
इससे एक बात साफ़ हो गई कि बिहार में महागठबंधन कायम है. उससे सिर्फ 'राज-पाट' लेकर नीतीश और उनके विधायक ही निकले हैं, राजनीतिक-सामाजिक स्तर पर आरजेडी की अगुवाई में बीजेपी-संघ विरोधी विपक्षी-गोलबंदी पहले की तरह बरकरार है.
रविवार की 'भाजपा भगाओ-देश बचाओ रैली' का मुख्य फ़ोकस क्षेत्रीय रहा. बार-बार ग़लतियां करने की परिपाटी कायम रखते हुए बीजेपी-विरोधी विपक्षी खेमे की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस के शीर्ष नेता नदारद थे. सोनिया और राहुल गांधी दोनों नहीं आए. राहुल नार्वे के दौरे पर थे और सोनिया को अस्वस्थ बताया गया.
मंच से सोनिया गांधी की रिकॉर्डेड भाषण सुनाया गया, जबकि राहुल का लिखित संदेश पढ़ा गया. कांग्रेस की तरफ़ से उसके दो वरिष्ठ नेता गुलाम नबी आज़ाद और सीपी जोशी मंच पर मौजूद थे. आज़ाद ने धारदार भाषण भी दिया. रैली में लालू प्रसाद यादव, ममता बनर्जी और शरद यादव, तीनों नेता सन् 2015 के बिहार 'जनादेश के साथ धोखाधड़ी' करने के लिए नीतीश कुमार पर जमकर बरसे.
शरद ने ख़ुद को जनता दल-विरासत का असल दावेदार बताते हुए नीतीश को पूरी तरह ख़ारिज किया.
लालू की रैली में निशाने पर नीतीश और बीजेपी
ममता ने अपने संबोधन के ज़रिये रैली को राष्ट्रीय फलक देने की कोशिश करते हुए प्रधानमंत्री मोदी और उनकी पार्टी की नीतियों पर भी प्रहार किया. उन्होंने नोटबंदी-जीएसटी और सांप्रदायिक-फासीवाद सहित कई मुद्दे उठाते हुए कहा कि मोदी सरकार देश की साझा विरासत खत्म करने की खतरनाक मुहिम चला रही है.
लालू, शरद, सुधाकर रेड्डी और यहां तक कि राबड़ी देवी ने भी बीच-बीच में मोदी सरकार की 'जनविरोधी नीतियों' पर प्रहार किया. मगर रैली का मुख्य राजनीतिक निशाना बिहार का नीतीश-बीजेपी गठबंधन ही रहा.
बदनामी के बावजूद लालू की लोकप्रियता का रहस्य!
इस बड़ी रैली से राष्ट्रीय जनता दल को सांगठनिक-राजनीतिक तौर पर निश्चय ही बल मिलेगा, लेकिन उससे ज्यादा भ्रष्टाचार के नए-नए आरोपों में घिरे आरजेडी अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव और उनके परिजनों का यह भरोसा भी पुख़्ता होगा कि सत्ता से बाहर होने के बावजूद बिहार में उनके जनाधार में फिलहाल कोई कमी नहीं आई है.
इस रैली की कामयाबी राजनीतिक समाजशास्त्र के स्तर पर इस बात को सामने लाती है कि बिहार में भ्रष्टाचार कोई बड़ा मुद्दा नहीं है. कम से कम इस आधार पर किसी दल या नेता की लोकप्रियता का आकलन नहीं किया जा सकता.
बिहार की राजनीति में सामाजिक आधार ज्यादा महत्वपूर्ण पहलू है. किसी नेता या दल की लोकप्रियता उसके सामाजिक आधार पर निर्भर है न कि उसकी योग्य, शुचिता या मीडिया कवरेज से उभरी छवि पर. बिहार के संदर्भ में यह महत्वपूर्ण पहलू है.
देश के अनेक हिस्सों में नेताओं या महत्वपूर्ण शख्सियतों की मीडिया-जनित छवि का लोगों के निर्णय या ओपिनियन पर बहुत असर होता है. लेकिन बिहार की राजनीति में लालू प्रसाद यादव इसके अपवाद कहे जा सकते हैं.
सोशल: लालू यादव की रैली में उड़कर आ रहे हैं समर्थक?
अपने सामाजिक आधार में शुमार लोगों के लिए ठोस काम, खासतौर पर उनके बहुमुखी विकास, जैसे- भूमि सुधार, शिक्षा, स्वास्थ्य या रोज़गार के क्षेत्र में कोई ठोस उपलब्धियों के बग़ैर भी वह अपना वजूद कैसे बनाए हुए हैं? एक समय यूपी में मायावती के साथ भी ऐसा ही था, लेकिन इधर वह अपने सामाजिक आधार के बीच पहले वाला करिश्मा धीरे-धीरे खो रही हैं. राजनीतिक समाजशास्त्र के शोधार्थियों के लिए यह विचारोत्तजेक विषय हो सकता है.
बढ़ेगा शरद-नीतीश टकराव
रैली के बाद शरद यादव पर सांगठनिक कार्रवाई होना लगभग तय है. नीतीश के नेतृत्व वाला जनता दल (यू) अपने पूर्व राष्ट्रीय अध्यक्ष को आज-कल में ही पार्टी से निकाल सकता है या कम से कम निलंबित कर सकता है.
आज खुलेआम नीतीश-विरोधी मंच पर भाषण देकर शरद ने संभावित अनुशासनिक कार्रवाई को आमंत्रित किया है. लेकिन इसके बाद शरद और नीतीश खेमे के बीच टकराव और बढ़ेगा.
अभी तक जेडीयू विधायक दल में कोई फूट नहीं दिखी थी लेकिन नीतीश खेमे के लिए आगे का रास्ता आसान नहीं है. आज की रैली में आरजेडी-समर्थकों के अलावा जेडीयू के शरद-समर्थक कार्यकर्ता भी अच्छी संख्या में आए थे. कुछ कांग्रेस-समर्थक भी आए लेकिन उनकी संख्या ज्यादा नहीं थी.
कांग्रेस के ज्यादा बढ़चढ़कर भाग न लेने के पीछे एक कारण यह भी हो सकता है कि पार्टी के रणनीतिकार अब भी उत्तर भारत में सवर्ण समुदाय के अपने खोए जनाधार की वापसी का इंतजार करना चाहते हैं. उन्हें शायद भरोसा है कि एक न एक दिन यह आधार बीजेपी से खिसककर फिर उसकी तरफ आ सकेगा.
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