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बिहार के लोगों को कब तक इलाज के लिए जाना पड़ेगा बाहर?

बिहार के विभिन्न ज़िलों में मौजूदा स्वास्थ्य सुविधाओं का हाल पता करती एक ग्राउंड रिपोर्ट.

By सर्वप्रिया सांगवान
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बच्चे को कोद में लिए खड़ा एक शख्स
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बच्चे को कोद में लिए खड़ा एक शख्स

"पहले हमने पिताजी को इसी अस्पताल में भर्ती किया लेकिन डॉक्टर साहब ने कहा कि यहां कूल्हे की हड्डी का ऑपरेशन नहीं होगा, तो आप मेरे निजी क्लिनिक में इन्हें भर्ती करवा दीजिए. वहां इनका इलाज हुआ और 40-45 हज़ार रूपए लगे. फिर उन्होंने कहा कि अब वापस इन्हें वहीं सरकारी अस्पताल में भर्ती करवा दो."

सहरसा के सदर अस्पताल के जनरल वार्ड में किसी मुर्दाघर जैसा सन्नाटा था. वार्ड इतनी गंदगी और पेशाब की बदबू से भरा था कि मरीज़ों को सुपरइंफेक्शन (अस्पताल में बुरी परिस्थितियों की वजह से होने वाला संक्रमण) होने की पूरी-पूरी गुंजाइश थी.

मरीज़ और उनके परिवार वाले इसी गंदगी में वक़्त काट रहे थे. हम अस्पताल का जायज़ा ले ही रहे थे कि एक लड़के ने आकर बताया कि अस्पताल के डॉक्टर रंजीत मिश्रा ने अपने निजी क्लिनिक पर पिता का इलाज कर तो दिया लेकिन ऑपरेशन के बाद सूजन आ गई है. निजी क्लिनिक में पैसा ज़्यादा लग रहा था तो डॉक्टर ने वापस सरकारी अस्पताल में जाने की सलाह दी और कहा कि वे वहीं उन्हें देखते रहेंगे.

एक और बुज़ुर्ग मरीज़ ने अपने पैर के अंगूठे पर बंधी मोटी पट्टी दिखाते हुए कहा कि वह पांच दिन से यहां हैं और डॉक्टर ने उन्हें बताया है कि अंगूठा काटना पड़ेगा लेकिन एक्स-रे होने के बाद भी अब तक ऑपरेशन नहीं हो सका है.

साल 1954 में सहरसा को ज़िला घोषित किया गया और तबसे ही ये सदर/ज़िला अस्पताल मौजूद है. लेकिन इतने पुराने अस्पताल में आज तक आईसीयू सेवा शुरू नहीं हो सकी है.

अस्पताल के मुख्य दरवाज़े के पास कई लोग हमें घेर कर अपनी समस्याएं सुनाने लगते हैं जिनमें अस्पताल के स्टाफ के लोग भी थे.

अस्पताल की ज़मीन पक्की नहीं थी. किसी ने कहा कि यहां बरसात के मौसम में इतना पानी भर जाता है कि शायद ही कोई मरीज़ उन दिनों यहां आने का सोचे.

लोग बताते हैं कि अगर प्राइवेट में किसी को आईसीयू में भर्ती करवाना हो तो 3 हज़ार रूपए दिन का लगता है.

अस्पताल के ही स्टाफ ने नाम ना छापने की शर्त पर बताया कि यहां डॉक्टर काम ही नहीं करना चाहते हैं और ना पर्याप्त डॉक्टर हैं.

ये हालात सिर्फ़ यहीं के नहीं हैं, ऐसी बुनियादी सुविधाएँ बिहार के बहुत से हिस्सों में नहीं दिखीं.

लोग बताते हैं कि निजी क्लिनिक पर ले जाने के लिए दलाल भी यहां घूमते मिल जाएंगे.

बिहार में सरकारी डॉक्टरों को प्राइवेट प्रैक्टिस करने की अनुमति है
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बिहार में सरकारी डॉक्टरों को प्राइवेट प्रैक्टिस करने की अनुमति है

आईसीयू की कमी

सिविल सर्जन डॉक्टर अवधेश कुमार से जब हम मिलने पहुंचे तो वे अपने किसी स्टाफ पर नाराज़ हो रहे थे कि स्नेक बाइट यानी साँप के काटने की दवा अस्पताल में होते हुए भी मरीज़ को क्यों नहीं बचाया जा सका.

डॉक्टर अवधेश ने बताया कि सदर अस्पताल में आईसीयू का काम लगभग पूरा हो चुका है. इसके अलावा सीटी स्कैन और डायलिसिस की सुविधा भी शुरू करवाने की कोशिश है. उन्होंने बताया कि सीटी स्कैन सुविधा भी पब्लिक-प्राइवेट पार्टनरशिप से चलाई जाएगी और कोई एनजीओ ही सीटी स्कैन की सुविधा देगा.

इतने पुराने अस्पताल में अगर कोई गंभीर मरीज़ आ जाए तो फिर उसे कहां रेफर किया जाता है?

सिविल सर्जन ने बताया कि पहले भागलपुर रेफर करते थे (सहरसा से चार घंटे दूर) और अब पिछले साल से मधेपुरा मेडिकल कॉलेज शुरू हुआ है तो वहीं रेफर करते हैं.

जब उनसे पूछा कि अगर किसी व्यक्ति के कूल्हे की हड्डी टूट जाए तो क्या सहरसा सदर अस्पताल में इलाज हो सकता है, तो उनका जवाब था- नहीं.

अगस्त 2017 में बिहार के स्वास्थ्य मंत्री ने विधानसभा में जवाब दिया था कि 38 ज़िलों में से 18 ज़िला अस्पतालों में आईसीयू नहीं है और उन्हें बनाने की कोशिश की जा रही है.

मेडिकल काउंसिल ऑफ़ इंडिया के दिशानिर्देशों के मुताबिक़ सभी मेडिकल कॉलेज व अस्पतालों में 10 फीसदी बेड आईसीयू के लिए रखने अनिवार्य हैं.

तत्कालीन जदयू के विधायक गिरधारी यादव ने विधानसभा में मंगल पांडे से कहा था कि 10 फीसदी तो क्या, आईसीयू बेड 2 फीसदी भी नहीं हैं और गरीबों को प्राइवेट अस्पतालों में जाना पड़ रहा है जहां उनका शोषण हो रहा है. गिरधारी यादव 2019 में लोकसभा सांसद बने.

अररिया के निजी अस्पताल में दोपहर के बारह बजे काफ़ी मरीज़ थे.
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अररिया के निजी अस्पताल में दोपहर के बारह बजे काफ़ी मरीज़ थे.

लोगों का सरकारी सिस्टम पर भरोसा ही नहीं

"हमें शुक्रगुज़ार होना चाहिए कि नेपाल के बिराटनगर का हेल्थ सिस्टम इतना अच्छा है. अगर वो नहीं होता तो यहां की स्थिति बहुत भयावह होती."

अररिया ज़िले के एक प्राइवेट अस्पताल में डॉक्टर फ़ैज़ रहमान बता रहे थे कि यहां का हेल्थ सिस्टम नेपाल के बिराटनगर ने संभाला हुआ है. वरना यहां हालात ऐसे हैं कि अगर किसी मरीज़ को दिल में दर्द हुआ तो फिर उसका परिणाम सिर्फ़ मौत ही है. उनके अस्पताल में भी आईसीयू नहीं है और ना ही सरकारी अस्पतालों में.

पांच किलोमीटर दूर नेपाल में बिराटनगर अस्पताल सुविधाओं से लैस है और अररिया, सुपौल, फरबीसगंज के लोग इलाज के लिए वहीं चले जाते हैं.

यहां के लोग अपने इलाज के लिए सरकारी अस्पताल की बजाय प्राइवेट अस्पताल में जाना बेहतर समझते हैं.

ज़िले के बथनाहा इलाक़े में ट्रस्ट से चलने वाले इस प्राइवेट अस्पताल में दिन के 12 बजे काफ़ी मरीज़ थे.

अपनी बारी का इंतज़ार कर रहे एक मरीज़ राजेंद्र पेट दर्द की शिकायत लेकर अस्पताल आये थे. पेशे से मज़दूरी करने वाले राजेंद्र सरकारी अस्पताल में जाने की बजाय यहां प्राइवेट में 200 रुपए चेकअप फीस देने को तैयार थे. पूछने पर उन्होंने बताया, "सरकारी अस्पताल में बहुत दिनों में नंबर आता है. वहां सिर्फ़ दिखाना ही मुफ़्त है लेकिन टेस्ट करवाने से लेकर दवाइयों को खर्च तो खुद ही उठाना पड़ता है."

डॉक्टर फैज़ रहमान ने बताया, "बहुत से मरीज़ पहले गांव में ही झोलाछाप डॉक्टरों से इलाज करवाते हैं. बद से बदतर होने पर वे हमारे पास आते हैं. ये इलाक़ा टाइफ़ाइड ज़ोन है. टाइफ़ाइड भी जल्दी ठीक नहीं हो पाता क्योंकि यहां के लोगों में एंटीबायोटिक के दुरुपयोग की वजह से एंटीबायोटिक रेसिस्टेंस भी बहुत देखने को मिलता है. यानी एंटीबायोटिक का असर होना बंद हो जाता है. झोलाछाप जल्द इलाज के लिए बात-बात पर मरीज़ों को एंटीबायोटिक दे देते हैं."

"यहां स्वास्थ्य शिक्षा पर बहुत काम किए जाने की ज़रूरत है. लेकिन लोगों का विश्वास ही नहीं है सरकारी डॉक्टरों पर. पता नहीं क्यों?"

इसी अस्पताल से सिर्फ़ 100 मीटर की दूरी पर ही अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र था. इसकी इमारत काफ़ी बड़ी और अच्छी हालत में थी लेकिन अंदर जाकर देखा तो सब कमरे लगभग खाली थे.

दिन के एक बजे ना यहां कोई डॉक्टर था और ना मरीज़. एक कमरे में सिर्फ़ नर्स थी. उन्होंने बताया कि डॉक्टर नर्गिस जमाल की ड्यूटी अस्पताल में लगी है और उन्हें यहां दो दिन ही आना होता है. बाकी दिन वे उनसे फोन पर बातचीत करके ही मरीज़ों को दवाई दे देती हैं.

केंद्र की आयुष्मान भारत योजना के तहत अतिरिक्त पीएचसी में मरीज़ को एक छत के नीचे कई सर्विस दिए जाने का प्रस्ताव है. जैसे आंखों, ईएनटी, मानसिक स्वास्थ्य और इमरजेंसी या ट्रामा के केस में प्राथमिक सुविधा जिसमें जांच और ज़रूरी दवाईयां दिया जाना शामिल है.

लेकिन इस अतिरिक्त पीएचसी में सिर्फ़ खाली कमरे थे और एक डॉक्टर भी नहीं था.

अररिया में अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र
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अररिया में अतिरिक्त प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र

प्राइवेट अस्पतालों का रुख़ क्यों कर रहे मरीज़?

राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय यानी एनएसएसओ की 2017-18 की रिपोर्ट बताती है कि बिहार में 18.5% लोग ही सरकारी डॉक्टरों से इलाज करवाते हैं.

प्राइवेट डॉक्टरों के पास 64.5% मरीज़ जा रहे हैं.

वहीं, सरकारी अस्पताल में 37.8 फीसदी लोग भर्ती होते हैं और प्राइवेट अस्पतालों में 60 फीसदी.

लेकिन प्राइवेट अस्पतालों में चौगुना खर्च करने के लिए भी मरीज़ क्यों तैयार हैं?

इसका जवाब नेशनल हेल्थ अकाउंट्स की 2016-17 की रिपोर्ट में मिलता है.

रिपोर्ट बताती है कि बिहार में हर साल 'पर कैपिटा' यानी प्रति व्यक्ति स्वास्थ्य पर खर्च है- 2358 रुपए. इसमें बिहार सरकार का हिस्सा है 504 रुपए. इस तरह सरकार महज़ 21 फ़ीसदी ख़र्च मरीज़ पर कर रही है और बाकी पैसा मरीज़ की अपनी जेब से लग रहा है.

ये दिखाता है कि कोई मरीज़ अगर सरकारी अस्पताल में जाता है तो उसे चेकअप और जांच के लिए कई दिन लगाने पड़ते हैं और इलाज के ख़र्च का ज़्यादातर हिस्सा भी उसे ही देना पड़ता है. तो फिर मरीज़ क्यों ना प्राइवेट का ही रुख़ करे जहां सरकारी अस्पताल की गंदगी और शौचालय के अभाव का भी सामना ना करना पड़े.

सुपौल में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र
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सुपौल में सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र

झोलाछाप डॉक्टरों से चल रहा है सिस्टम?

सुपौल के मुमताज़ आलम एक झोलाछाप डॉक्टर हैं यानी वो चिकित्सक जिनके पास डिग्री नहीं है और उन्होंने किसी और डॉक्टर से काम सीख लिया.

मुमताज़ बताते हैं कि सुपौल के सिर्फ़ छातापुर प्रखंड में ही 450-500 झोलाछाप डॉक्टर काम कर रहे हैं.

दरअसल, कभी डॉक्टरों की कमी, कभी सुविधाओं की कमी की वजह से मरीज़ पीएचसी से सदर अस्पताल, सदर अस्पताल से सुपौल हायर सेंटर, हायर सेंटर से दरभंगा मेडिकल कॉलेज एंड हॉस्पिटल घूमते रहते हैं. इससे बचने के लिए वे गांव में ही आसानी से मिल जाने वाले झोलाछाप डॉक्टर के पास पहुंच जाते हैं.

मुमताज़ ने बताया कि यूं तो झोलाछाप डॉक्टरों को मरीज़ को सलाइन बोतल चढ़ाने की अनुमति नहीं है लेकिन इमरजेंसी में उन्हें चढ़ाना पड़ता है. वे एक इंजेक्शन लगाने के 10 रुपए और सलाइन की बोतल लगाने के 50 रुपए लेते हैं. कथेटर भी लगा देते हैं और फीडिंग ट्यूब भी. उन्होंने बताया कि उन्होंने एक सरकारी डॉक्टर से उनके प्राइवेट क्लीनिक पर ही 3 साल काम सीखा है.

सुपौल के प्रतापगंज का एक ग्रामीण स्वास्थ्य केन्द्र
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सुपौल के प्रतापगंज का एक ग्रामीण स्वास्थ्य केन्द्र

क्या इन लोगों पर सरकार कार्रवाई नहीं करती?

अररिया में दवाई कंपनियों के लिए मेडिकल रेप्रेजेंटेटिव का काम करने वाले कृष्ण मिश्रा कहते हैं कि सरकार को पता है कि अगर इन्हें हटा दिया तो स्वास्थ्य सिस्टम की पोल खुल जाएगी.

वहीं स्थानीय पत्रकार इरशाद आदिब बताते हैं कि छातापुर से सुपौल सदर अस्पताल 65 किलोमीटर की दूरी पर है. वहां आईसीयू तक नहीं है. ख़ासकर रात के वक़्त तो कोई मरीज़ को नहीं देखना चाहता और एएनएम (गांव स्तर पर काम करने वाली ऑक्सीलरी नर्स मिडवाइफ) मरीज़ को रेफर कर देती हैं. छातापुर के अनुमंडलीय अस्पताल को बने 15 साल हो गए हैं लेकिन अब तक वह पूरी तरह शुरू नहीं हो सका है.

सुपौल का बलुआ बाज़ार इलाक़ा कई मामलों में विकसित नज़र आता है. इसी बलुआ बाज़ार में पूर्व केंद्रीय मंत्री ललित नारायण मिश्र का घर है, उनके छोटे भाई और बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र का घर है. कई विधायकों का पता यही इलाक़ा है लेकिन स्वास्थ्य सुविधाओं के मामले में अब भी ये पिछड़ा ही है.

इसी इलाक़े में एक बड़ा सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र यानी सीएचसी है. इस सीएचसी को क्वारंटीन सेंटर बना दिया गया है.

हम वहां पहुंचे तो पूरे केंद्र में एक कक्ष वर्कर ही मौजूद था और एक भी मरीज़ नहीं था. कक्ष वर्कर ने बताया कि इस सीएचसी में डॉक्टरों की कमी है और दो बजे के बाद यहां कोई डॉक्टर नहीं बैठता है. पता चला कि फ़िलहाल इस सीएचसी में कोई लैब टेक्नीशियन भी नियुक्त नहीं थे. वहीं एक स्थानीय बुज़ुर्ग ने भी कहा कि यहां डॉक्टर शायद ही कभी मिलते हैं.

किशनगंज के एक बेहद पिछड़े टेढ़ागाछ इलाक़े में निर्माणाधीन सामुदायिक चिकित्सा केंद्र
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किशनगंज के एक बेहद पिछड़े टेढ़ागाछ इलाक़े में निर्माणाधीन सामुदायिक चिकित्सा केंद्र

डॉक्टर और स्टाफ की कमी से जूझता बिहार

"मैं खुद नौकरी छोड़ने की सोच रहा हूं. डेढ़ लाख से ज़्यादा लोगों के लिए सिर्फ़ तीन डॉक्टर हैं."

किशनगंज के एक बेहद पिछड़े टेढ़ागाछ इलाक़े के प्राथमिक सामुदायिक केंद्र के डॉक्टर प्रमोद बताते हैं कि डेढ़ लाख से ज़्यादा लोगों के लिए सरकार की ओर से उपलब्ध ये एकमात्र विकल्प है.

यहां सात डॉक्टरों की पोस्ट है लेकिन सिर्फ़ तीन लोगों की नियुक्ति हुई है. इसके अलावा सिर्फ़ चार नर्स हैं लेकिन फार्मासिस्ट और ड्रेसिंग के लिए भी पोस्ट निकली है लेकिन कोई नियुक्ति नहीं हुई है.

इस प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र के प्रसव कक्ष में शाम के 7 बजे काफ़ी महिलाएं दाखिल थीं. लेकिन हैरानी की बात ये थी कि 1967 में बने इस केंद्र में पिछले महीने ही पहली महिला डॉक्टर आई हैं.

ये महिला डॉक्टर भी अररिया रहती हैं और रोज़ 2-3 घंटे का सफर करके ही यहां काम करने आ सकती हैं.

इसी प्रांगण में एक निर्माणाधीन सामुदायिक चिकित्सा केंद्र भी दिखा जो पांच साल पहले बनना शुरू हुआ था लेकिन इमारत अभी 25 फीसदी भी नहीं बन सकी है.

किशनगंज के सदर अस्पताल में भी सबसे बड़ी कमी महिला डॉक्टरों की है. जो डॉक्टर हैं उनकी भी प्राइवेट प्रैक्टिस चलती है. प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र से मरीज़ों को सदर अस्पताल रेफर किया जाता है और अगर वहां भी इलाज ना मिले तो मरीज़ों के लिए विकल्प है एमजीएम मेडिकल कॉलेज जो एक प्राइवेट ट्रस्ट अस्पताल है. इस कॉलेज के निदेशक भाजपा नेता दिलीप कुमार जायसवाल हैं जो एमएलसी भी रह चुके हैं.

2016 में नियंत्रक एवं महालेखा परीक्षक यानी कैग की रिपोर्ट में बताया गया कि बिहार के स्वास्थ्य केंद्रों में प्रसूति विशेषज्ञ डॉक्टरों की भारी कमी है जिसकी वजह से आधी महिलाओं को घर में ही डिलिवरी करवानी पड़ती है.

रिपोर्ट में बताया गया कि 2010-15 के बीच प्रसूति विशेषज्ञ डॉक्टरों की कमी के चलते 57,420 बच्चे मरे हुए पैदा हुए.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के मुताबिक़ 1000 लोगों पर एक डॉक्टर होना चाहिए. केंद्र सरकार की रिपोर्ट नेशनल हेल्थ प्रोफाइल 2019 के मुताबिक़ बिहार के सरकारी अस्पतालों में 2,792 एलोपेथिक डॉक्टर हैं. यानी बिहार में 43,788 लोगों पर एक एलोपेथिक डॉक्टर है.

सिर्फ डॉक्टर ही नहीं, नीति आयोग की 2019 की रिपोर्ट के मुताबिक 51 फ़ीसदी हेल्थकेयर वर्कर्स के पद ख़ाली पड़े हैं.

नीति आयोग के 2019 हेल्थ इंडेक्स में बिहार को 21 राज्यों में 20वां स्थान मिला.

बिहार में सरकारी डॉक्टरों की प्राइवेट प्रैक्टिस

बिहार में सरकारी डॉक्टरों को अपनी ड्यूटी के बाद प्राइवेट क्लीनिक चलाने की अनुमति है और इन सभी ज़िलों में लोग इस बात की शिकायत करते मिले कि सरकारी डॉक्टर अपने निजी क्लिनिक पर ही ज़्यादा ध्यान देते हैं.

हालांकि, केंद्र और कई राज्य सरकारी डॉक्टरों को प्राइवेट प्रैक्टिस की अनुमति नहीं देते और इसके बदले डॉक्टरों को एनपीए (नॉन प्रैक्टिस अलाउंस) दिया जाता है.

बिहार में ये एक बहस का विषय रहा है कि डॉक्टरों को निजी क्लीनिक चलाने दिए जाएं या नहीं.

इसके बंद किए जाने के पक्ष में लोगों का कहना है कि इससे डॉक्टर अपना समय सरकारी अस्पतालों में दे पाएंगे.

वहीं, इसके ख़िलाफ़ तर्क ये आता है कि अगर डॉक्टरों से ये विकल्प छीन लिया गया तो कहीं सरकारी डॉक्टर नौकरी छोड़ कर प्राइवेट प्रैक्टिस में ही ना चले जाएं.

बिहार में प्रैक्टिस कर रहे डॉक्टर शकील कहते हैं कि बिहार सरकार कांट्रैक्ट पर डॉक्टर भर्ती कर रही है जिन्हें स्थायी डॉक्टरों की तरह सुविधाएं और जॉब सिक्योरिटी नहीं है.

डॉक्टर शकील कहते हैं, "86 फीसदी डॉक्टर तो शहरों में हैं और बाकी देहात में हैं. ग्रामीण इलाक़ों में रहने के लिए उन्हें मकान नहीं दिया जाता. उन्हें प्राइवेट प्रैक्टिस से हटाया तो वे भी भागने लगेंगे. लेकिन ये विकल्प मेडिकल कॉलेजों के डॉक्टरों के लिए बंद हो जाना चाहिए."

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के अध्यक्ष रह चुके न्यूरोलॉजिस्ट डॉक्टर अजय कुमार कहते हैं कि ग्रामीण इलाकों में क्यों, पटना मेडिकल कॉलेज में ही दिख जाएगा कि डॉक्टर कितने घंटे ड्यूटी करते हैं.

डॉक्टर अजय कुमार, "कई बार चेकिंग भी हुई. एक बार बड़े डॉक्टर पकड़े गए. उपकुलपति ने लिख कर दिया कि हमारे इलाज के लिए आए थे, इसलिए अनुपस्थित रहे. तो पकड़े जाने पर ऐसा ही होता है कि कोई मंत्री या अधिकारी लिखकर दे देता है."

प्रतीकात्मक तस्वीर
Getty Images
प्रतीकात्मक तस्वीर

क्या डॉक्टरों का रवैया सही नहीं?

डॉक्टर तरू जिंदल साल 2014 में एक गाइनेकॉलोजिस्ट के तौर पर एक प्रोजेक्ट के लिए मुंबई से बिहार के मोतिहारी में काम करने गईं. इस प्रोजेक्ट की मंशा थी कि दूसरे राज्यों के डॉक्टर बिहार के डॉक्टरों को ट्रेनिंग दें.

डॉक्टर तरू ने बताया, "मैंने देखा कि ज़िला अस्पताल में सुबह 11 बजे एक सफ़ाई कर्मचारी बिना ग्लव्स पहने डिलीवरी कर रही है. उसने टांके लगाने के लिए सुई-धागे का इस्तेमाल किया. पेटीकोट फाड़कर उससे बच्चे को पोंछा. ये देखकर मुझे लगा कि मैं कौन-सी दुनिया में आ गई हूं"

वे बताती हैं कि कचरा अस्पताल के बाहर यूंही फेंक दिया जाता था. ऑप्रेशन थियेटर में लोग जूते पहन कर आ जाते थे.

डॉक्टर तरू कहती हैं, "हमने वहां के स्टाफ के साथ मिलकर काम करना शुरू किया तो एक साल में कायाकल्प हो गया और सरकार ने इस अस्पताल को अवॉर्ड भी दिया. जो बदलाव आया, वो उसी स्टाफ ने किया. उन्हीं लोगों ने अपने ऑपरेशन थियेटरों में झाड़ू भी लगाया, ज़ंग लगे टेबल को खुद पेंट भी किया. गाइनेकॉलोजिस्ट की कमी नहीं थी, स्टाफ की कमी नहीं थी लेकिन पहले उनका रवैया ही सही नहीं था काम को लेकर."

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पास के अस्पतालों के छोड़कर दिल्ली क्यों पहुंच जाते हैं मरीज़

स्वास्थ्य राज्यमंत्री अश्विनी कुमार चौबे ने 2017 में एक बयान दिया था कि बिहार के लोग छोटी-छोटी बीमारियों के लिए दिल्ली पहुंच जाते हैं. वे बिहार के स्वास्थ्य मंत्री भी रह चुके हैं.

इसके बाद बीबीसी की रिपोर्ट से सामने आया कि दरअसल, जो स्वास्थ्य सुविधा मरीज़ों को प्राइमरी और सेकेंडरी लेवल पर अपने ज़िलों में मिल जानी चाहिए थी, वो उन्हें नहीं मिल रही और इसलिए उन्हें पैसा खर्च कर दिल्ली आना पड़ता है.

पटना एम्स के डॉक्टर नीरज कहते हैं कि उनके यहां भी कम गंभीर बीमारियों के मरीज़ बिहार के अलग-अलग इलाकों से आ रहे हैं. इसका कारण है कि उन्हें प्राइमरी हेल्थ केयर और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्र पर उन बीमारियों के इलाज की सुविधा नहीं मिल रही.

डॉक्टर नीरज कहते हैं, "सरकार ने दो-तीन अच्छे फ़ैसले लिए हैं जैसे पोस्ट ग्रेजुएशन करने वाले डॉक्टरों के लिए अब 3 साल अपने ज़िले में या सरकार जहां भी भेजे वहां जाकर काम करना अनिवार्य हो गया है. उन्हें पीएचसी या सीएचसी भेजा जाएगा और तीन साल तक पीएचसी को एक विशेषज्ञ डॉक्टर मिल जाएगा. हालांकि, इसका असर भविष्य में दिखाई देगा."

लेकिन प्राइमरी हेल्थ सेंटर भी 2019 के नेशनल हेल्थ प्रोफाइल के मुताबिक़ 1899 हैं और बिहार की अनुमानित 12 करोड़ की आबादी के लिए केंद्र के दिशानिर्देशों के मद्देनज़र 3500 से ज़्यादा होने चाहिए.

वहीं, सेकेंडरी लेवल की सुविधा है सीएचसी जो बिहार में कम से कम 1200 होने चाहिए लेकिन अब तक हैं 150 और इनमें कुल 82 विशेषज्ञ डॉक्टर हैं. सीएचसी ब्लॉक लेवल पर होती है जहां विशेषज्ञ डॉक्टर, ओटी, एक्स-रे, लेबर रूम, लैब की सुविधाएं होती हैं. कुछ बिल्डिंग अगर बन भी गई है तो डॉक्टर, स्टाफ और टेकनिशियन की कमी है.

इसके बाद ज़िला अस्पताल आते हैं जहां कई अस्पतालों में तो अब तक आईसीयू सेवा शुरू नहीं हो पाई है. आईसीयू सेवा शुरू करने के लिए उतने ही स्टाफ की भी भर्ती करनी होगी. सरकारी अस्पताल कुल 1147 हैं जिनके पास 11664 बेड की क्षमता है.

इसके बाद मरीज़ के पास मेडिकल कॉलेज जाने का विकल्प है जो बिहार में बहुत कम हैं. सरकारी मेडिकल कॉलेज 10 हैं और इनमें से चार तो पटना में ही हैं. जबकि 50 लाख की आबादी पर एक मेडिकल कॉलेज होना चाहिए.

पिछले साल मधेपुरा में जननायक कर्पूरी ठाकुर मेडिकल कॉलेज खोला गया लेकिन वहां अब तक पढ़ाई के लिए बैच शुरू नहीं हो पाए हैं.

समस्या ये भी है कि डॉक्टरों की कमी पूरी करने के लिए डॉक्टर बनाने भी पड़ेंगे.

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कोविड के बाद बिहार का हेल्थ सिस्टम

कोविड ने लगभग हर राज्य की स्वास्थ्य व्यवस्था की पोल खोली है. अचानक आई इस महामारी से निपटने में राज्यों की तैयारियों की कलई खुलने लगी.

बिहार को देखें तो ख़बर लिखे जाने तक बिहार में कोरोना के 2 लाख 11 हज़ार केस आ चुके हैं.

ज़िला अस्पतालों में टेस्ट की सुविधा दी गई है और सरकार टेस्ट की संख्या बढ़ाने को लेकर अपनी पीठ भी थपथपा रही है.

मोतिहारी में एक व्यक्ति ने अपने फ़ोन में प्रशासन की ओर से आया मैसेज दिखाया जिसमें लिखा था कि उनका कोरोना टेस्ट नेगेटिव आया है लेकिन फिर भी वे सतर्कता बरतें.

देखने में ये प्रशासन की अच्छी बात लगी लेकिन उन व्यक्ति ने बताया कि उन्होंने कोरोना टेस्ट कभी करवाया ही नहीं. उन्होंने बताया कि ये सिर्फ़ कोटा पूरा करने की एक मुहिम है.

सहरसा में भी लोगों ने बताया कि ज़िला अस्पताल में कई बार टेस्ट करवाना पड़ता है और तब जाकर रिपोर्ट मिलती है.

ये इसलिए भी है कि जब राज्य फ़िलहाल स्वास्थ्य की मूल सुविधाओं के अभाव से ही गुज़र रहा है तो कोविड-19 के अतिरिक्त बोझ से निपटने की उम्मीद करना बेमानी है.

एम्स पटना के कोविड 19 के लिए क्लिनिकल कॉर्डिनेटर डॉक्टर नीरज कहते हैं कि बिहार के मेडिकल कॉलेजों में मूल इंफ्रास्ट्रक्चर का ही अभाव है.

उन्होंने कहा, "कोविड-19 के बाद लोग वेंटिलेटर, ऑक्सीजन सिलेंडर की कमी पर फोकस कर रहे हैं लेकिन उससे पहले मूल सुविधाओं की हालत देखिए. मेडिकल कॉलेजों में बेड की कमी है, सेनिटाइज़ेशन की समस्याएं हैं, आइवी ड्रग्स और लाइफ सेविंग ड्रग्स का अभाव है और यहां तक कि बेडशीट और बेड के साथ रखा जाने वाले टेबल तक पर्याप्त मात्रा में नहीं हैं."

"वर्कफोर्स की भारी कमी है और वर्कफोर्स का मतलब सिर्फ डॉक्टर नहीं है. नर्स, अस्पताल के अटेंडेंट, हेल्थकेयर वर्कर भी इसमें शामिल हैं. किसी मरीज़ का अस्पताल में इलाज होता है तो एक व्यक्ति चाहिए जो कचरे को सही ढंग से ठिकाने लगा सके. एक नर्स, एक हेल्थकेयर वर्कर चाहिए, डॉक्टर की टीम जो मरीज़ को मॉनिटर करे. तो एक मेडिकल कॉलेज और एम्स जैसे इंस्टीट्यूट में यही फर्क है."

डॉक्टर नीरज कहते हैं, "हमारे पास 1000 बेड हैं लेकिन हम 500 का ही इलाज कर रहे हैं क्योंकि हमारे पास वर्कपोर्स 500 के लिए है और 75 बेड आईसीयू बेड हैं. सबसे पहले तो अपनी सीमाएं समझना ज़रूरी है. हमने जिस तरह से कोविड-19 में डॉक्टरों का रोस्टर चलाया, हेल्थकेयर वर्कर्स की ड्यूटी फिक्स की, वो बिहार के मेडिकल कॉलेजों में कैसे संभव हो पाएगा."

बिहार के लोगों को कब तक इलाज के लिए जाना पड़ेगा बाहर?

सरकार नहीं ख़र्च कर रही है पैसा

2019-20 में बिहार सरकार को 3300 करोड़ रुपए नेशनल हेल्थ मिशन के तहत केंद्र से मिले. लेकिन बिहार सरकार इसकी आधी रकम ही ख़र्च कर पाई.

कैग ने अपनी 2016 की ऑडिट रिपोर्ट में बताया था कि राष्ट्रीय ग्रामीण स्वास्थ्य मिशन के तहत मिलने वाले फंड को बिहार ने पूरा ख़र्च ही नहीं किया है.

डॉक्टर शकील कहते हैं, "बिहार में दवाइयों का प्रति व्यक्ति खर्च हर साल 14 रुपए है. इस खर्च को तिगुने से ज़्यादा बढ़ाने की ज़रूरत है. सरकार को इसके लिए बस 500-600 करोड़ और बजट में देने की ज़रूरत है लेकिन सरकार देती नहीं है."

"इसको अगर बढ़ा दे जैसे केरल ने किया, तमिलनाडु ने किया, राजस्थान ने भी किया तो मरीज़ों को दवाइयां बाज़ार से नहीं खरीदनी पड़ेंगी. फिर देखिए कि कैसे सरकारी अस्पताल में लोग जाने लगेंगे."

बिहार चुनाव में राष्ट्रीय जनता दल और जनता दल यूनाइटेड रोज़गार देने की बात कर रहे हैं, डॉक्टरों की नियुक्ति की बात कर रहे हैं. लेकिन सालों से बिहार सरकार कुल बजट से स्वास्थ्य के लिए 2.5% से 3.5% ही दे रही है.

तो ऐसे में डॉक्टरों और स्टाफ की नई नियुक्तियों के बाद उन्हें देने के लिए तनख्वाह कहां से आएगी.

डॉक्टर शकील कहते हैं कि स्वास्थ्य सेक्टर के लिए बिहार सरकार को कम से कम 10 फीसदी बजट देना ही पड़ेगा.

डॉक्टर अजय कुमार 1983 से बिहार में काम कर रहे हैं.

वे कहते हैं, "सरकारें टेंडर पर बिल्डिंग बनाकर खुश होती हैं क्योंकि कमीशन मिलता है. हर ज़िले में डायलिसिस सेंटर खोल दिया है लेकिन मेडिकल कॉलेज में नेफ़रोलॉजिस्ट नहीं है, लैब टेक्नीशियन नहीं हैं. आईसीयू बनाने की बात तो कर रहे हैं लेकिन आईसीयू चलाने के लिए पैरामेडिकल स्टाफ़ चाहिए. बिहार में अच्छे पैरामेडिकल इंस्टीट्यूट भी नहीं हैं. नर्स और हेल्थकेयर वर्कर कहां से आएंगे."

पिछले महीने ही बिहार के स्वास्थ्य मंत्री मंगल पांडे ने कहा था कि पिछले 15 साल में बिहार का हेल्थ इंफ्रास्ट्रक्चर काफी बेहतर हुआ है. मातृ मृत्यु दर और शिशु मृत्यु दर काफी कम हुआ है. विभाग का बजट भी 10 हज़ार करोड़ कर दिया गया है.

उन्होंने कहा कि पिछले तीन सालों में राज्य में 21 हज़ार डॉक्टर और पैरामेडिकल स्टाफ की बहाली हुई है.

लेकिन ग्राउंड रिपोर्ट कुछ और कहती है. ऐसी ग्राउंड रिपोर्ट और आंकड़ें अख़बारों के ज़िला संस्करणों में छप कर गुम हो जाते हैं.

लेकिन ये कहना मुनासिब है कि बिहार के स्वास्थ्य सेक्टर को एक रोडमैप की सख्त आवश्यकता है.

BBC Hindi
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English summary
How long will people of Bihar have to go out for treatment?
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