तब लालू ने मांझी को समर्थन दिया होता तो बहुत पहले खत्म हो जाती नीतीश की राजनीति?
बिहार में एक ऐसे भी मुख्यमंत्री हुए जो अपने बयानों के कारण इतने विवादित हो गये कि उन्हें अपमानजनक परिस्थितियों में पद छोड़ना पड़ा। उन्होंने अपने एक भाषण में कहा था, ऊंची जाति के लोग विदेशी हैं। आदिवासी और सिड्यूल्ड कास्ट ही भारत के मूल निवासी हैं। यहां के संसाधनों पर पहले उनका हक है। जिनको हमारे बयान से दिक्कत है, वे इतिहासकारों से इसके बारे में पूछ लें। मुख्यमंत्री के इस बयान पर बवाल हो गया। तब उनकी ही एक पार्टी के विधायक ने कहा था, मुख्यमंत्री पागल हैं, पार्टी ने उन्हें सीएम बना के गलती की। ऐसे मुख्यमंत्री को जल्द हटाया जाए। मई 2014 से फरवरी 2015 के बीच बिहार की राजनीति में ऐसा बहुत कुछ हुआ जो पहले कभी नहीं हुआ था। इस दौर में मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बैठे थे जीतन राम मांझी। वे बिहार के तीसरे दलित मुखंयमंत्री थे। नीतीश कुमार ने उन्हें 2015 के विधानसभा चुनाव तक के लिए गद्दी सौंपी थी। नीतीश ने एक दलित नेता को सीएम बना कर दूर की कौड़ी खेली थी। लेकिन ऐसा क्या हुआ कि नीतीश ने जीतन राम मांझी को अपमानजनक परिस्थितियों में सीएम पद से हटा दिया ? जीतन राम मांझी और नीतीश कुमार आज अपने राजनीतिक फायदे के लिए भले एक दूसरे को गले लगा रहे हैं लेकिन पांच साल पहले दोनों ने एक दूसरे को बर्बाद करने के लिए क्या-क्या नहीं किया।
नीतीश कुमार बनाम जीतन राम मांझी
नीतीश कुमार ने 2014 के लोकसभा चुनाव में करारी हार से दुखी हो कर सीएम की कुर्सी छोड़ दी थी। दलितों के बीच अच्छा संदेश देने के लिए उन्होंने जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री बनाया था। तब नीतीश ने कहा था कि वे विधानसभा चुनाव 2015 तक संगठन को मजबूत बनाएंगे और मांझी सरकार चलाएंगे। जीतन राम मांझी 20 मई 2014 को मुख्यमंत्री पद पर आसीन हुए। पार्टी की बैठक में यह तय हुआ था कि जीतन राम मांझी सीएम तो रहेंगे लेकिन 2015 का विधानसभा चुनाव नीतीश कुमार के नेतृत्व में लड़ा जाएगा। तब तक वे संगठन का काम पूरा कर लेंगे। लेकिन नीतीश कुमार ने जैसा सोचा था वैसा कुछ भी नहीं हुआ। मांझी जल्द ही यह एहसास दिलाने लगे कि वे कठपुतली मुख्यमंत्री नहीं हैं। खुद को एक मजबूत सीएम दिखाने के लिए वे बढ़-चढ़ कर बोलने लगे। वे जदयू में अपने समर्थकों की एक अलग जमात खड़ा करने लगे। कैबिनेट में मांझी समर्थक और नीतीश समर्थक, दो गुट बन गये। दोनों गुटों में रस्साकशी चलने लगी। अफसर दुविधा में फंस गये कि कैसे काम करें।
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मांझी के विवादास्पद बयान
नवम्बर 2014 में मुख्यमंत्री जीतन राम मांझी का पश्चिम चम्पारण के बगहा में एक कार्यक्रम था। बगहा में थारू जनजाति की अच्छी खासी आबादी है। मांझी ने कहा, अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति ही यहां की मूल निवासी है। ऊंची जाति के लोग विदेशी हैं। आर्यनों ने बाहर से आकर हम आक्रमण किया। आदिवासी सिड्यूल्ड कास्ट ही यहां के मूल निवासी है। इसलिए हमारा ही यहां अधिकार है। मांझी के इस बयान हंगामा खड़ा हो गया। इस पर जदयू के ही विधायक अनंत सिंह ने मुख्यमंत्री को पागल कह दिया। अनंत सिंह ने कहा कि जीतन राम मांझी मुख्यमंत्री बनने लायक नहीं हैं। ये पागल हैं। उन्हें कांके (मानसिक आरोग्यशाला) भेज देना चाहिए। नीतीश कुमार जल्द हटाएं ऐसे पागल मुख्यमंत्री को। अनंत सिंह के अमर्यादित बयान से राजनीति और नीतीश सब कुछ देख सुन कर खामोश रहे। तब यह आरोप लगा था कि नीतीश के ही इशारे पर अनंत सिंह ने ये बातें कहीं थीं। मांझी ने एक के बाद एक विवादास्पद बयानों की झड़ी लगा दी। एक सभा में उन्होंने वैसे कामगारों की पत्नियों पर ओछी टिप्पणी कर जो दूसरे राज्यों में काम के लिए जाते हैं। उन्होंने कहा था, जब आप बाहर कमाने जाते हैं और एक साल के बाद घर आते हैं तो गांव में आपकी अकेली पत्नी क्या करती है, समझने वाली बात है। फिर एक दिन मांझी ने कहा कि नीतीश कुमार के राज में अच्छा काम हुआ लेकिन भ्रष्टाचार कम नहीं हुआ। सीएम रहते मांझी ने एक सभा में कह दिया, बिजली बिल कम कराने के लिए मैंने भी रिश्वत दी थी। मांझी ने एक बयान यह भी दिया कि वे भी पहले चूहा खाते थे।
सिर से ऊपर हुआ पानी
जनवरी 2015 के आते-आते जीतन राम मांझी के प्रति जदयू में में भारी विरोध पनप गया था। उनके विवादास्पद बयानों से पार्टी की किरकिरी हो रही थी। मांझी केयर टेकर मुख्यमंत्री के रूप में काम करने की बजाय स्वतंत्र हैसियत बनाने लगे। एक दिन उन्होंने बयान दिया, मुझे मुख्यमंत्री बनाते समय पार्टी ने प्रस्ताव दिया था कि जब अगली (2015) बार जदयू को बहुमत मिलेगा तो नीतीश कुमार को सीएम बनाया जाएगा। लेकिन मेरी भावना है कि अगली बार दलित समुदाय के किसी व्यक्ति को ही सीएम बनाया जाना चाहिए। ऐसा कह कर मांझी ने सीधे सीधे नीतीश को चुनौती दे डाली थी। इस बीच जीतन राम मांझी ने बिहार के दलित आइएएस और आइपीएस अफसरों की एक बैठक बुला कर तहलका मचा दिया। आज तक किसी मुख्यमंत्री ने जाति आधारित कोई प्रशासनिक बैठक नहीं की थी। तब यह चर्चा उड़ी थी कि अगर किसी ने जीतन राम मांझी को मुख्यमंत्री पद से जबरन हटाने की कोशिश की तो अनुसूचित जाति के अधिकारी विद्रोह कर देंगे। बिहार की राजनीति एक खतरनाक रास्ते की ओर बढ़ रही
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2015 से कितना अलग है 2020 !
2014 के आखिरी दिनों में जब नीतीश और मांझी का विवाद चरम पर था तो लालू ने मांझी के समर्थन का एलान कर दिया था। थी। मांझी खुलेआम कहने लगे थे कि अगर कोई उन्हें पद से हटाना चाहता है तो विधायक दल की बैठक बुला कर फैसला कर ले। भाजपा ने भी मांझी को समर्थन देने वादा कर दिया था। अब नीतीश कुमार को अपनी चाल उल्टी पड़ती दिख रही थी। ऐसे में एक दिन नीतीश ने शरद यादव को लालू के पास भेजा। शरद यादव ने लालू के समझाया कि अगर 2015 का विधानसभा चुनाव साथ लड़ना है और बेहतर नतीजे हासिल करने हैं तो नीतीश का फिर मुख्यमंत्री बनना बहुत जरूरी है। अक्टूबर-नवम्बर तक अगर मांझी पद पर रहे तो हम दोनों की नैया बीच मझधार में डूब जाएगी। लालू को भी तर्क में दम नजर आया। उन्होंने मांझी से मुंह फेर लिया। उस समय लालू और नीतीश दोनों को एक दूसरे के सहारे की जरूरत थी। 2014 के नतीजे से दोनों डरे हुए थे। लालू के हाथ खींचने से मांझी कमजोर हो गये। मांझी को 20 फरवरी 2015 तक बहुमत साबित करने का वक्त मिला था। जदयू में उनके पास इतने विधायक नहीं थे कि वे पार्टी तोड़ कर सरकार बचा सकें। भाजपा ने उन्हें समर्थन देने का एलान किया था। बहुमत के लिए उस समय 117 विधायकों की जरूरत थी। मांझी का आंकड़ा 103 पर जाकर ठहर गया था। आखिरी समय में मांझी के साथ जदयू के केवल 12 विधायक ही रह गये थे। भाजपा के उस वक्त 87 विधायक थे। दो निर्दलीय मांझी के साथ और दो निर्दलीय भाजपा के साथ थे। यानी मांझी ने 103 का आंकड़ा जुटा लिया था और बहुमत से केवल 14 अंक दूर रह गये थे। मांझी ने शक्ति परीक्षण से पहले ही इस्तीफा देना बेहतर समझा। अगर उस समय 22 विधायकों वाले लालू ने मांझी का समर्थन कर दिया होता तो उसी दिन नीतीश की राजनीति का अंत हो जाता। लेकिन लालू ने नीतीश को बचा लिया था। पल- पल रंग बदलने का नाम ही शायद राजनीति है। अब देखिए, 2020 में वक्त कितना बदल गया है। नीतीश से लड़ने वाले मांझी आज उनके साथ हैं तो उनको बचाने वाले लालू उन्हें उखाड़ फेंकने की कसम खाये बैठे हैं।