बिहार के किसान बिचौलियों से सबसे अधिक तबाह, फिर भी नीतीश ने क्यों किया कृषि विधेयक का समर्थन?
बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार केन्द्र सरकार के कृषि विधेयक का क्यों समर्थन कर रहे हैं ? वे क्यों इन विधेयकों को किसानों के हित में बता रहे हैं ? इस मुद्दे पर पूरा विपक्ष उबल रहा है और नीतीश कुमार इसकी तारीफ कर रहे हैं। नीतीश कुमार का कहना है कि किसानों को कहीं भी अपने उत्पाद को बेचने की आजादी होनी चाहिए। बाजार समितियां (पंजीकृत मंडियां) किसानों के लिए परेशानी का कारण बन गयीं। इनमें गड़बड़ियों को देख कर ही हम लोगों ने 2006 में कृषि उत्पाद बाजार समिति (APMC) को भंग कर दिया। इसका फायदा ये हुआ कि किसान अपना उत्पाद अपनी आजादी से कहीं भी बेचने लगे। लेकिन नीतीश कुमार ये नहीं बता रहे कि इस फैसले से किसानों को कितना बड़ा नुकसान हुआ। आज बिहार में 90 फीसदी किसानों को अपनी उपज का न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं मिलता। छोटे और मंझोले किसान चार सौ-पांच सौ रुपये प्रति क्विंटल का घाटा सह कर धान या गेहूं स्थानीय बिचौलियों को बेच देते हैं। सरकारी खरीद प्रक्रिया में इतनी धांधली है कि शायद ही किसान को समर्थन मूल्य का फायदा मिल पाता है। केन्द्र सरकार के कृषि विधेयक में किसानों को मंडियों से बाहर उत्पाद बेचने की छूट है लेकिन ये सुनिश्चित नहीं किया गया है कि उसकी उपज न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर ही खरीदी जाएगी। यानी नये कानून के बाद भी किसानों के शोषण की आशंका खत्म नहीं होगी। जब कि कृषि उत्पाद बाजार समिति के माध्यम से कृषि उत्पाद बेचने का एक फायदा ये है कि किसान को न्यूनतम समर्थन मिल जाता है।
नीतीश कुमार का तर्क
नीतीश कुमार ने केन्द्र सरकार के दो कृषि विधेयकों का समर्थन किया है। उन्होंने कहा कि कृषक उत्पाद व्यापार एवं वाणिज्य (संवर्धन एवं सरलीकरण) विधेयक 2020 के जरिये किसानों को अपना उत्पाद कहीं भी बेचने की आजादी होगी। क्या पंजीकृत मंडियों में किसानों के हित सुरक्षित रहते हैं ? नीतीश कुमार ने अपने अनुभव के आधार पर कहा कि गड़बड़ियों को देखकर ही उन्होंने 2006 में कृषि उत्पाद बाजार समितियों (APMC) को भंग कर दिया था। उन्होंने ऐसा क्यों किया ? नीतीश ने एक उदाहरण दे कर इसकी वजह बतायी। हाजीपुर में एक किसान ने केला उपजाया था। मंडी में उसे कम दाम मिल रहा था। उसने अपना केला बाहर बेचने की सोची। जब किसान अपना केला बाहर बेचने के लिए निकला तो उसे बाजार समिति के लोगों ने परेशान कर दिया। ये देख कर बाद में बाजार समितियां भंग कर दी गयीं। नीतीश के मुताबिक, खुशी की बात है कि अब देश भर में बाजार समितियों का कानून खत्म हो रहा है। इस कानून के अनुसार किसान अपना उत्पाद केवल बाजार समितियों (पंजीकृत मंडियों) में ही बेच सकते हैं। उन्हें बाहर बेचने की इजाजत नहीं है। नीतीश कुमार का कहना है कि चूंकि ये मंडियां कुछ लोगों का कारोबार थीं। इसलिए इन लोगों को नया प्रावधान खराब लग रहा है। प्रधानमंत्री ने स्पष्ट कहा है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य कभी खत्म नहीं होगा। फिर इसका विरोध क्यों ? जब हमने बिहार में APMC के खत्म किय़ा था तब राजद ने भी हंगामा किया था। लेकिन बिहार में अब ये कोई मुद्दा ही नहीं है।
नीतीश ने 2006 में क्यों भंग की थी बाजार समितियां ?
फल विक्रेता संघ के एक पदाधिकारी के मुताबित, 1999 से 2005 के बीच बिहार सरकार कृषि उत्पाद पर 1 प्रतिशत कर लेने के इरादे से छोटी-छोटी बाजार समितियों की बंदोबस्ती के लिए टेंडर निकालती थी। ये टेंडर राजनीति संरक्षण प्राप्त दबंग लोग लेते थे। ये दबंग लोग पूरे बिहार में जगह -जगह बैरियर लगा कर किसानों के माल लदे वाहनों के रोक कर उनसे टैक्स के नाम पर मनमाना पैसा वसूलने लगे। किसानों का वाहन अगर एक जिले से दूसरे जिले में जाता उसे दो जिलों में पैसा देना पड़ता था। इस जबरन वसूली से किसान परेशान हो गये। मंडी के बाहर बिचौलिये मंडराने लगे। वे किसानों को मंडी में मूल आढ़ती के पास पहुंचने ही नहीं दे रहे थे। कानून में कोई दोष नहीं था। लेकिन दबंगों ने राजनीतिक और प्रशासनिक शह पा कर व्यवस्था को छिन्न-भिन्न कर दिया। 2005 में नीतीश कुमार सत्ता में आये। एक साल बाद उन्होंने भ्रष्टाचार के खात्मे के नाम पर बाजार समितियों को ही भंग कर दिया।
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क्या बिहार में किसानों का भला हुआ ?
बाजार समितियां खत्म होने के बाद भी बिहार में किसानों का शोषण जारी रहा। नीतीश सरकार ने पैक्स (प्राइमरी एग्रीकल्चर कोऑपरेटिव सोसाइटीज) के जरिये सरकारी दर पर धान और गेहूं खरीदने का फरमान जारी किया। लेकिन इससे भी किसानों का भला नहीं हुआ। पैक्स में धान बेचने के लिए पहले अद्यतन मालगुजारी रसीद देनी पड़ती थी। धान में जरूरत से अधिक नमी बता पैक्स धान खरीदने इंकार कर देते थे। किसान बोरियों में धन लाद कर कई दिनों तक खरीद केन्द्र पर पड़े रहते थे लेकिन उनका नम्बर नहीं आता था। जिसका धान बिकता था उन्हें नगद नहीं चेक से पैसा दिया जाता था। कई किसानों के नाम से बैंक खाता नहीं होता था। मालगुजारी रसीद अगर पिता या चाचा के नाम से होती तो चेक भी उसी नाम से निर्गत कर दिया जाता। इन झंझटों से उबे हुए किसान बिचौलियों को ही सस्ते में धान बेचना बेहतर समझने लगे।
केवल पांच फीसदी धान की ही सरकारी दर पर बिक्री
बाद में सरकार ने नियमों में ढील दी। 17 से 19 फीसदी नमी वाले धान को खरीदने की मंजूरी दी गयी। धान सुखाने के लिए पैक्स को ड्रायर मशीन दी गयी। लेकिन हालात नहीं बदले। 2019-20 के सीजन के लिए 15 नवम्बर से 31 मार्च तक धान खरीदा जाना था। सामान्य धान 1815 रुपये प्रति क्विंटल और ग्रेड ए धान 1835 रुपये प्रति क्विंटल लिया जाना था। धान बेचने के लिए साढ़े ग्यारह लाख से अधिक किसानों ने पैक्स में निबंधन कराया था। फरवरी 2020 तक केवल 45 हजार किसान ही सरकारी दर (1835) पर धान बेच पाये थे। पिछले साल भी साढ़े ग्यारह लाख में से करीब दो लाख किसान ही न्यूनतम समर्थन मूल्य पर धान बेच पाये थे। बाकी किसानों ने स्थानीय खरीदारों को 1200 से 1300 रुपये प्रति क्विंटल ही धान बेच दिया था। एक अनुमान के मुताबिक बिहार में कुल धान उत्पादन का करीब 5 फीसदी हिस्सा ही किसान न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP) पर बेच पाते हैं। अधिकतर बिचौलिये ही पैक्स में धान बेच कर टारगेट को पूरा कर देते हैं। गेहूं खरीद की स्थिति और भी खराब है। धान और गेंहू की कुछ बिक्री तो एमएसपी पर हो भी जाती है लेकिन पैक्स मक्का बिल्कुल नहीं खरीदते। मोदी सरकार ने 2020-21 के लिए मक्का का समर्थन मूल्य 1850 रुपये प्रति क्विंटल घोषित किया है। लेकिन बिहार के किसान हजार- बारह सौ रुपये प्रति क्विंटल ही मक्का बेचने पर मजबूर हैं। ऐसा इस लिए क्यों यहां मक्का खरीद की सरकारी व्यवस्था बिल्कुल ध्वस्त है। ऐसे नीतीश कुमार कैसे कह सकते हैं कि APMC खत्म कर देने से किसान खुशहाल हैं। बिहार के किसान तो सबसे अधिक बिचौलियों के चंगुल में है। यहां के नब्बे फीसदी किसानों को सरकारी मूल्य का लाभ नहीं मिल पाता। नीतीश कुमार ने कृषि विधेयक का समर्थन तो किया है लेकिन इसके नतीजे चुनाव के बाद सामने आएंगे।