बिहार चुनाव: क्या शराबबंदी की वजह से महिलाएं सुरक्षित हो गई हैं? -फ़ैक्ट चेक
2016 में शराबबंदी लागू करते समय शराब को महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा की मुख्य वजह माना गया था. शराबबंदी के चार साल बाद कितना कुछ बदला?
यह क़िस्सा जुलाई 2015 का है. विधानसभा चुनावों की आहट शुरू हो चुकी थी. बिहार की राजधानी पटना में महिलाओं के स्वयं-सहायता समूह 'जीविका' के एक कार्यक्रम में राज्य के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार पहुंचे हुए थे.
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार जैसे ही भाषण समाप्त करके मंच से उतरने लगे तो दर्शक दीर्घा में बैठी 'जीविका दीदियों' ने राज्य में फैल रही शराब की लत का मुद्दा उठाया और उनसे शराब पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाने की मांग की.
बिहार सरकार के राज्य ग्रामीण आजीविका मिशन का 'जीविका' मॉडल काफ़ी प्रसिद्ध रहा है.
महिलाओं के इस स्वयं-सहायता समूह समेत कई महिला संगठन काफ़ी समय से शराबबंदी की मांग कर रहे थे लेकिन उस दिन उन्हें सीधा मुख्यमंत्री के सामने यह सब कहने का मौक़ा मिल रहा था.
नीतीश कुमार मंच से उतर रहे थे लेकिन वो वापस मुड़े और मंच से मुस्कुराते हुए घोषणा कर दी कि वो अगर सत्ता में वापस लौटे तो राज्य में शराबबंदी लागू कर देंगे.
2015 में महागठबंधन की जीत के बाद नीतीश कुमार ने यह वादा निभाया और राज्य में शराबबंदी की घोषणा कर दी.
मुख्यमंत्री ने घरेलू हिंसा और 'पारिवारिक कलह' के लिए शराब की बढ़ती लत को ज़िम्मेदार बताया. इसके अलावा महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा, शोषण और ग़रीबी के लिए भी शराब की लत को एक बड़ा कारण बताया.
शराबबंदी के एक महीने बाद ही मई 2016 में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने कह दिया कि शराबबंदी के कारण अपराध में कमी आई है.
कब से शुरू हुई शराबबंदी?
मुख्यमंत्री नीतीश कुमार के निर्देश के बाद बिहार में शराब पर प्रतिबंध बिहार निषेध एवं आबकारी अधिनियम के तहत लागू किया गया जो 1 अप्रैल 2016 से शुरू हुआ.
यह क़ानून कहता है, ''कोई भी व्यक्ति किसी भी नशीले पदार्थ या शराब का निर्माण, वितरण, परिवहन, संग्रह, भंडार, ख़रीद, बिक्री या उपभोग नहीं कर सकता है.''
क़ानून का उल्लंघन करने पर कम से कम 50,000 रुपये जुर्माने से लेकर 10 साल तक की सज़ा का प्रावधान है.
वहीं, ऐसे मामले जिनमें कोई निर्माता या सप्लायर अवैध शराब किसी को देता है और उसे पीने से किसी की मौत हो जाती है तो उसमें मौत की सज़ा का प्रावधान भी है.
आगे क्या हुआ?
शराबबंदी बेहद ज़ोर-शोर से लागू की गई लेकिन उसका सबसे बड़ा बोझ राज्य के राजस्व पर पड़ा.
शराबबंदी की वजह से बिहार को हर साल 4,000 करोड़ रुपये से अधिक के राजस्व का नुक़सान हो रहा है. राज्य सरकार ने तब कहा था कि वह इसकी भरपाई के लिए वित्त और संसाधनों का बेहतर प्रबंधन करेगी.
शराबबंदी से राजस्व घाटे पर मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का कहना था, "सामाजिक नुक़सान इससे भी कहीं बढ़कर है. हम अन्य माध्यमों से घाटे की भरपाई करेंगे."
शराबंबदी के बाद मई 2016 में राज्य में हुई कुछ बड़ी आपराधिक घटनाओं के बाद मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक निजी समाचार टीवी चैनल से कहा था, "इधर एक दो घटनाएं घटी हैं जिनको लेकर हम सब मन से दुखी हैं और उसके लिए सख़्त कार्रवाई की जा रही है. और जब तक उसके दोषियों को क़ानून के कटघरे में खड़ा नहीं कर देंगे, चैन से नहीं बैठेंगे. लेकिन कुल मिलाकर आप देखेंगे तो शराबबंदी के बाद से बिहार में अपराध घटा है."
मुख्यमंत्री ने शराब से सामाजिक नुक़सान होने और शराबबंदी से अपराध घटने की बात की थी. लेकिन, आज आंकड़ों की ज़ुबानी बिहार पर नज़र डालें तो दिखता है कि शराबबंदी से बहुत बड़ा परिवर्तन नहीं आया है.
इसकी तस्दीक़ सत्ता पक्ष की रैली और भाषणों से भी होती है जिनमें नीतीश सरकार की सफलता के गुणगान के तौर पर शराबबंदी का फ़ैसला सबसे आख़िर में आता है या फिर इस मुद्दे को अक्सर गायब ही कर दिया जाता है.
आख़िर इसकी क्या वजह है? बिहार में दलित महिलाओं और लड़कियों के लिए काम करने वाली ग़ैर-सरकारी संस्था 'नारी गुंजन' की संस्थापिका सुधा वर्गीज़ कहती हैं कि शराबबंदी के तीन-चार महीनों तक तो अच्छे परिणाम देखने को मिले लेकिन आज फिर वही स्थिति है.
वो कहती हैं, "बिहार में शराब आज भी बनाई या बेची जा रही है और इसमें पुलिस की भूमिका पर भी सवाल हैं. क़ानून बना देना एक बात है और उसको लागू करना दूसरी बात. पुलिस पर इस क़ानून को लागू करने की ज़िम्मेदारी है."
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शराबबंदी के बाद महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध?
सुधा वर्गीज़ शराबबंदी के कारण महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध में कमी न आने की बात भी कहती हैं.
वो कहती हैं कि आज भी रेप और छेड़खानी की ख़बरें बिहार के अख़बारों में भरी रहती हैं.
सुधा वर्गीज़ की बात की पुष्टि नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो (एनसीआरबी) के आंकड़ों से भी होती है. शराबबंदी के बाद महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध में थोड़ी कमी ज़रूर आई लेकिन उसके बाद इनसे जुड़े मामलों में फिर बढ़ोतरी होती चली गई.
एनसीआरबी के आंकड़ों को देखें तो 2016 में जिस साल शराबबंदी लागू हुई उस साल महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध के कम मामले आए लेकिन उसके बाद के सालों में महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध के मामले तेज़ी से बढ़ते चले गए.
भारत में महिलाओं के ख़िलाफ़ होने वाले कुल अपराधों में बिहार का प्रतिशत 2016 में घटकर 4 फ़ीसदी हुआ लेकिन फिर वह 2019 में बढ़कर 4.6 फ़ीसदी पर पहुंच गया. इस हिसाब से भारत में बिहार राज्य महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध में आठवें पायदान पर है.
शराब को महिलाओं के ख़िलाफ़ घरेलू हिंसा के लिए भी बड़ा ज़िम्मेदार बताया जाता रहा है.
आंकड़ों पर नज़र डालें तो देखेंगे कि शराबबंदी लागू होने के बाद 2016-17 में घरेलू हिंसा के उतने ही मामले आ रहे थे लेकिन बीते दो सालों से बिहार में घरेलू हिंसा के मामले ज़रूर कम हुए हैं.
इसी तरह से राज्य में बलात्कार के मामले देखें तो शराबबंदी के एक साल बाद इसमें कमी ज़रूर आई लेकिन उसके बाद फिर एकाएक मामले बढ़ते चले गए.
शराबबंदी से सामाजिक बदलाव का दावा
शराबबंदी 'जीविका दीदियों' की भी मांग थी. बिहार के अररिया ज़िले की मुन्नी देवी जीविका दीदी हैं. वो कहती हैं कि शराबबंदी से घरेलू हिंसा की घटनाएं कम हुई हैं और घरों में अब पैसे भी बच रहे हैं.
हालांकि, वो इस बात पर भी सहमति जताती हैं कि शराब की तस्करी बढ़ी है और शराब उपलब्ध भी है लेकिन ख़ासा महंगी होने की वजह से इन्हें अब ग़रीब और कम आय वाले लोग पी भी नहीं रहे हैं. हालांकि, गांजा ख़ूब पिया जाने लगा है.
बिहार में शराब से राजस्व का तेज़ी से बढ़ना भी नीतीश कुमार सरकार के दौरान शुरू हुआ था.
2005 से 2015 के बीच राज्य में शराब की दुकानें दोगुनी हो गई थीं और 2004-05 में लालू प्रसाद यादव की सरकार के दौरान शराब से आने वाला जो राजस्व 272 करोड़ था वह 2013-14 में 3,300 करोड़ रुपये हो गया था.
बिहार सरकार का दावा था कि शराबबंदी से समाज में लोग अपने घर की ज़रूरतों पर अधिक पैसा ख़र्च करेंगे और स्वास्थ्यवर्धक चीज़ों का उपभोग करेंगे.
साल 2018 में थिंक टैंक एशियन डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट (एडीआरआई) और डेवलपमेंट मैनेजमेंट इंस्टीट्यूट (डीएमआई) ने दो अलग-अलग शोध किए और उनके हवाले से बताया कि बिहार में महंगी साड़ियों की ख़रीद, पनीर की खपत कई गुना बढ़ गई है और घर के फ़ैसले लिए जाने में महिलाओं की बड़ी भूमिका हो गई है.
हालांकि, यह दोनों शोध बिहार सरकार के दिशानिर्देशों के साथ हुए थे.
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पटना स्थित ए.एन. सिन्हा इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज़ के प्रोफ़ेसर डीएम दिवाकर शराबबंदी के बाद सामने आए परिणामों को एक 'मिक्स पिक्चर' बताते हैं.
वो कहते हैं कि इस शराबबंदी के ग्रामीण और शहरी बिहार पर अलग-अलग प्रभाव पड़े हैं. वो ग्रामीण क्षेत्रों में इसके सकारात्मक परिणामों को देखते हैं लेकिन साथ ही यह भी कहते हैं कि इससे इतना बड़ा बदलाव नहीं आया है कि लोग दोपहिया वाहन ख़रीदने लगे हैं, दूध-दही खाने लगे हैं और महंगी साड़ियां पहनने लगे हैं.
प्रोफ़ेसर दिवाकर कहते हैं, "2016 में शराबबंदी हुई और उसी साल नोटबंदी भी हुई. नोटबंदी के समय लोग गाड़ियां ख़रीदने लगे थे लेकिन उसका शराबबंदी से कोई लेना-देना नहीं था. लॉकडाउन के बाद तो अब और स्थिति ख़राब है. आर्थिक हालात बिलकुल ठीक नहीं हैं. सिर्फ़ ग़रीब ही नहीं बल्कि निम्न मध्य और मध्यमवर्गीय परिवार आर्थिक संकट से गुज़र रहे हैं, बेरोज़गारी चरम पर है तो ऐसी स्थिति में लोग शराब क्या पियेंगे."
क्या कहता है सत्ता पक्ष?
बिहार के सत्तापक्ष का मानना है कि शराबबंदी से बड़े सामाजिक बदलाव आए हैं.
सत्ताधारी दल जेडीयू के प्रवक्ता राजीव रंजन प्रसाद बीबीसी हिंदी से कहते हैं कि शराबबंदी से न केवल महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध में कमी आई है बल्कि लोगों का पैसा सही जगह ख़र्च हो रहा है और राज्य में दुर्घटना के मामले भी घटे हैं.
वो कहते हैं, "राज्य सरकार प्रति लाख आबादी के हिसाब से आपराधिक आंकड़े जारी कर रही है क्योंकि इस राज्य की घनी आबादी है. इस हिसाब से बिहार भारत में महिलाओं के ख़िलाफ़ अपराध के मामलों में 29वें पायदान पर है और बलात्कार के मामलों में 33वें नंबर पर है. महिलाओं के उत्पीड़न के मामले घटे हैं, सड़क दुर्घटनाओं में कमी आई है. इसके अलावा स्वास्थ्य विभाग में शराब से होने वाली बीमारियों के मामलों में कमी दर्ज की गई है."
एनसीआरबी के बिहार के आंकड़े भी प्रति लाख आबादी के हिसाब से तय किए गए हैं और राज्यों द्वारा उपलब्ध कराए गए आंकड़ों को ही एनसीआरबी अपने डाटा में शामिल करता है.
हालांकि, राजीव रंजन प्रसाद कहते हैं कि कुछ लोग अगर बिहार की छवि ख़राब करना चाहते हैं तो उनके झांसे में नहीं आना चाहिए.
बिहार में लगभग रोज़ाना तस्करी करके लाई जा रही शराब पकड़ी जाती है. बीते साल बीबीसी हिंदी की ही एक स्टोरी के ज़रिए पता चला था कि बिहार में हर एक मिनट में कम से कम तीन लीटर शराब की बरामदगी हुई और 10 मिनट के अंदर एक गिरफ़्तारी की गई.
चुनावी माहौल में शराब की तस्करी तेज़ी से बढ़ी है और शराब पकड़ी भी जा रही है लेकिन प्रोफ़ेसर दिवाकर शराब तस्करों के सिंडिकेट को न तोड़ पाने पर प्रशासन पर सवाल उठाते हैं.
वो कहते हैं, "ऐसा कोई सप्ताह नहीं होता जब शराब नहीं पकड़ी जाती है. शराबबंदी एक सकारात्मक क़दम है लेकिन इसको पूरा होने में कहीं न कहीं राजनीतिक इच्छाशक्ति आड़े आ रही है. शराब का सिंडिकेट नहीं टूटता सिर्फ़ छोटे-मोटे कैरियर को पकड़कर जेल में डाल दिया जाता है."
शराब तस्करों के सिंडिकेट के नहीं ख़त्म होने और शराब तस्करी बढ़ने पर जेडीयू के प्रवक्ता राजीव रंजन प्रसाद उलटा सवाल करते हैं कि आईपीसी और सीआरपीसी लागू होने के बाद क्या देश में हत्याएं या अपराध नहीं होते हैं.
वो कहते हैं कि एक बड़े युगांतकारी फ़ैसले को इस तरह से नकारा नहीं जा सकता है.
शराबबंदी के कारण इससे जुड़े आपराधिक मामले लगातार बढ़ रहे हैं. इस साल की शुरुआत में पटना हाई कोर्ट ने कहा था कि शराबबंदी क़ानून के उल्लंघन से जुड़े तक़रीबन 2.06 लाख मामले बिहार की अदालतों में लंबित पड़े हैं जो न्यायपालिका पर अतिरिक्त दबाव है.