अब की बार हाथी पर सवार उपेन्द्र कुशवाहा क्या 2 से सीधे 122 की छलांग लगा पाएंगे?
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उपेन्द्र कुशवाहा को कम से कम किसी एक दल ने तो सीएम चेहरा मान लिया। बसपा प्रमुख मायावती ने एलान किया है कि अगर रालोसपा-बसपा गठबंधन को बहुमत मिलता है तो उपेन्द्र कुशवाहा को बिहार का मुख्यमंत्री बनाया जाएगा। इस घोषणा की राजनीतिक परिणति तो बाद में सामने आएगी लेकिन इससे उपेन्द्र कुशवाहा की वर्षों पुरानी हसरत पूरी हो गयी। वे पिछले कई साल से खुद को भावी सीएम के रूप में देखते रहे हैं। लेकिन दिक्कत ये थी कि कोई दल उन्हें भाव ही नहीं दे रहा था। बसपा ने उनकी पुरानी साध पूरी कर दी। बसपा पिछले कई चुनावों से बिहार में किस्मत आजमाती रही लेकिन कुछ खास नहीं कर पायी है। कभी तीर-तुक्का में कुछ सीटें मिली हैं लेकिन अधिकतर मौकों पर झोली खाली ही रही है। उपेन्द्र कुशवाहा खुद को कुशवाहा समुदाय का सबसे बड़ा नेता मानते रहे हैं लेकिन चुनावी नतीजे इस बात की तस्दीक नहीं करते। तो क्या उपेन्द्र कुशवाहा अपने स्वजातीय मतों और दलित मतों के सहारे बिहार विधानसभा चुनाव में असर डाल पाएंगे ?
बिहार में बसपा
उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती पिछले तीन दशक से बिहार की राजनीति में पांव जमाने की कोशिश कर रही हैं लेकिन अभी तक कामयाबी नहीं मिली है। 1990 के विधानसभा चुनाव में उन्होंने चार उम्मीदवार खड़े किये थे पर किसी को जीत नहीं मिली थी। 1995 के विधानसभा चुनाव में बसपा के दो विधायक जीते। अभी जदयू के सांसद महाबली सिंह तब 1995 में बसपा के टिकट पर विधायक बने थे। सन 2000 में बसपा के पांच विधायक चुने गये थे जो उसका अब तक का सबसे बेहतर प्रदर्शन है। फरवरी 2005 के विधानसभा चुनाव में भी बसपा के दो उम्मीदवार जीते। अक्टूबर 2005 के चुनाव में बसपा के चार विधायक जीते। लेकिन 2010 के विधानसभा चुनाव में बसपा का बिहार से तंबू उखड़ गया। 2010 और 2015 के चुनाव में बसपा ने सभी 243 सीटों पर चुनाव लड़ा लेकिन एक भी सीट नहीं जीत पायी। बिहार में बसपा को अपनी जमीनी हकीकत मालूम है कि लेकिन वह किंगमेकर बनने के ख्याल से हर बार चुनावी मैदान में कूदती रही है। अगर दो, चार विधायक भी जीते और त्रिशंकु विधानसभा हुई तो उसकी पूछ बढ़ जाएगी। लेकिन पिछले 15 साल से बिहार में स्पष्ट जनादेश मिलने की वजह से उसका मंसूबा पूरा नहीं हो सका।
2015 में क्या हुआ था ?
2015 में पांच चरणों में चुनाव हुआ था जिसकी शुरुआत 12 अक्टूबर से हुई थी। बसपा ने सभी 243 सीटों पर उम्मीदवार खड़े किये थे। मायावती ने 9 अक्टूबर को बिहार के बांका से चुनावी रैली शुरू की थी। 13 अक्टूबर को उन्होंने उत्तर प्रदेश की सीमा से सटे रोहतास और कैमूर जिले में चुनाव प्रचार किया था। चूंकि उत्तर प्रदेश की सीमा से सटे बिहार के कुछ हिस्सों में पहले बसपा के विधायक जीत चुके थे। इस लिए मायावती ने 2015 में इन इलाकों में पूरा जोर लगाया था। 25 अक्टूबर मायावती ने बक्सर जिले में चुनावी सभा की थी। उन्होंने दलित मतों को गोलबंद करने की भरपूर कोशिश की लेकिन कामयाबी नहीं मिली। 243 में से एक भी सीट पर जीत नहीं मिली थी। उसका वोट शेयर केवल 2.1 फीसदी था। 2015 के विधानसभा चुनाव में रालोसपा प्रमुख उपेन्द्र कुशवाहा एनडीए में थे। उन्हें 23 सीटें चुनाव लड़ने को मिलीं थीं। चुनाव हुए तो रालोसपा को 2.6 फीसदी मतों के साथ केवल 2 सीटें मिलीं। 2015 में कुशवाहा को नरेन्द्र मोदी के नाम का भी कोई फायदा नहीं मिल पाया था। अगर 2015 के प्रदर्शन को देखा जाए तो बसपा और रालोसपा, दोनों का प्रदर्शन बेहद निराशजनक रहा था। उपेन्द्र कुशवाहा खुद को सबसे बड़ा कुशवाहा (कोइरी) नेता मानते हैं। लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में उनका यह दावा भी चकनाचूर हो गया। कुशवाहा ने 2019 में बिहार के दो कोइरी बहुत सीटों (काराकाट और उजियापुर) से लोकसभा का चुनाव लड़ा था लेकिन दोनों सीटों पर स्वजातीय वोटरों ने उन्हें खारिज कर दिया था। उन्हें महागठबंधन में पांच सीटें मिलीं थीं। लेकिन एक भी नहीं जीतने के कारण उनकी राजनीतिक हैसियत जमीन पर आ गिरी।
2020 में मायावती और कुशवाहा की स्थिति
पिछले चुनाव के नतीजों से पता चलता है कि मायावती और उपेन्द्र कुशवाहा, दोनों ही अपने आधार मत को गोलबंद नहीं कर सके थे। बिहार में अनुसूचित जाति के लिए 38 सीटें रिजर्व हैं। 2015 के विधानसभा चुनाव में मायावती इनमें एक पर भी जीत हासिल नहीं कर सकी थीं। यानी बिहार के दलित वोटर अभी मायावती को अपना नेता मानने की स्थिति में नहीं है। बिहार में 16 फीसदी दलित वोटों पर प्रभाव जमाने के लिए अभी मारामारी मची हुई है। उत्तर प्रदेश में सक्रिय एक और दलित नेता चंद्रशेखर भी बिहार चुनाव में ताल ठोक रहे हैं। उनके साथ महाराष्ट्र के दलित नेता वीएल मातंग युगलबंदी कर रहे हैं। जदयू ने अशोक चौधरी को प्रदेश कार्यकारी अध्यक्ष बना कर अपना पासा फेंक दिया है। रामविलास पासवान और जीतन राम मांझी पहले से इस वोटबैंक के लिए जोरआजमाइश कर रहे हैं। यानी दलित समुदाय के मतदाताओं के सामने इस बार कई विकल्प मौजूद हैं। ऐसे में मायावती की कोशिश कितनी कामयाब होगी ? उपेन्द्र कुशवाहा भी अभी तक खुद को कोइरी समेत अन्य अतिपिछड़ी जातियों का नेता साबित नहीं कर पाये हैं। 2020 का चुनाव पहले के चुनावों से बिल्कुल अलग है। अब पहले की तरह चुनावी सभाएं संभव नहीं हैं। ऐसे में दोनों दल कैसे चुनाव अभियान संचालित करेंगे, इस पर भी बहुत कुछ निर्भर करता है। उपेन्द्र कुशवाहा अगर हाथी पर चढ़ भी गये हैं तो क्या वे इतनी बड़ी छलांग लगा पाएंगे कि 2 से सीधे 122 के जादुई आंकड़े तक पहुंच जाएं ?
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